जब हम पुराने, लोकप्रिय और विश्वप्रसिद्ध लेखकों की चर्चा करते हैं, तो हमें महसूस होता है कि वे अपने समय से कहीं आगे थे।
उन्होंने न केवल अपने समय के समाज, सामाजिक परिवेश और व्यक्तियों का सजीव चित्रण किया, बल्कि आने वाले 50 से 100 वर्षों के समाज की भी कल्पना कर ली। ऐसे लेखकों को हम दूरद्रष्टा कह सकते हैं। उनकी कल्पनाशक्ति और दृष्टि कितनी व्यापक और गहरी थी, यह समझना आज हमारे लिए इतना आसान नहीं है।
समाज को दिशा देने का काम कौन करता है ? यह कार्य केवल वही कर सकता है जिसके पास अद्वितीय कल्पनाशक्ति दूर दृष्टि और विचारों की स्पष्टता हो। लेखकों का योगदान इस मामले में अतुलनीय है। जब आप उन्हें पढ़ते हैं, तो यह स्पष्ट होता है कि उन्होंने ऐसी बातें लिखीं, जिन पर उस समय शायद ही किसी ने सोचा होगा। उनके शब्दों में समय की सीमाओं के पार जाने की क्षमता थी। आज जब हम उनके लिखे हुए पन्नों को पलटते हैं, तो यह जानकर आश्चर्य होता है कि उनकी बातें आज भी उतनी ही प्रासंगिक हैं।
आइए, हम भी एक प्रयोग करें और यह जानने की कोशिश करें कि आने वाले पचास वर्षों के बाद का समाज कैसा होगा। वर्तमान समय में हम एक संक्रमण काल से गुजर रहे हैं। यह वह समय है जब हमारा समाज पुराने मूल्य और परंपराओं को छोड़कर नए आयामों की ओर बढ़ रहा है। हालांकि, इस प्रक्रिया में हमें अपनी मंजिल का स्पष्ट पता नहीं है। हम एक अज्ञात और अंतहीन मार्ग पर चल पड़े हैं।
अगर हम भविष्य की कल्पना करें, तो पाते हैं कि शायद पचास वर्षों के बाद का समाज जाति और धर्म से पूरी तरह मुक्त हो चुका होगा। समुद्र मंथन के बाद जिस प्रकार अमृत की प्राप्ति हुई थी, उसी प्रकार यह संक्रमण काल मानवता और सहिष्णुता के नए युग का आरंभ करेगा। तब तक शायद हम समझ चुके होंगे कि मानवता से बड़ा कोई धर्म नहीं और जातियों का बंटवारा पूरी तरह निरर्थक है।
जाति और धर्म मानव समाज के ऐसे नासूर हैं, जो धीरे-धीरे हमें खोखला कर देते हैं। हमें इसका एहसास तब होता है, जब बहुत देर हो चुकी होती है। यह तथ्य भी हम नहीं जानते कि सृष्टि की शुरुआत कब हुई। मानव पृथ्वी पर कब आया, इस पर भी आज केवल अनुमान ही लगाए जाते हैं। आदम और ईव से मानव सभ्यता की शुरुआत की जो मान्यता है, उसमें जाति और धर्म का कोई उल्लेख नहीं। यह विभाजन तो हमारी ही मानसिक उपज है।
जैसे-जैसे मानव सभ्य हुआ, उसने परिवार और समाज का निर्माण किया। समय के साथ हम जातियों और धर्मों में विभाजित हो गए। यह विभाजन इतना बढ़ा कि आज हम इसका भार ढो रहे हैं और यदा कदा इसकी कीमत भी चुका रहे हैं लेकिन सभ्यता के शुरुआती दौर में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं थी। तब मानव जंगलों में समूह बनाकर रहता था। उस समय सभी स्त्री-पुरुष एक साथ रहते थे और बहु-विवाह जैसी व्यवस्थाएँ थीं। बच्चे पूरे समूह की जिम्मेदारी होते थे, और व्यक्तिगत रिश्तों का कोई विशेष महत्व नहीं था।
आज का संक्रमण काल भी एक नए मंथन का दौर है। यह मंथन हमें एक बेहतर समाज की ओर ले जाएगा, जहां मानवता ही सबसे बड़ा धर्म होगी। जातियों और धर्मों के आधार पर समाज के बंटवारे का अंत होगा।
भविष्य का समाज समानता और सहिष्णुता पर आधारित होगा। जब हम पचास वर्षों बाद की दुनिया की कल्पना करते हैं, तो हमें यह विश्वास होता है कि मानवता की विजय होगी। यह संक्रमण काल एक नई सुबह का संकेत है, जो हमें बेहतर समाज और मूल्य प्रदान करेगा। हमें केवल यह सुनिश्चित करना है कि इस बदलाव में हम अपना योगदान दें और उस समाज का हिस्सा बनें, जो मानवता के सिद्धांतों पर आधारित हो।
✒️ मनीष वर्मा ‘मनु’