सप्ताहांत मतलब रविवार। रविवार शब्द तो बाद में आया संडे पहले ही आ गया था। अब ये मत पूछने लगिएगा पहले मुर्गी आई या
अंडा। बाकियों का तो मुझे नहीं मालूम, पर भई ये फंडा तो आज़ तक मुझे समझ में नहीं आया। बचपन से ही संडे मतलब छुट्टी। काम से छुट्टी। पढ़ाई से छुट्टी। मतलब छुट्टी ही छुट्टी। वैसे शनिवार को आधे दिन का स्कूल और कॉलेज हुआ करता था। जहां तक मुझे याद है दफ्तरों में भी आधे दिन ही काम हुआ करता था। पिताजी शनिवार को दफ्तर से थोड़ा पहले ही घर आ जाया करते थे।
सन् 1996 में जब नौकरी ज्वाइन किए तो शायद उसी वर्ष से या एक दो वर्ष पहले से केन्द्र सरकार के दफ्तरों में छः दिनों के बजाय पांच दिनों का सप्ताह होने लगा। अब आप फिर से यह न पूछिएगा कि भई सप्ताह तो हम सभी ने सात दिन का होता है ऐसा पढ़ा था। कृपया बाल का खाल ना निकालें ! बात किसी और संदर्भ में हो रही है। थोड़ा समझने की कोशिश करें। हां तो भाई , नौकरी का पहला सप्ताह। कार्यालय परिसर में बने अतिथि घर में हम चार पांच सहयोगी ( जी हां! सहयोगी कहना ही ठीक रहेगा। कार्यालय में कहां मित्र शब्द इस्तेमाल होता है ) , ठहरे हुए थे। अभी – अभी तो हमने नौकरी ज्वाइन किया था। इतनी जल्दी से घर कहां मिलता। वैसे भी हम सभी अपनी अपनी पहली तनख्वाह का इंतजार कर रहे थे। महीने के अंत में तनख्वाह मिले तो आगे की सोचें। हमारे विचार से तनख्वाह मतलब जो महीने भर तन खपाने के बाद मयस्सर हो। सच भी है। मजदूर हैं हम सभी। काम करने के बाद ही मेहनताना मिलता है। नौकर ना कहें, शब्द थोड़ा दिल को लग जाता है। वैसे भी क्या फ़र्क पड़ता है। जब सरकार मंहगाई भत्ते देती है तो अखबारों की सुर्खियां बनती है ” बाबूओं के वेतन में वृद्धि ” । वहां सभी बराबर हो जाते हैं। क्या कर्मचारी क्या अधिकारी! आप अपने मन में अपने बारे में कुछ भी मुगालता पाल लें। क्या फ़र्क पड़ता है। सच्चाई तो यही है। Normalisation कर दिया गया है। स्वीकार कर लें।
ख़ैर! कहां से चले थे और कहां आ गए। यह जो ‘ मन ‘ है ना, ना चाहते हुए भी मुआ भटक ही जाता है। बड़े बुजुर्गो ने कह रखा है – इसे काबू में रखो, पर कैसे ?
ख़ैर! ज्वॉइन करने के बाद का पहला सप्ताह। आज़ शुक्रवार है। कार्यालय का अंतिम दिन। लंच के बाद से ही शर्ट जो अब तक पैंट के अंदर कर पहने हुए थे, अब बाहर आ चुका है। फुल स्लीव का शर्ट अब हाफ स्लीव में तब्दील हो चुका है। बाहें ऊपर को चढ़ा ली गई हैं। बंदा पुरी तरह से छुट्टी/ छुटकारा के मुड में। आखिरकार दो दिनों की छुट्टी जो मिलने वाली है। शनिवार की सुबह जैसे कार्यालय परिसर से बाहर निकले, मुंह से अनायास ही निकल पड़ा – अरे छुट्टी के दिन भी सड़क पर इतनी भीड़, इतना ट्राफ़िक! मेरे सहयोगियों ने मुझे सुधारते हुए, मुझे नींद से जगाते हुए कहा। अरे भाई यह दो दिनों की छुट्टियां सरकारी दफ्तरों की हैं । पुरा शहर थोड़े ही ना छुट्टी मना रहा है। तभी मेरी तंद्रा भंग हुई। सच्चाई से रूबरू हुए।
आज़ भी मेरी वो स्थिति बदस्तूर जारी है। शुक्रवार आधे दिन के बाद अब तो ख़ैर शर्ट बाहर नहीं आता है। थोड़े वरिष्ठ जो हो गए हैं, पर क्या फ़र्क पड़ता है। चार दिन की चांदनी, फिर अंधेरी रात। आज़ जो आम आदमी से परे अपने आप को समझ रहे हैं, यह स्थायी कहां है। कुछ ही दिनों की तो मेहमान है। इसपर क्या इतराना।
खैर! शुक्रवार को आधे दिन के बाद शर्ट बाहर तो नहीं आती,पर बाहें ऊपर जरुर चढ़ जाती हैं और खुशी तो चेहरे पर दिखाई पड़ने लगता है आने वाले दिनों की छुट्टियों की जहां हम अपने मन की करेंगे। हालांकि अब सरकारी दफ्तरों में परिस्थितियां थोड़ी भिन्न हो गई हैं। अब तो आपका मोबाईल आपको छुट्टियों के दिनों में भी कहां चैन लेने देता है। वक्त के साथ बदलाव आया है। अब छुट्टी का असली मतलब ‘मन का सुकून’ कहीं खो सा गया है। मोबाइल और ईमेल का बोझ छुट्टी के दिन भी पीछा नहीं छोड़ता।
पहले की छुट्टियां सरल थीं। मनमौजी थीं। अब छुट्टियां भी काम और जिम्मेदारियों की घेराबंदी में फंसी हैं। लेकिन फिर भी, ‘संडे’ का नाम सुनते ही दिल में एक सुकून का एहसास होता है। छुट्टी, भले ही छोटी हो, हमें रिफ्रेश करने का काम करती है। आखिरकार, जिंदगी की भागदौड़ में इन छोटे-छोटे ठहराव ही तो बड़ी राहत देते हैं।
तो अगली बार जब ‘संडे’ आए, तो इसे सिर्फ एक छुट्टी के दिन के तौर पर न देखें। इसे अपने मन को रिचार्ज करने का मौका दें। जी भरकर हंसें, अपनों के साथ वक्त बिताएं और खुद को फिर से ऊर्जा से भर लें। आखिरकार, यही तो जिंदगी का असली मतलब है।
✒️ मनीश वर्मा’मनु’