सोशल मीडिया विश्वग्राम का एक जनसंवाद मंच है। शब्द-शिष्टाचार का पालन करते हुए किसी विषय विशेष पर सकारात्मक सोच के साथ विचार-विनिमय करना तथा उत्तम एवं मानवोचित निष्कर्ष तक पहुँचना इस मंच का मूल उद्देश्य है, लेकिन अफ़सोस कि इस मंच के कुछ सदस्य परिवार और समाज को आघात पहुँचानेवाले संवादों का प्रेषण करते हैं तथा कुछ सदस्य ऐसे अमर्यादित संवादों का समर्थन कर अग्रेषण भी करते हैं जिससे न कि सिर्फ़ सामाजिक सौहार्द और मानवीय प्रतिबद्धता का क्षरण होता है, बल्कि एक-न-एक दिन उन्हें भी अपने परिवार में फ़साद और टुटन देखना पड़ता है।
सूचना एवं प्रौद्योगिकी के इस दौर में सोशल मीडिया पर उपस्थित सभी गणमान्य व्यक्तियों, शासन एवं प्रशासन का दायित्व बनता है कि ऐसे सार्वदेशिक, सार्वजनिक और सामाजिक मंच पर फैलते वैचारिक प्रदूषण को समय रहते रोकने की त्वरित कार्यवाही करना चाहिए, अन्यथा एक-न-एक दिन विश्व के समक्ष नकारात्मक ऊर्जा उत्सर्जित करनेवाले शब्द और संवाद प्रलयंकारी विध्वंस के रूप में सामने आएंगे जिसे रोकने का सामर्थ्य किसी में नहीं होगा।
सोशल मीडिया पर संवाद करनेवाले सभी लोगों को यह ज्ञान रखना चाहिए कि वक़्त बड़ा बलवान होता है। वह चूके हुए को चकनाचूर कर देता है। हमें इतिहास से सबक लेकर अभिव्यक्ति की आज़ादी के नाम पर शब्दों से खिलवाड़ करने की मानसिकता का परित्याग करना चाहिए तथा आरोप-प्रत्यारोप का खेल छोड़कर एक-दूसरे का दिल और विश्वास जीतने का प्रयास करना चाहिए।
हमें यह जानना चाहिए कि जीव, जगत, प्रकृति और माया के रहस्य को समझने तथा प्रेम, करुणा, दया, ममता, समर्पण, सद्भाव और सहयोग जैसे नैसर्गिक मानवीय गुणों का व्यावहारिक ज्ञान हमें परिवार के अंदर ही मिलता है जिसे एक-दूसरे के लिए और अधिक प्रगाढ़ करना चाहिए ताकि परिवार जैसी संस्था मज़बूती से अस्तित्व में रहे।
परिवार इस दुनिया की सबसे बड़ी और सबसे मज़बूत संस्था है। यह बचेगा तो समाज भी बचेगा, राज्य और राष्ट्र भी बचेगा तथा वसुधैव कुटुंबकम का सपना भी साकार होगा। परिवार बनाने एवं बचाए रखने के ज़िम्मेदार व्यक्तियों तथा इसे उजाड़ने पर आमादा व्यक्तियों को दूरगामी परिणाम को देखने की दृष्टि रखने की ज़रूरत है, क्योंकि परिवार नहीं बचेगा तो कुछ भी नहीं बचेगा।
सोशल मीडिया जैसे सामाजिक एवं सार्वजनिक मंच पर दिल को दुखानेवाले शब्दों का प्रयोग तथा एक-दूसरे को जोड़कर रखनेवाले स्नेह, सम्मान एवं सद्भाव जैसे सेतु को ढाहनेवालों और पृथकतावादी नीति रखनेवालों को यह ज़रूर सोचना चाहिए कि एक-न-एक दिन अकेले आसमान चूमने की चाहत का तिलिस्म टूटेगा और चारों ओर अंधकार, अहंकार, अज्ञानता और सन्नाटा के सिवाय कुछ भी नहीं बचेगा।
डॉ.जी.पी.सिंह ‘आनन्द’
अतिथि संपादक
(आलेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं)