मन्त्रराज गायत्री मन्त्र की जप विधि, नियम, प्रभाव एवं वर्जनायें

गायत्री मन्त्र को मंत्रराज होने का सम्मान प्राप्त है। इस मन्त्र की महिमा अपरम्पार व अकथनीय है। इस मन्त्र में इतनी शक्ति समाहित है कि संसार की किसी भी समस्या का समाधान इस मन्त्र के माध्यम से किया जा सकता है। यही नहीं, यदि सम्पूर्ण विधि विधान के साथ इस मन्त्र का जप किया जाय, तो किसी भी मनोवांछित कामना की पूर्ति हो सकती है।
गायत्री मन्त्र ( Gayatri Mantra ) इस प्रकार है-

|| ॐ भूर्भुवः स्वः ॐ तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गोदेवस्य धीमहि धियो योनः प्रचोदयात् ॐ ||

गायत्री साधना के नियम एवं वर्जनायें :

ब्रह्मचर्य – गायत्री जी की साधना के दिनों में साधक को ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करना अति आवश्यक होता है। साधक को स्वमं के मन, वाणी, विचार एवं क्रिया कलापों पर नियंत्रण करना चाहिए एवं इनके प्रति सजग रहना चाहिए; ताकि जाने अनजाने कहीं ऐसी परिस्तिथि न आन खड़ी हो, जो तपस्या के भंग होने का कारण बन जाए। वस्तुतः वेदों व पुराणो के अनुसार ब्रह्मचर्य प्रत्येक पूजा व अनुष्ठान का पहला नियम, पहली शर्त है।

उपवास – गायत्री मन्त्र जप काल में अन्न का त्याग कर उपवास करने से आध्यात्मिक शक्ति एवं तेजस्विता में वृद्धि होती है। निराहार रहना तो सम्भव नहीं है, किन्तु फलाहार के माध्यम से देह को सतेज रखा जा सकता है। उपवास के दिनों में दूध, दही, फल, शर्बत, नींबू का पानी जैसे पदार्थ लिये जा सकते हैं। यदि अन्न का सम्पूर्ण त्याग सम्भव न हो तो, एक समय अन्न एवं एक समय दूध व फलाहार पर रहना चाहिए। ध्यान रहे कि जप काल में साधक अन्न से बना जो भोजन ग्रहण करे वह सादा, सात्विक, हल्का एवं सुपाच्य होना चाहिए क्योंकि गरिष्ठ पदार्थ देह में आलस्य उत्पन्न करते हैं। पेटभर हलुआ, पूड़ी, चाट, मसाले एवं अचार आदि खाकर सफल साधना संभव नहीं है।

मौन – जप काल में साधक का कम वार्तालाप करना ही उचित रहता है। सर्वविदित है की मौन रहकर ही ईश्वर चिन्तन अथवा स्वाधय करते रहने से ज्ञान, स्मरणशक्ति एवं तेजस्विता की वृद्धि संभव होती है। अधिक वार्तालाप करने से देह के कई अंग जैसे जिव्हा, मस्तिष्क, फेफड़ा, हृदय एवं स्नायु-तन्तु आदि शिथिल हो जाते हैं। वैसे भी साधनारत व्यक्ति को अधिक व्यक्तियों की संगत नहीं करनी चाहिए, क्यूंकि उनकी उचित अनुचित वार्ता व विचारों का प्रभाव साधक की मानसिक पवित्रता एवं समर्पण के भाव को विचलित अथवा खण्डित कर सकता है।

सहिष्णुता – सहिष्णुता के लिए सादगी और धैर्य की आवश्यकता होती है। इस प्रवृत्ति के प्रभाव से साधक को साधना काल में किसी प्रकार की प्राकृतिक बाधा विचलित नहीं कर पाती। सहिष्णुता के प्रभाव से ही सर्दी अथवा गर्मी से विचलित हुए बिना पूरी तन्मयता से साधक के लिए साधना करना संभव हो पाता है। सहिष्णुता के आभाव में साधक थोड़ी थोड़ी देर में आकुल हो उठता है। ऐसी स्थिति में साधना करना संभव नहीं हो पाता है। अतः अभीष्ट साधना हेतु धैर्य एवं मनोयोग के लिए, साधक में सहिष्णुता का समावेश होना अत्यंत आवश्यक है।

कर्षण साधना – कर्षण साधना हेतु मानसिक शान्ति अति आवश्यक होती है एवं ऐसी साधना हेतु साधक के भीतर उद्वेग नष्ट हो जाने अति आवश्यक हैं। अतः साधक को चाहिए कि साधना काल में अन्न, वस्त्र, आसन, व्यसन, सवारी, निद्रा आदि का परित्याग करके अथवा ऐसा संभव न हो सके तो इनका अल्प प्रयोग कर अपने साधना काल का समय व्यतीत करना चाहिए।

चान्द्रायण व्रत – इस समय चन्द्रकला के अनुपात के अनुसार साधक को अपनी साधना बढा़ते हुए, त्याग एवं तितिक्षा को आधार बना अधिक संयमी, त्यागी एवं सहिष्णु बन अपनी साधना में लीन हो जाना चाहिए।

निष्कासन – निष्कासन से यहां आशय, त्याग एवं बहिष्कार करने से है अर्थात साधनाकाल में साधक को दुष्प्रवृत्तियों का त्याग कर देना चाहिए। साधक को इस काल में अपने अपराधों को स्वीकार करते हुए, उनका प्रायश्चित करना चाहिए। अहंकार व द्धेष की भावना को अपने निकट भी नहीं भटकने देना चाहिए अर्थात इनसे सर्वथा मुक्त हो जाना चाहिए। समस्त प्रकार की मनोव्याधियों, ईर्ष्या, काम, क्रोध, छल व कपट, अहम् एवं दम्भ आदि से स्वमं को सर्वथा मुक्त कर लेना ही साधक के लिए श्रेयस्कर होता है। साधक को तन व मन दोनों रूपों में शुद्ध, पवित्र एवं निष्कलुष होना चाहिए।

प्रदातव्य – अनुष्ठानकाल में साधक को चाहिए कि वह कुछ दानपुण्य भी करे अर्थात जरुरतमंदो को अपनी सामर्थ्य अनुसार कुछ दे फिर चाहे वह मनुष्य हो पशु हो अथवा पक्षी कोई भी हो, उसे कुछ न कुछ अवश्य प्रदान करना चाहिए। दीन-दुखियों को भोजन, पक्षियों को दाना, चींटी, कुत्ते जैसे छोटे पशुओं को कुछ खाने को देना चाहिए अथवा पशुओं को चारा डालना चाहिए।

अतः यदि कोई साधक, विधिपूर्वक नियमों संयमों के साथ यदि गायत्री मन्त्र की साधना करे एवं आस्था रखते हुए विधिपूर्वक हवन कर ले, तो अनेक प्रकार से लाभान्वित हो सकता है

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