रविवारीय- उपेक्षा को आत्मसात करना भी सीखें

मनुष्य अपने पूरे जीवन में “अपेक्षा” और “उपेक्षा” के मायाजाल में उलझा रहता है। ये दो शब्द उसे इतना मर्माहत और विचलित कर देते हैं कि वह अपने जीवन जीने का असल मकसद को ही भूल जाता है। बहुत ही कठिन प्रयासों के बाद उसे मनुष्य योनि में जन्म

मनीश वर्मा,लेखक और विचारक

लेने का सौभाग्य मिला है, लेकिन वह इसे समझ नहीं पाता है।
आपका जीवन इन दोनों शब्दों से परे है, बहुमूल्य है आप इसे समझने का प्रयास करें। आप लाख कोशिश करें, तो भी इन दोनों को नियंत्रित एवं बांधकर नहीं रख सकते। अगर आपको लगता है कि आप इन्हें नियंत्रित कर सकते हैं, तो आप भुलावे में जी रहे हैं। आपकी सोच बिल्कुल ही अव्यवहारिक है।आपके पास चाहे जितना भी आर्थिक या सामाजिक बल हो, आप इन शब्दों के सामने खुद को असहाय और असुरक्षित महसूस करते हैं।

आखिर क्यों आप दूसरों से अपेक्षाएं रखते हैं? लगभग हर किसी के जीवन में किसी न किसी से अपेक्षाएं होती हैं – माता-पिता को संतान से, दोस्त को अपने दोस्त से, कार्यस्थल पर सहकर्मियों से, और पड़ोस में पड़ोसियों से। आप इन सबसे अपेक्षाएं क्यों रखते हैं ? उन्हें अपने मन का करने दें ना और आप भी अपने मन मुताबिक काम करें। व्यवहारिक बनें, और देखेंगे कि आपके बहुत से कष्ट यू चुटकी बजाते दूर हो गए हैं।

इसी प्रकार उपेक्षा को आत्मसात करना भी सीखें। अपनी ज़िन्दगी में इस शब्द को हावी ना होने दें। बिल्कुल दूर रखें अपने आप से। इसकी परछाई तक से दूर रहें।
किसी की उपेक्षा करना, यह तो मनुष्य का नैसर्गिक स्वभाव है। उसकी वृत्ति है। कोई इससे परे कैसे हो सकता है भला। इससे पूरी तरह से ऊपर उठना संभव नहीं है, पर कोशिश तो की जा सकती है। आप बस स्वधर्म का पालन करें। लोगों को भी स्वधर्म का पालन करने दें। गीता में यही बात तो भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को कहा था जब वो अपने नाते-रिश्तेदारों को युद्ध भूमि में देख विचलित हो रहा था।
इन दोनों शब्दों के बंधनों से मुक्त होकर देखें। जीत आपके कदमों में होगी। जीवन को जीने में एक नई ऊर्जा और आनंद मिलेगा। अपने मन के मुताबिक सकारात्मक कार्यों में जुटें और इन शब्दों को अपने दुःख का कारण ना बनने दें। ज़िन्दगी अनमोल है, और इसे सिर्फ एक बार जीने का अवसर मिलता है। बस इतना ध्यान रखने की जरूरत है।
हर कोई अपने अनुभव से सीखता है, पर यदि आप दूसरों के अनुभवों से लाभान्वित होते हैं तो यह बड़ी बात है। यह मनु के खुद का अनुभव है। जबतक आप इन्हें समझ पाते हैं ज़िन्दगी बहुत आगे निकल चुकी होती है और वहां पहुंचकर आपको अहसास होता है कि आपने खोया तो बहुत कुछ है, पर पाया कुछ भी नहीं।

✒️ मनीश वर्मा’मनु

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