कुछ पाने की उम्मीद में, कुछ सिक्के हीं खनक रहे हैं जेब में, समझ ही नहीं पा रहे है की ज्यादा क्रूर मजाक किसका “कोरोना” का या “सरकार” का

इनका आभा मंडल सरकार को टैक्स देकर चमकता है

कुछ पाने की उम्मीद में,
कुछ सिक्के हीं खनक रहे हैं जेब में,  

होठों पर खुश्की और पैरों में छाले संजोते, छूटे हए खेतों को फिर से लहलहाने की उम्मीद पालते और आस पहले टूटती है या सांस, यही आजमाते हुए सड़कों, पटरियों वीरानों जंगलो रास्ते में पड़ने वाले गावों की पतली पगडंडियो पर खाकी डंडों के डर से नज़रें चुराते बचाते और पृथ्वी को पसीने से नहलाते मजदूर भी चल रहे हैं और चल रही है सरकार भी।

इस चाल में आमने सामने भीड़ चुके है दो चरित्र एक सरकार का दूसरा कामगार का। सरकार कहती है कामगार सुनते ही नहीं, कामगार कहता है सरकार सिर्फ कहती है। अब मजे की बात यह है की इस तमाशाई भिड़ंत का तमाशबीन हिंदुस्तान का वह वर्ग भी है जो कोरोना के पहले यलगार सरकार की कोरोना का पहली ललकार से ही अपनी जरूरतों को जब्त करते हए एक बेहद कठिन जीवन के जिक्र से बचने की फिराक में रहते हुए रह रहा है।

यह वह वर्ग है जो 18वी सदी के यूरोप में राष्ट्र राज्यों के उदय के साथ ही मध्यम वर्ग का ख़िताब ओढ चूका है। यही वर्ग ऐतिहासिक आन्दोलनों का वाहक रह चुका है। यही वर्ग सामाजिक सांस्कृतिक हलचलों का मसीहा बन चूका है और अपने ऐतिहासिक कारनामों से सभ्यताओं की धुप छांव में समाज से सम्मान पाने चस्का भी इसी मध्यमवर्ग को लग चूका है। चहरे को बाहर से चमका कर और नामी गिनामी कंपनियों के वस्त्र को अपने बदन से चिपका कर घरों से निकलने वाले इस मध्यम वर्ग का साक्षात्कार जब इंसानी गोश्त की तलाश में भटकते हुए एक वायरस से हुआ तो इसकी सारी हेकड़ी हवा हो गयी।

मात्र तीन हजार घंटो में कोरोना ने देश की अर्थव्यवस्था को रुला कर रख दिया इतना की कीड़े-मकोड़े की तरह किराये की खोलियों से छटपटाते हुए मजदुर बाहर निकल गए हैं और छद्म रहन-सहन के शिकार मध्यम वर्ग की पेशानी भी चिंता की लकीरों से लाल हो गयी बात इसकी शाख पर आ गयी है वार इसके भविष्य पर हुआ है बेटे बेटियों की स्कूल और कॉलेज की फीस और अप्रैल के महीने में किताब कापियां के जुगार की चिंता ने इसे चिंतन की पाठशाला में बिठा दिया है।

या तो नौकरी नहीं बची और अगर बची है तो तनख्वाह नहीं मिली अगर मिली भी है तो उस तनख्वाह की सर्जरी कर दी गई। मई के महीने में मकान मालिक भी सर पर सवार हो चुके हैं कि अब और सब्र नहीं कर सकते। सरकारी रियायतों पर भी आयतो के घेरे बंदी हो चुकी है। पेट्रोल डीजल पर सरचार्ज लग चूका है। शराब की कीमतें शबाब पर है। यात्री किराये में हलक सुखा देने वाली बढ़ोतरी कर दी गयी है।

EMI की सच्ची कहानी भी वह नहीं है जो सरकार ने देश वासी भाई–बहनों से कहा था। वैसा कुछ नहीं हुआ जो सरकार ने कहा था। हुआ वही और हो रहा है वही जो सरकार ने कभी कहा ही नहीं। इन हालातों में इस वर्ग के सामने यक्ष प्रश्न यह है की वह करे तो क्या करे, कामगारों की तरह धरातल तक उतर नहीं सकते गलियों पर फल सब्जी की फेडी लगा नहीं सकते इनकी गरिमा इन्हें ऐसा करने से रोकती है मुफ्त वितरित भोजन के पैकेट स्वीकार करने के लिए इनक जमीर इन्हें हरी झंडी नहीं दिखता है।

इनका आभा मंडल सरकार को टैक्स देकर चमकता है, जबकि महीने के अंत में बस कुछ सिक्के ही इनके जेब में खनक पाते हैं खासकर निम्न मध्यम वर्ग को हर सिपाही तो मंहगाई के मोर्चे पर हर साल शहीद होने का अभ्यस्त हो चूका है और यह सब कुछ आगे बढ़ने की चाह में बच्चों का भविष्य गढ़ने की तम्मना में पूरी जिंदगी बड़ी ख़ामोशी से चलता रहता है और अब इस कोरोना ने तो इन्हें अजब फेर में फंसा दिया है। यह समझ ही नहीं पा रहे है की ज्यादा क्रूर मजाक किसका है कोरोना का या सरकार का।

बरगद की तरह विशाल आर्थिक पैकेज कहाँ है घरों की खिड़की में लगे पर्दों को बस जरा खिसका कर यही झाकने की कोशिश कर रहे हैं मगर जनाब यह झाकने का वक्त नहीं है खिड़कियों को खोलिए अपने सामने वाले को भी उनकी खिड़कियाँ खोलने को कहिये और फिर आपसी सहमती से दरवाजे से बाहर निकलिए मिले सुर मेरा तुम्हारा तो सुर बने हमारा की तर्ज पर पूछिए भारत भाग्य विधाता से की क्या हुआ तेरा वादा वो भरोसा वो इरादा और हो सके तो सीखिए उन मजदूरों से भी जो अपनी गर्भवती पत्नी को भी जुगाड़ वाली गाड़ी से भी घसीटने से नहीं शर्मायें।

 

रत्ना पुरकायस्थ
(मीडिया एक्सपर्ट)
सरंक्षक, रेस मीडिया ग्रुप

 

तस्वीरें साभार

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