वर्तमान दौर की कथाएं कहती प्रियंका ‘सौरभ’ की कृति ‘दीमक लगे गुलाब’

‘दीमक लगे गुलाब’ युवा कवयित्री प्रियंका ‘सौरभ’ का ‘निर्भयाएं’ के बाद दूसरा संग्रह है, साहित्य सृजन के क्षेत्र में वे लंबे समय से सक्रिय है। साहित्य और समसामयिक लेखन में प्रियंका ‘सौरभ’ आधुनिक तकनीकी युग की कवयित्री हैं लेकिन उनकी संवेदना की जड़ें परंपरा में गहरी जुडी हुई हैं। यह भी कहा जा सकता है कि प्रियंका ‘सौरभ’ की कविताएँ ‘ग्लोबल’ जमाने में संवेदना के क्षरण के प्रतिवाद के रूप में ‘लोकल’ को प्रस्तुत करने वाली कविताएँ हैं।

यह स्थानीयता कवयित्री ने यादों के सहारे आयत्त की है। यदि यह कहा जाए कि उनके इस संग्रह की अनेक कविताओं का बीज-शब्द ‘याद’ है तो अतिशयोक्ति न होगी। यह याद प्रेम सहित विभिन्न संबंधों की याद है जो कंप्यूटर के पंखों पर बैठकर उड़े जा रहे मनुष्य के दामन से छूट रहे हैं। यह याद उस गाँव और लोक की है जो नगर और महानगर में लाकर रोप दिए गए। कवयित्री-मन निरंतर बजता रहता है। यह याद उस साहित्यिक संस्कार की है जिसका निर्माण पौराणिक मिथकों से लेकर ग़ालिब और गुलज़ार तक ने किया है। इन कविताओं में समकालीन, सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक यथार्थ अपनी पूरी तल्खी के साथ दृष्टिगोचर होता है।

कृति की प्रथम कविता ‘सबके पास उजाले हो’ में कवयित्री ने गरीब-अमीर सभी को रोग-शोक से मुक्त होने व स्वस्थ, सुखी और खुशहाल देखने की कामना प्रकट की है। तथा देश के नागरिकों में पारस्परिक प्रेम व सद्भाव का संचार होने और भारत देश को विश्व का सिरमौर बनने की सदेच्छा व्यक्त की है-

दर्द किसी को छू न पाए,

न आंख से आंसू आए,

झोंपडिय़ों के आंगन में भी,

खुशियों की फैली डाले हो ।।

सबके पास उजाले हो ।।

संग्रह की कविताओं में मुक्त छंद व छंद युक्त दोनों प्रकार की काव्य शैलियों का मिश्रित प्रयोग हुआ है। गीत, ग़ज़ल आदि काव्य रूपों का वैशिष्टय भी दृष्टिगोचर होता है। सरल, सुबोध व प्रवाहमयी भाषा ने कृति की अर्थवत्ता, पारदर्शिता एवं अभिव्यक्ति कौशल में चार चाँद लगा दिए हैं।

प्रस्तुत कवितायेँ कई तरह की है। उसके कई स्रोत हैं। रूमानी भावबोध और उसका टूटना युवा मन की काव्य धारा का स्त्रोत है। आलोचक भले ही कवियों को अतीतजीवी कहते रहें, लेकिन अतीत की यादें ही जीवन को रसमय बनाए रखने के लिए काफी हुआ करती हैं। इसीलिए कवयित्री चाहकर भी खंडित प्रणय-अनुभूति की स्मृति से बाहर नहीं आना चाहती। इन स्मृतियों में कवयित्री ने बहुत कुछ समेटकर रखा है –

सूना-सूना सब तुम बिन,

रात अंधियारी, फिके दिन ।

तुम पे जो मैंने गीत लिखे

किसको आज सुनाऊं मैं ।।

इस संग्रह में बहुत सी रचनाएं ग़ज़ल और दोहा के शिल्प में हैं और कुछ रचनाएं गीत के शिल्प में भी हैं। लेकिन कवयित्री प्रियंका ‘सौरभ’ विधाओं के चौखटे में बंधी हुई नहीं हैं। कविताओं की आकर्षण शक्ति इनमें विद्यमान सहज प्रवाह और लयात्मकता में निहित है। सामाजिक-राजनैतिक यथार्थ के अंकन के प्रति कवयित्री प्रियंका ‘सौरभ’ की प्रतिबद्धता इस संग्रह के घोष वाक्य से ही उजागर होनी शुरू हो जाती है –

शकुनि चालें चल रहा है,

पाण्डुपुत्रों को छल रहा है ।

अधर्म की बढ़ती ज्वाला में,

संसार सारा जल रहा है । ।

बुझा डालो जो आग लगी है,

प्रेम-धारा बरसाओ मेरे श्याम ।।

भारतीय लोकतंत्र की यह त्रासदी है कि सरकारें बदलती हैं लेकिन गरीब जनता के हालात नहीं बदलते। आम आदमी की इस नादानी पर कवयित्री विस्मय करती है कि वह लिखे तो क्या लिखे ?-

लिखने लायक है नही,

राजनीति का हाल ।

कुर्सी पे काबिज हुऐ,

गुण्डे-चोर-दलाल।।

मां पर यहां कई कविताएं हैं प्यार, संवेदना और उसकी विशाल हृदयता के लिए कृतज्ञता ज्ञापित करती हुईं.-

माँ बगिया है, माँ कानन,

माँ बसंत-सी मनभावन ।

आखिर देवों ने भी माना,

माँ रूप है सबसे पावन ।।

कवयित्री मन वर्तमान में रिश्तों में आये बदलावों से दुखी है और कहती है कि अब रिश्तों के मायने बदल गए है। आज हम जिन रिश्तों के साथ जी रहें है वो ‘दीमक लगे गुलाब’ की तरह है जो दिखाई देते है मगर वास्तविक खुशबू से वंचित है –

 

सदियों से पलते जाते

अपनेपन के रिश्ते नाते

जलकर के राख हो गए हैं ।

बीती हुई बात हो गए है ।।

माँ का छलकता हुआ दुलार

प्रिया का उमड़ता अनुपम प्यार

मानो-

दीमक लगे गुलाब हो गए है ।

हर चेहरे पे नकाब हो गए है ।।

संग्रह में चालीस से अधिक कविताएं संगृहीत हैं जो एक से बढ़कर एक हैं। इनमें जहां जीवन के प्रति आशावादी दृष्टिकोण प्रतिबिंबित हुआ है, वहीं जीवन के प्रति अनुराग का भावभरा संदेश भी मुखरित हुआ है यथा-

न जाने कितने मोड़ मिलेंगे ।

पग-पग मुश्किल रस्ता रोकेगी,

कष्टों के झकझोर मिलेंगे ।।

यदि मंजिल को है चूमना,

ना बाधा देख डरो ।

“देखा रूप साकार, कैसे आज गुनगुनाऊं, मुझे तुम्हारा प्यार चाहिए आदि कविताओं में शृंगार रस के संयोग व वियोग दोनों पक्षों का मनोहारी चित्रांकन हुआ है। ये कविताएं अत्यंत मार्मिक, ह्रदय स्पर्शी व आह्लादकारी हैं, इन्हें पढ़कर पाठक भावविभोर हुए बिना नहीं रह सकता। इन कविताओं में शृंगार के साथ करुण रस व माधुर्य गुण का भी सुंदर परिपाक हुआ है-

देखा रूप साकार,

देखूँ क्या अब मैं अन्य ।

तेरा सुन्दर रूप, ’परी’,

पाकर हुआ धन्य ।।

सुन ‘सौरभ’ की बात,

मिले क्या मन्दिर जाकर।

मुझको तो है सब मिला,

साथ तुम्हारा पाकर ।।

“आदमी” कविता में प्रियंका ‘सौरभ’ने स्वार्थ के बढ़ते वर्चस्व पर कटाक्ष किया है जिसके कारण आज समाज में मानव का महत्त्व निरंतर गिरता जा रहा है व इंसानियत मरती जा रही है-

आदमी ने आदमी से,

तोड़ लिया है नाता ।

भूल गया प्रेम की खेती,

स्वार्थ की फसल उगाता ।।

“मतलब के सब यार” में भी कवयित्री ने कुछ इसी प्रकार के भावों को शिद्दत से रेखांकित किया है-

मतलब का है लेना देना,

मतलब के सब बोल ।

स्वार्थ के संग तुल गए,

आज संबध सब अनमोल । ।

दिल के भाव सूख गए,

मुरझा गया है प्यार ।

मतलब के सब यार ।।

प्रियंका ‘सौरभ’ की कवितायें सामाजिक एवं राजनैतिक जीवन के कटु यथार्थ को प्रभावशाली तरीके से व्यंजित करती हैं, जिन्हें पढ़कर संवेदनशील पाठक के मन में विकृतियों के प्रति आक्रोश पैदा होता है तथा उनसे छुटकारा पाने की प्रबल आकांक्षा जागृत होती है।

“काँटों पे नित चलो, आओ! हम रचे नवगीत, रात अंधियारी दीप जलाओ कविताएं संदेशप्रद, प्रेरणादायी एवं उत्साहवर्धक हैं, इनमें कवयित्री ने जीवन में संघर्ष के महत्व, आपसी भेदभाव छोड़कर कुछ सृजनात्मक करने, हँसते-खिलखिलाते रहने एवं अंधेरों से लड़ने का महनीय संदेश दिया है। इनमें प्रसाद एवं ओज गुण का स्वाभाविक प्रयोग हुआ है।

बढ़ते कदमों को फांसने,

नियति अपना खेल रचेगी ।

जीवन के इस महाभारत में,

बाधाएं चक्रव्यूह रचेगी ।।

होना चाहो अमर यदि तो,

अभिमन्यु-सा वीर बनो ।

गर खिलना है फूलों-सा,

काटों पे नित चलो ।।

‘बचपन का गाँव और ‘बचपन’ कविताओं में उन दिनों के नैसर्गिक सौंदर्य का अनुपम चित्रण हुआ है व माँ और बाबू जी के साथ-साथ गाँव की भूमिकाओं को रेखांकित किया है-

सपनों की रानी ।

कागज की नाव

सावन का पानी ।।

खुशी का तराना ।

शरारत का दौर

हँसी का खजाना ।।

झिलमिल तारे

माँ की गोद

वो गज़ब नजारे ।।

इस काव्य संग्रह की बहुधा कविताएँ हमारे आसपास के परिवेश से रिश्ता बनाती हुई चलती हैं। ’आओ मेरे श्याम‘ में कवयित्री ने अनीति, अधर्म, अंधकार की जड़ों को उखाड़ फेंकने की कामना की है। ’इबै ना मारै मनै‘ में कवयित्री बेटी की गर्भ में हत्या के करुण क्रंदन से व्यथित अपनी आह को इस तरह शब्दों के घोंसले में सहेजती हैं –

’मैं भी तेरै आंगण खेलूगी

तेरे दुखड़े मिलके झेलूंगी

अम्मा मेरी बात मेरी मान, इबै ना मारै मनै।

मैं हूं बिन जन्मी नादान, इबै ना मारै मनै।

तभी ‘अब कौन बताए ?’ में उनके देशभक्ति स्वर मुखर हो जाते हैं। ‘दिल में हिंदुस्तान’ में एक पुकार है-

रग-रग में पानी हुआ,

सोये सारे वीर ।

कौन हरे अब देश में

भारत माँ की पीर ।।

और इसी आस की ज्योति से प्रकाशित उनकी अंतरात्मा कह उठती है-

आज़ादी अब रो रही,

देश हुआ बेचैन ।

देख शहीदों के भरे

दुःख से यारों नैन ।।

मैंने उनको भेंट की

दिवाली और ईद ।

सीमा पर मर मिट गए,

जितने वीर शहीद ।।

आशावादिता से भरपूर इन मार्मिक काव्य कणिकाओं की रचना के लिए कवयित्री प्रियंका ‘सौरभ’ साधुवाद की पात्र हैं।

जब कवयित्री यह कहती है कि –

दीवारें जिनकी होती थी साया,

जानलेवा अब वो मकान हो गए।।

जिंदा तो क्या बिकती है लाशें यहाँ,

आमदनी का जरिया श्मशान हो गए।।

तो वह हमारे समय के चेहरे के बदनुमा दाग दिखा रहा होता है। विकास के सारे सपने और आश्वासन इसलिए अधूरे हैं कि भ्रष्टाचार और बैर-भाव से युक्त ईर्ष्या को जीवन-मूल्य के रूप में स्वीकृति मिल गई है। ऐसे में यदि रिश्ते-नाते मशीनी होते जा रहे हैं तो क्या किया जाय। अपराधबोध स्वाभाविक है –

पढ़े तूने गीता और वेद,

गए न फिर भी मन के भेद ।।

सुबह शाम की रे पूजा,

मनवा हुआ नहीं सफेद ।।

इस सामाजिक यथार्थ का आर्थिक पहलू और भी विसंगतिपूर्ण है। एक तरफ वे आम आदमी के बदलते व्यवहार को सबके सामने रखती तो दूसरी ओर वे साहित्य में राजनीति के प्रवेश को दुखदायी मानती है। आज साहित्य का एक सिरा राजनैतिक व्यवस्था के साथ जुड़ा है। जिससे पूरा का पूरा व्यवस्था-तंत्र जनता को लूटने का तंत्र बन गया है। नेता लुटेरे बन गए हैं और सियासत के घोड़े सदियों से ढाई घर चलते आ रहे हैं –

राजनीति के रंग जमाते,

साहित्य के ये ठेकेदार ।।

बेचे कौड़ी में कलम,

हो कैसे साहित्यिक उद्धार ।

अभिप्राय यह है कि प्रियंका ‘सौरभ’ हमारे समय के तमाम युवा रचनाकारों की तरह वर्तमान से असंतुष्ट और रुष्ट कवयित्री हैं। उनका असंतोष और रोष उनकी पूरी पीढ़ी का असंतोष और रोष है; लेकिन प्रियंका ‘सौरभ’ की अभिव्यक्ति प्रणाली की विशेषता इस बात में हैं कि वे इस असंतोष और रोष को नारा नहीं बनने देती, बल्कि पूरी संजीदगी के साथ वर्तमान की शल्यक्रिया करते हुए अपनी अभिप्रेत व्यवस्था का सपना देखती हैं। इसके लिए वे प्रतीक और मिथक का कवयित्री -सुलभ मार्ग खोजती हैं। प्रतीक और मिथक के सहारे वे ऐसी काव्य-भाषा गढ़ती हैं जो उनकी अभिव्यक्तियों को राजनैतिक बयान होने से बचा लेती है। कविताओं की कथात्मकता और व्यंगात्मकता भी अनेक स्थानों पर ध्यान खींचती है.-

अंत में यह कहना जरूरी है कि भले ही आज का सृजनकारी मन अभिव्यक्ति पर अंकुश और व्यापक असहिष्णुता के दौर में जीने को अभिशप्त है, तथापि प्रियंका ‘सौरभ’ जैसी युवा रचनाकार को यह घोषणा करते हुए संतोष है कि –

ये शब्दों की आजाद शमां,

यूं ही जलती जाएगी,

बुझे न दिल की आग बुझाए,

अब कौन बताए।

यह शुभ संकेत है कि इस पीढ़ी का रचनाकार न तो अतिरिक्त आवेश में है और न ही अतिरिक्त अवसाद में। अपने समय की विरूप सच्चाइयों को पहचानने वाली कवयित्री आशान्वित है कि अमावस के बावजूद पूर्णिमा अवश्य आयेगी बशर्ते हम माटी का हक़ अदा करें –

इस माटी में जन्मी, एक रोज,

इसी में मिल जाऊँगी,

है अरमां काम देश के आए,

अब कौन बताए ।

‘दीमक लगे गुलाब’ के प्रकाशन के अवसर पर कवयित्री को अनंत शुभकामनाएं ।

 

डॉ० रामनिवास ‘मानव’

प्रोफेसर एवं अध्यक्ष, हिंदी-विभाग,

सिंघानिया विश्वविद्यालय, पचेरी बड़ी (राज०)

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