( अनुभव की बात, अनुभव के साथ )
इसे दुर्भाग्य कहें या फिर सौभाग्य, पहले राष्ट्रीय स्तर के राजनीतिक दल हुआ करते थे।उनका अपना महत्व होता था। समय के साथ राष्ट्रीय दलों के असंतुष्ट नेता अलग होते गए और नए- नए राजनीतिक दल कुकुरमुत्ते की तरह बनते चले गए। आज देश में राजनीतिक दलों की संख्या हजारों में है। ऐसे सैंकड़ों राजनीतिक दल हैं, जिनके ना तो एक भी सांसद हैं, ना ही एक विधायक, तो कोई एक सांसद के बदौलत राजनीति करता नजर आ रहा है।कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी जैसे राष्ट्रीय दल, क्षेत्रीय दलों के सामने घुटने टेकते नजर आ रहे हैं। लोकसभा चुनाव निकट है, गठबंधन के घटक दल सीटों का फार्मूला तय करने में लगे हैं। सभी राजनीतिक दल अधिक से अधिक सीटों पर चुनाव लड़ना चाहते हैं। लेकिन उसे खुद की ताकत पर भरोसा नहीं है, और मजबूरन किसी न किसी गठबंधन में शामिल रहना चाहते हैं। उम्मीद के विपरीत बिहार में एनडीए के घटक दल भाजपा और जदयू ने बराबर- बराबर सीटों पर चुनाव लड़ने का फैसला किया है। यह फैसला जदयू की जीत मानी जाए या फिर भाजपा की शिकस्त, कहना मुश्किल है। पिछले लोकसभा चुनाव में जदयू ने जहां 38 सीटों पर चुनाव लड़ा था और उसे सिर्फ दो पर सफलता मिली थी, वहीं भाजपा ने 30 सीटों पर चुनाव लड़ा था और उसे 22 सीटों पर जीत हासिल हुई थी।2019 के लोकसभा चुनाव के लिए दोनों दलों के बीच बराबर- बराबर सीटों पर लड़ने का फैसला आश्चर्यजनक है। केंद्र में भारतीय जनता पार्टी की प्रचंड बहुमत की सरकार है। पार्टी को विगत साढ़े चार साल के अपने कार्यों पर गर्व है। उसे लगता है कि आजादी के 71 वर्षों में जो कुछ भी काम किया, वर्तमान सरकार ने ही किया। पिछली सरकारें निकम्मी थी। ऐसे में जदयू के बराबर सीटों पर चुनाव लड़ने का फैसला भाजपा कार्यकर्ताओं में निराशा पैदा करता है। यह समझना मुश्किल है कि यह गठबंधन की मजबूरी है या फिर भाजपा देश में अपना विरोध महसूस कर रही है। उसे लगता है कि अकेले चुनाव लड़कर सत्ता में आ पाना मुमकिन नहीं है। पिछली बार दस साल तक रही सरकार का विरोध था,राम मंदिर निर्माण की सम्भावना थी, मोदी लहर था। इस चुनाव में भाजपा को कहीं शाइनिंग इंडिया की तरह हवा होने का डर तो नहीं सता रहा। क्योंकि भाजपा ऐसी पार्टी है जो तकनीक का भरपूर इस्तेमाल करती है। लोकसभा, विधानसभा यहां तक कि बूथ स्तर तक सर्वे करवाती है, तभी कोई फैसला करती है। शायद अमित शाह देश का मिजाज समझ रहे हैं।शायद वह समझ रहे हैं कि जिन मुद्दों पर उन्होंने जनता से वोट मांगे थे, राम मंदिर निर्माण,धारा 370 की समाप्ति, महंगाई, बेरोजगारी,गंगा की सफाई जैसे वादे जुमले साबित हुए हैं।पचास वर्षों तक शासन करने का दंभ भरने वाले भाजपा अध्यक्ष पाँच साल में ही हताश नजर आ रहे हैं। ऐसा लग रहा है जैसे कि किसी भी प्रकार अगले पाँच साल के लिए वह सत्ता में रहना चाहते हैं। जबकि एनडीए के घटक लोजपा और रालोसपा इस प्रकार सीट बंटवारे से दुखी नजर आ रहे हैं। उसे लग रहा है कि उसे और सम्मानजनक सीट चाहिए।उपेंद्र कुशवाहा लगातार चेतावनी देते नजर आ रहे हैं तो लोजपा भी अपने तेवर दिखा रही है।
वहीं दूसरी ओर महागठबंधन का क्या होगा, कहना मुश्किल है। कांग्रेस जैसी राष्ट्रीय पार्टी और राजद इस गठबंधन की बड़ी पार्टी है। जबकि गठबंधन में कम्युनिस्ट पार्टी,शरद यादव, जीतन राम मांझी कि हम, अरुण सिंह जैसे दल शामिल हैं। जो स्वतंत्र रूप से चुनाव नहीं लड़ सकते। बावजूद इसके वह अधिक से अधिक सीटों की चाहत भी रखते हैं। जबकि अभी उपेंद्र कुशवाहा के महागठबंधन में शामिल होने की संभावना बनी हुई है।हर किसी को एक दूसरे की जरूरत है। हर किसी का अपना स्वाभिमान है। अब देखना है कि चुनाव आते-आते क्या- क्या होता है।कौन किसके साथ होता है।
फैसला तो आखिर जनता को ही करना है।काश कि ये राजनीतिक दल जनता की भलाई के लिए भी इतनी मेहनत करते और जन कल्याण की योजनाओं के लिए इतना माथापच्ची करते।