कभी किसी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता!
कहीं ज़मीं तो कहीं आसमाँ नहीं मिलता!!
निदा फ़ाज़ली
चलिए शुरुआत करते हैं निदा फ़ाज़ली की उपरोक्त ग़ज़ल से। यह ग़ज़ल सच्चाई और मेरे दिलो-दिमाग दोनों ही के बड़े करीब है। आइए कुछ देर के लिए ही सही हम ले चलते हैं आपको फ्लैशबैक में। लगभग हम सभी ने इसे जिया है।
लगभग सभी हिन्दी भाषी राज्यों में संघ लोक सेवा आयोग की परीक्षाओं को लेकर एक अलग ही क्रेज रहता है। कल भी था,आज
भी है और कल भी रहेगा। हां, थोड़ा फर्क जरूर पड़ा है, पर इतना भी नहीं कि यह अप्रासंगिक हो जाए। अब चूंकि रोजगार के क्षेत्रों में अन्य रास्ते भी खुल गए हैं, तो आप कह सकते हैं कि इसके प्रति युवाओं का रूझान थोड़ा कम जरूर हुआ है, पर इसे सिरे से आप नकार नहीं सकते हैं। कुछ तो युवाओं की मानसिकता बदली है। अब वो power accentric नहीं रहे। उन्हें काम का अच्छा माहौल और बेहतर जीवन शैली चाहिए। वे स्वतंत्र होकर अपना योगदान देना चाहते हैं। बंदिशें उन्हें पसंद नहीं।
वैसे एक बात और है,लोग पहले से ज्यादा जागरूक भी हो चले हैं, पर हमारे जैसे अन्य लोगों की बात अगर हम करें तो हमारे लिए उस वक्त डॉक्टर, इंजिनियर और आई. ए. एस यानि कि संघ लोक सेवा आयोग की परीक्षा जो आपको अखिल भारतीय स्तर पर प्रथम श्रेणी का राजपत्रित अधिकारी बनाती थी, इसका एक अलग ही क्रेज था। एक दीवानगी थी, एक जुनून था। सोते जागते लोग उसी के सपने देखते थे। हम भी उनमें से एक थे।
खैर! उस वक्त तो शायद तपस्या में कहीं कोई कमी रह गई या किस्मत में नहीं बदा था, सो धौलपुर हाउस का चौखट नहीं लांघ सके। वर्षों की नौकरी करने के बाद अनुभव के सहारे किसी और रास्ते से हमने अंततोगत्वा उसे हासिल किया और हम आ पहुंचे हैं नागपुर। नागपुर , जहां अखिल भारतीय स्तर पर प्रथम श्रेणी के अधिकारियों को प्रशिक्षित किया जाता है। देर से ही सही एक सपना जो सच हुआ।
अपनी अभिव्यक्ति को या यूं कहें बहुतों के अरमानों को हमने राजधानी एक्सप्रेस और दिल्ली के माध्यम से आपके समक्ष रखने का प्रयास किया है। दिल्ली पहुंचने से हमारा आशय प्रोन्नति पाने से है और अपने आप को उस गरिमामयी सेवा का हिस्सा बनने से है।
ख़ैर! बचपन से ही दिली इच्छा थी राजधानी एक्सप्रेस में सफ़र करने की। बड़ा नाम था इसका। किस्से दूर दूर तक फैले हुए थे।हर कोई इसकी व्याख्या अपने ही ढंग से कर रहा था। ऐसा लगता था मानो कुछ अंधे मिलकर हाथी के बारे में जानकारी दे रहे हों। जिनके हाथ ने पूंछ छुआ उसने हाथी के बारे में कुछ और कहा और जिसके हाथों ने कान छुआ उसने कुछ और कहा। सच्चाई तो यह थी उनमें से किसी ने भी हाथी को देखा नहीं था। स्वाभाविक है, देखते भी कहां से। कमोवेश यही स्थिति राजधानी एक्सप्रेस ट्रेन की थी। धीरे-धीरे धून सवार हो गई कि अब तो चाहे जो हो जाए यात्रा तो राजधानी एक्सप्रेस की ही करनी है। धीरे-धीरे तो यह ट्रेन सपने में भी आने लगी। आप जो चाहते हैं उसे पाने के लिए आप जी जान से कोशिश करते हैं, पर अगर आपने कहीं पर भी थोड़ी सी आलस या तपस्या में कमी की तो चीजें आपके हाथ में आकर भी कब निकल जाएगी आपको पता भी नहीं चलेगा। कहीं ना कहीं थोड़ी कमी रह गई थी। स्टेशन पर पहुंचने के बावजूद ट्रेन छूट गई। अब तो मजबूरी थी। दिल्ली अब वाकई दूर दिखाई देने लगी। जाना तो था ही। दूसरी ट्रेन पर सवार हो लिए। यह ट्रेन हर स्टेशन पर रूक कर चलती थी। हद तो तब हो गई जब यह ट्रेन दिल्ली स्टेशन के आउटर सिग्नल पर रूक गई। अब तो आशा की बची-खुची किरण भी जवाब देने लगी। हिम्मत हार रहे थे, पर अचानक से ट्रेन चल पड़ी। सारे डब्बे खचाखच भरे हुए थे। रिज़र्वेशन वाले डब्बे में भी लोगों की रेलमपेल जारी थी। क्या कर सकते थे। हम इतने समय से दिल्ली आने का सपना देख रहे थे, पर कइयों ने तो चेन पुलिंग कर बीच में ही ट्रेन को रोक कर अपना सफर शुरू कर दिया। अब राजधानी एक्सप्रेस ट्रेन से तो नहीं, पर दिल्ली जरूर आ गए थे। राजधानी का उत्साह अब काफूर हो चला था।
खैर! दिल्ली आना ही बड़ी बात थी। पहुंच गए दिल्ली। दिल्ली वालों ने स्वागत में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। दिल्ली वाले वाकई दिल वाले होते हैं। उम्र के इस पड़ाव पर चीजें जब हासिल होती हैं तो एकाएक विश्वास नहीं होता है। खुद को चिकोटी काट कर तस्दीक करते हैं। हां एक बात है चीजें अगर सही समय पर हासिल होती है तब आप ज्यादा बेहतर योगदान दे पाते हैं। नहीं तो बस आप उसे निभाने में ही लग जाते हैं।
✒️ मनीश वर्मा’मनु’