रविवारीय- मजबूरी या बाध्यता, व्यवसाय का दृष्टिकोण

शहर कोलकात्ता! अभी तलक हालांकि जुबान पर यह शब्द रहे चढ़ पाया है। कैसे चढ़ेगा भला ? जबसे होश संभाला है साबका तो कलकत्ता से ही पड़ा है। जो शब्द बचपन से ही आपके दिल और दिमाग दोनों ही पर चढ़ गया हो, उससे आप इतनी आसानी से कहां पीछा छुड़ा सकते हैं।

चलिए जहां मजबूरी या बाध्यता होगी वहां सोचेंगे। बाकी तो आप

मनीश वर्मा,लेखक और विचारक

भी समझ ही रहे हैं। ज्यादा कहने सुनने की जरूरत ही कहां है।

आजकल अक्सर कोलकात्ता आना जाना होता है। कारण ना पूछे। जैसे ही प्लेटफार्म पर गाड़ी लगती है, कोशिश मेरी यह रहती है कि जल्दी से प्लेटफार्म से बाहर निकलूं और घर जाने के लिए प्रीपेड टैक्सी का टिकट कटाऊं।
आम जन के लिए प्रीपेड टैक्सी का विकल्प हर दृष्टिकोण से बेहतर होता है।

लंबा प्लेटफॉर्म और एक साथ कई गाड़ियों का आना-जाना। दौड़ते भागते हुए बाहर प्रीपेड बुथ तक आते आते थोड़ी देर तो हो ही जाती है। प्रीपेड की लाइन थोड़ी बड़ी हो जाती है। कहने को ओला और उबर का भी विकल्प है। पर, पता नहीं ये सभी कौन सा सिस्टम चलाते है, गंतव्य स्थान का किराया प्रीपेड के किराए से लगभग ढाई गुना ज्यादा होता है। पता नहीं यह ‘सर्ज प्राइस’ क्या होता है। किसी भी हाल में कटना तो खरबूजे को ही है। आम आदमी की हैसियत ही कुछ ऐसी है।

आम आदमी ही आम आदमी का शोषण कर रहा है।

लाइन में लगभग आधे घंटे खड़े होने के बाद अपना नंबर आता है। पीली टैक्सी में बैठने का मजा ही कुछ और है। जब आप पुरानी एमबैसेडर कार की पिछली सीट पर धंस कर बैठते हैं तो भगवान झूठ न बुलाए वो मजा आजकल की गाड़ियों में कहां।

मैं जो बातें कहना चाह रहा हूं। जिसके लिए मैंने इतनी लंबी चौड़ी भूमिका बांधी है वो तो अब सुनते जाइए।
आप स्टेशन से बाहर आकर प्रीपेड टैक्सी बुक करने के लिए वहां लाइन में लग जाते हैं। अब जब आप अपनी बारी का इंतजार कर रहे होते हैं, तभी कुछ व्यक्ति आपके इर्द-गिर्द मंडराते हुए आपसे पूछते हैं। कहां जाना है ? आप जो जगह उसे बताएंगे मुझे अमुक जगह जाना है तो आपको जो टैक्सी का किराया वह बताएगा, वह किराया अमूमन प्रीपेड टैक्सी के किराए से दो से ढाई गुना ज्यादा होता है। जब आप उसकी बातों को नकार देते हैं। उसकी बातों को लगभग अनसुना कर देते हैं। तब वह धीरे से यह कहते हुए आगे बढ़ जाता है। ‘अच्छा है, लगे रहो लाइन में बी.पी.एल. की लाइन है यह।’ बी.पी.एल. मतलब वह लोग जो गरीबी रेखा से नीचे रह रहे होते हैं। जो लोग आपसे ऐसा कहते हुए निकल लेते हैं उनका स्तर कोई बड़ा नहीं होता है। शायद, वह सभी बी.पी.एल. वाले ही होते हैं। हालांकि यह कहने में मुझे थोड़ा संकोच हो रहा है, पर सच्चाई है। पर, उसकी यह बातें कहीं ना कहीं आपके मर्म को एक चोट दे जाती है। वह यह कहना चाहते हैं कि प्रीपेड की लाइन में लगकर टैक्सी बुक कराने का मतलब यह है कि आप बी.पी.एल. वाले हो। पर आप ज्यादा संवेदनशील ना बने। यह बाजारवाद का एक उत्कृष्ट उदाहरण है।

फिर से कुछ लोग आते हैं। आगे आकर फिर से वही सवाल। कहां जाना है ? इसी सवाल से बात शुरू होती है। आपका जवाब होता है, फलां जगह जाना है। फिर वो बोलते हैं इतना किराया लगेगा। वही दो से ढाई गुना ज्यादा किराया। जब आप ना करते हैं तो उनका त्वरित जवाब आता है। ठीक है थोड़ा कम दे देना, एक आदमी और बैठा लेंगे। मतलब ऐसा लगता है वहां पर कि आप और आपका व्यक्तित्व कोई मायने नहीं रखता है। आप अगर उचित किराया देकर टैक्सी बुक करना चाह रहे हैं तो वो येन-केन-प्रकारेन आपके मर्म को चोट करते हुए अपने लिए ग्राहक तलाशते हैं। कोई न कोई बेचारा रोजाना फंसता ही होगा। महानगर है आखिरकार ।

भाई मुझे लाइन में लगे रहने दो क्यों परेशान खुद होते हो मुझे भी करते। लेकिन नहीं, यही तो खासियत है महानगरों की। फिर कोई आएगा, पहले तो किसी ने यह कह ही दिया कि आप बी.पी.एल. के लाइन
में लगे रहो। अब दूसरा समुह जो आया था वह अपनी बात नहीं बनने पर यह कह धीरे से चल लेगा “खिचड़ी बंट रही है लाइन में लगे रहो, यह कह कर आपके मर्म को इतना चोट देते हैं वह लोग कि आपको लगता है कहां खड़े हैं आप। आप बाजार में खड़े हैं। हर कोई आपकी कीमत लगाने को तैयार। खैर! शहर कोलकात्ता है यह। एक छोटा सा अनुभव जो मैंने शेयर किया आपसे। अमुमन हर बड़े शहर और महानगर की दास्तां है ये।

क्यों कोलकात्ता और सिर्फ कोलकात्ता !

✒️ मनीश वर्मा’मनु’

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