मीरा चरित्र – “आज प्रभु आएं हैं तो यहीं क्यों न रख लें ?”

भाग ०७

मीरा अभी भी तानपुरा ले गिरधर के सम्मुख श्याम कुन्ज में ही बैठी थी। वह दीर्घ कज़रारे नेत्र, वह मुस्कान, उनके विग्रह की मदमाती सुगन्ध और वह रसमय वाणी सब मीरा के स्मृति पटल पर बार बार उजागर हो रही थी।

मेरे नयना निपट बंक छवि अटके।

देखत रूप मदनमोहन को पियत पीयूख न भटके।

बारिज भवाँ अलक टेढ़ी मनो अति सुगन्ध रस अटके॥

टेढ़ी कटि टेढ़ी कर मुरली टेढ़ी पाग लर लटके।

मीरा प्रभु के रूप लुभानी गिरधर नागर नटके ॥

मीरा को प्रसन्न देखकर मिथुला समीप आई और घुटनों के बल बैठकर धीमे स्वर में बोली –

“जीमण पधराऊँ बाईसा

(भोजन लाऊँ )? ”

“अहा मिथुला !

अभी थोड़ा ठहर जा”।

मीरा के ह्रदय पर वही छवि बार बार उबर आती थी। फिर उसकी उंगलियों के स्पर्श से तानपुरे के तार झंकृत हो उठे-

नन्दनन्दन दिठ (दिख) पड़िया माई,

साँवरो साँवरो।

नन्दनन्दन दिठ पड़िया माई,

छाड़या सब लोक लाज,

साँवरो सावरो

मोरचन्द्र का किरीट,

मुकुट जब सुहाई।

केसररो तिलक भाल,

लोचन सुखदाई।

साँवरो साँवरो।

कुण्डल झलकाँ कपोल,

अलका लहराई,

मीरा तज सरवर जोऊ,

मकर मिलन धाई।

साँवरो साँवरो।

नटवर प्रभु वेश धरिया,

रूप जग लुभाई,

गिरधर प्रभु अंग अंग,

मीरा बलि जाई।

साँवरो साँवरो।

अरी मिथुला,थोड़ा ठहर जा। अभी प्रभु को रिझा लेने दे। कौन जाने ये परम स्वतंत्र हैं । कब भाग निकले ? आज प्रभु आएं हैं तो यहीं क्यों न रख लें ?”

मीरा जैसे धन्याति धन्य हो उठी। लीला चिन्तन के द्वार खुल गये और अनुभव की अभिव्यक्ति के भी। दिन पर दिन उसके भजन पूजन का चाव बढ़ने लगा। वह नाना भाँति से गिरधर का श्रृगांर करती कभी फूलों से और कभी मोतियों से। सुंदर पोशाकें बना धारण कराती। भाँति भाँति के भोग बना कर ठाकुर को अर्पण करती और पद गा कर नृत्य कर उन्हें रिझाती।

शीत काल में उठ उठ कर उन्हें ओढ़ाती और गर्मियों में रात को जागकर पंखा झलती। तीसरे -चौथे दिन ही कोई न कोई उत्सव होता।

क्रमश:

आचार्य स्वामी विवेकानन्द जी

श्री धाम श्री अयोध्या जी

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