दिल्ली डायरी : साँपों की माता मनसा माँ

कमल की कलम से

हमारे धर्म में अनेक देवी देवताओं को पूजा जाता हैं जिसमें से एक बहुत प्रसिद्ध हैं मनसा माता. देवी मनसा को भगवान शंकर की पुत्री के रूप में जाना जाता है. कहा जाता है कि माँ मनसा की शरण में आने वालों का कल्याण होता है. माँ की भक्ति से अपार सुख मिलते हैं. ग्रंथों के मुताबिक मनसा माँ की शादी जगत्कारू से हुई थी और इनके पुत्र का नाम आस्तिक था. माता मनसा को नागो के राजा नागराज वासुकी की बहन के रूप में भी जाना जाता है. मनसा देवी के मंदिर का इतिहास बड़ा ही प्रभावशाली है.

वैसे तो मनसा देवी को कई रूपों में पूजा जाता है. इन्हें कश्यप की पुत्री तथा नागमाता के रूप में साथ ही शिव पुत्री, विष की देवी के रूप में भी माना जाता है. 14वीं सदी के बाद इन्हें शिव के परिवार की तरह मंदिरों में आत्मसात किया गया. मां की उत्पत्ति को लेकर कहा जाता है कि मनसा का जन्म समुद्र मंथन के बाद हुआ.

विष की देवी के रूप में इनकी पूजा बंगाल और बिहार में होती थी और अंत में शैव मुख्यधारा तथा हिन्दू धर्म के ब्राह्मण परंपरा में इन्हें मान लिया गया. इनके सात नामों के जाप से सर्प का भय नहीं रहता ये नाम इस प्रकार हैं जरत्कारू, जगतगौरी, मनसा, सियोगिनी, वैष्णवी, नागभगिनी, शैवी, नागेश्वरी, जगतकारुप्रिया, आस्तिकमाता और विषहरी

भागलपुर के नाथनगर की विषहरी पूजा और मेला पूरे भारतवर्ष में प्रसिद्ध है  वहाँ के चंपानगर में विषहरी स्थान के नाम से माँ मनसा का एक मन्दिर भी है.

माँ मनसा के मंदिर भारत में और भी जगह हैं. जैसे राजस्थान में अलवर और सीकर में, मनसा बारी कोलकाता में, पञ्चकुला हरियाणा में, बिहार में सीतामढ़ी में.
पर हम बात कर रहे दिल्ली के नरेला में स्थित माता मनसा देवी मंदिर की.

नरेला इलाके में प्राचीन और ऐतिहासिक मनसा देवी मंदिर की मान्यता दूर-दूर तक है.

मन्दिर परिसर में स्थित ‘तालाब की मिट्टी से कुष्ठ रोग ठीक हो जाता है। ‘मंदिर की मान्यता इतनी ज्यादा है कि नवरात्रों में माता का मेला लगता है और लाखों लोग हर रोज पूजा करने के लिए आते हैं.  मंदिर के प्रांगण में तालाब की वजह से मंदिर का ऐतिहासिक महत्व और भी बढ़ जाता है.

यह मंदिर दो शतक पुराना है जिसका उल्लेख अंग्रेजी लेखक ने अपनी पुस्तक इण्डियन गोड्स में भी किया है. स्थानीय लोग एक किंवदंती (दंतकथा) सुनाते हैं कि साल 1860 में यहां पर रहने वाले कुम्हार परिवार ने बर्तन बनाने के लिए मिट्टी की खुदाई शुरू की. खुदाई के दौरान कुम्हार भाई बहन नंद लाल और नंदा को मिट्टी खोदते समय माता की धातु की मूर्ति मिली जिसे वे अपने घर ले गए. गांव वालों को जब पता चला तो उन्होंने माता की मूर्ति पर अपना अधिकार जमाया।
माता ने कुम्हार को सपने में आदेश दिया कि जहाँ से मुझे लाया गया है वहां पर मेरा मंदिर बनाया जाए और खुदाई वाली जगह तालाब बनाया जाए. गांव वालों ने उस समय के अनुसार एक भव्य मंदिर बनवाकर माता की धातु की मूर्ति स्थापित की. तब से लेकर आजतक मंदिर और तालाब की मान्यता और प्रसिद्धि के साथ कई किंवदंती भी चली आ रही हैं.

मंदिर के प्रांगण में बना तालाब और भी ज्यादा भव्य है. मान्यता है कि तालाब की मिट्टी शरीर पर लगाने से किसी भी तरह के कुष्ठ रोग ठीक हो जाते हैं. माता के नवरात्रों के दौरान साल में दो बार मंदिर में मेला लगता है. जहां पर लाखों लोग दिल्ली ही नहीं पड़ोसी राज्यों से अपनी मन्नत मांगने के लिए आते हैं.

कैसे पहुँचें

यह मंदिर नरेला में स्थित है जहाँ आप अपने निजी वाहन या बस से जा सकते हैं।

यहाँ से आप बस संख्या 709 , 112 , 120 से जा सकते हैं.

शहर से नरेला की दूरी करीब 40 किलोमीटर है.

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