क्या कोविड-19 मीडिया का फैलाया आर्थिक आतंकवाद है?*
*-दुनिया भर में साधारण फ्लू से हर साल मरते हैं 6 लाख 45 हजार*
*-16 साल से भयंकर फ्लू की चपेट में है इटली*
*-दर्जनों बीमारियां हैं कोरोना से कहीं ज्यादा खतरनाक*
*धीरज कुमार की पड़ताल*
क्या आपको पता है कि इटली में पिछले कुछ सालों में साधारण फ्लू से मरने वालों की संख्या कितनी है ? वर्ष 2013-14 से लेकर वर्ष 2016-17 के बीच सर्दी-खांसी और साधारण फ्लू पर हुए एक सर्वे में पाया गया है कि इन तीन सालों में करीब 52 लाख 90 हजार लोग फ्लू के शिकार हुए और इस दौरान 68 हजार से भी ज्यादा लोगों की इसी बीमारी से मौत हो गयी। आंकड़ों के मुताबिक इटली करीब 16 वर्षों से भयंकर फ्लू की चपेट में है और अकेले वर्ष 2016-17 में इस बीमारी से प्रभावित लगभग 25 हजार लोग मारे गये थे। नोवेल कोरोना वाइरस से 9 अप्रैल तक इटली में करीब 1 लाख 43 हजार लोगों के कोरोना पॉजिटिव होने की सूचना थी जबकि मृतकों की संख्या 18 हजार 279 थी। ये तस्वीर अगर छह करोड़ की जनसंख्या वाले छोटे से देश के नजरिये से देखा जाये तो दर्दनाक तो है, लेकिन पिछले कुछ सालों के मुकाबले कम ही भयावह है। हालांकि इटली में ऐसा मानने वालों की संख्या बहुत ज्यादा है जो कहते हैं कि हर इंफेक्टेड व्यक्ति की मौत कोरोना के कारण ही नहीं हुई है।
पिछले कुछ महीनों में नोवेलकोरोना एक ऐसी महामारी बन कर उभरा है जिसने कई देशों का सामान्य जनजीवन बुरी तरह प्रभावित हुआ है। हालांकि अगर दुनिया भर की बीमारियों और महामारियों के आंकड़ों का अगर बारीकी से अध्ययन किया जाये तो कोविड-19 वास्तव में साधारण फ्लू से भी हल्की बीमारी है। पंजाब के मशहूर फिजीशियन डॉ. अमर आजाद के मुताबिक घातक बीमारियों में कोविड-19 का कोई खास वजूद नहीं है, लेकिन सरकारें ऐसी डरी हुई है मानों सिर्फ इसी बीमारी से मानव जाति का विनाश हो जायेगा। दुनिया भर को इस महामारी से डराने के पीछे स्पष्ट तौर पर मीडिया की अहम भूमिका है।
अमेरिका जैसी महाशक्ति भी साधारण फ्लू के आगे कई वर्षों से लाचार है। सेंटर्स फॉर डिजीज कंट्रोल एंड प्रिवेंशन यानी सीडीसी के आंकड़ों की मानें तो वर्ष 2018-19 में कुल 3 करोड़ 55 लाख अमेरिकी फ्लू के शिकार हुए थे और उनमें से 1 करोड़ 65 लाख लोगों ने डॉक्टरों से ईलाज करवाया था। कुल 4 लाख 90 हजार 600 लोगों को अस्पतालों में भर्ती होना पड़ा था और 34 हजार 200 लोगों की मौत हो गयी थी। मौजूदा नोवेल कोरोना वाइरस या कोविड-19 भी अमेरिका में तेजी से फैल रहा है और अबतक करीब 4 लाख 63 हजार लोग इसके पॉजिटिव पाये गये हैं और इनमें से 16,500 लोग मौत का शिकार हो चुके हैं। जिस रफ्तार से कोविड-19 अमेरिका में फैल रहा है इससे इतना तो लग रहा है कि ये एक बड़ी बीमारी है लेकिन साधारण फ्लू के मुकाबले यह अभी भी पीछे ही है। सीडीसी के आंकड़ों के मुताबिक साधारण माना जाने वाला फ्लू दुनिया भर में हर साल करीब 6 लाख 46 हजार जानें ले लेता है।
भारत, जिसकी आबादी 1 अरब 30 करोड़ है, वहां कोविड-19 के मरीजों की संख्या करीब 5200 है और इससे पीड़ित करीब 170 लोगों की मौत हो चुकी है। ये सारी मौतें वर्ष 2020 में ही दर्ज हुई हैं और अगर आंकड़ों की देखें तो भारत में कोविड-19 से पॉजिटिव लोगों की होने वाली मौतें महज 2.8 प्रतिशत है। अगर दूसरी बीमारियों से तुलना न भी की जाये तो ये आंकड़ा नगण्य है। आम तौर पर भारत को गर्म जलवायु वाला देश माना जाता है और यहां सर्दी-खांसी या इंफ्लूएंजा मौत की वजह नहीं बनता। वर्ष 2009 में धूम-धड़ाके के साथ दुनिया में प्रवेश किये वैश्विक पैंडेमिक स्वाइन फ्लू ने भी एक साल में आधिकारिक तौर पर सिर्फ 2024 जानें ही लीं। उनमें से नवजात और 5 साल से कम उम्र के बच्चों की संख्या ही सबसे ज्यादा थी। विश्व भर में महामारी के तौर पर फैली इस बीमारी ने उस अवधि में लगभग 18 हजार जानें ले लीं थीं। उस साल इस बीमारी का टीका भी बाजार में आ गया था और मोटी रकम खर्च कर इसकी खरीद भी की गयी, लेकिन हैरानी की बात बात ये रही कि सारे टीके कूड़े के हवाले ही हो गये और लोग अबतक बिना टीकाकरण के सुरक्षित घूम रहे हैं।
भारत में फ्लू से मौतों का सबसे खतरनाक आंकड़ा वर्ष 1918-19 के दरम्यान फैले स्पैनिश फ्लू का रहा है जिसने उस साल यहां 1 करोड़ 20 लाख जानें ले ली थीं। गौरतलब है कि तब इसकी सीमा में वर्तमान पाकिस्तान और बांग्लादेश भी शामिल थे। वास्तव में भारत में फ्लू के अतिरिक्त दर्जनों ऐसी बीमारियां हैं जो कोविड-19 के मुकाबले कई गुना जानें ले लेती हैं। अकेले टीबी से हर साल मरने वालों का आंकड़ा 2 लाख 20 हजार है। पूर्वी उत्तर प्रदेश और उत्तर बिहार में बच्चों में तेजी से फैलने वाला रहस्यमयी दिमागी या चमकी बुखार हर साल हजारों बच्चों की जिंदगियां लील लेता है।
हालांकि इस विश्वव्यापी प्रचार तंत्र के पीछे किसका दिमाग काम कर रहा है इसे लेकर कई थ्योरियां प्रचलित हो रही हैं। सबसे ज्यादा चर्चा है कि चीन इस खबर को प्लांट करने और फैलाने में सबसे अधिक जिम्मेदार माना जा रहा है जिसने कभी एक सी खबर नहीं दी। युरोप में चीन का बड़ा निवेश है और वह युरोपीय मीडिया में खबरें प्लांट करने में माहिर हो गया है। चीन ने अपने वुहान प्रांत की खबर को कुछ इस तरह छिपाया और छपवाया कि इस बीमारी का दुनिया भर में आतंक पैदा हो गया। ताजा उदाहरण वुहान के लापता हुए डेढ़ करोड़ फोन नंबरों का है जिसके बारे में तरह-तरह की कहानियां प्रचलित हो रही हैं। इस चर्चा में ये भी कहा जा रहा है कि चीन में बमुश्किल कुछ सौ लोग ही इसकी भेंट चढ़े और उनमें भी सबसे अधिक बुजुर्ग।
एक दूसरी मान्यता के अनुसार कोविड प्रौपेगंडा अमेरिकी दिमाग की उपज है ताकि चीन को बदनाम किया जा सके। गौरतलब है कि राष्ट्रपति ट्रंप ने भी शुरुआत में इसे चीनी वाइरस कहा था। विश्व भर के आंकड़े गवाह हैं कि इस बीमारी से संक्रमित लोगों में मरने वालों की संख्या 6 प्रतिशत से भी कम है जबकि स्वास्थ्य संबंधी उपकरणों और दवाओं के व्यापार में अरबों रुपये का इजाफा हुआ है।। इससे खतरनाक स्थिति लगभग हर साल फैलने वाले साधारण फ्लू में रहती है, लेकिन उसकी ब्रांडिंग इतनी जबरदस्त कभी नहीं रही।
इस सनसनी को फैलाने में सबसे प्रमुख भूमिका एक और शख्स की मानी जाती है वो हैं विश्व स्वास्थ्य संगठन यानी डब्लूएचओ के प्रमुख टेड्रोस अधनॉम की। ये साहब एक छोटे से अफ्रीकी देश इथोपिया के हैं। ये इस संस्था के इतिहास में पहले ऐसे अध्यक्ष हैं जो पेशे से डॉक्टर नहीं हैं। डब्लूएचओ के अध्यक्ष पद पर इन्हें बिठाने में चीन की सबसे महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। टेड्रोस अधनॉम ही वो शख्स हैं जिन्होंने इस बीमारी को पैंडेमिक घोषित किया और इसका फैलाव रोकने के लिये दुनिया भर को लॉकडाउन का गुरुमंत्र दिया। उन्होंने इटली व जर्मनी के सभी प्रमुख शहरों को लॉकडाउन के जरिये कोरोना के चेन को तोड़ने की सलाह दी और इसे एक मॉडल की तरह दुनिया भर में पेश किया। क्वैरेंटीन का प्रचलन स्वाइन फ्लू के समय से ही शुरू हो गया था जिसे प्रभावी तौर पर इस्तेमाल करने को कहा जाने लगा गया। इसका अगला कदम लॉक़डाउन बताया गया और सबसे पहले उद्योग-धंधों को बंद कर दिया गया। हालांकि विशेषज्ञ इसपर एकमत नहीं हैं कि ऐसा चीन या अमेरिका के इशारे पर हुआ, लेकिन आइये जरा ध्यान से देखें कि इस बीमारी की ब्रांडिंग करने में चीन और अमेरिका का कितना फायदा हुआ।
अभी तक दुनिया में सबसे बड़ा कारोबार अस्त्रों और आयुधों का माना जाता रहा है। दुनिया के अधिकतर देश अपने रक्षा बजट पर अपने जीडीपी का 20-22 प्रतिशत तक खर्च कर देते हैं। खरबों डॉलर के इस बाजार पर लगभग पूरी तरह अमेरिका और युरोप का कब्जा था। चीन अपनी सुरक्षा के लिये तोप, मिसाइल, युद्धक विमान, लड़ाकू जहाज और पनडुब्बियां आदि तो उम्दा क्वालिटी का बना लेता है, लेकिन दुनिया में उससे हथियार खरीदने वालों की संख्या बहुत कम है। दुनिया में दूसरे सबसे बड़े व्यापार के तौर पर स्थापित है मेडिसीन और हेल्थ केयर सेक्टर। हालांकि इस क्षेत्र पर सरकारें बहुत कम खर्च करती हैं, फिर भी बीमारियों और महामारियों की बदौलत लोगों के बीच इस उद्योग ने अपना वजूद बना रखा है। अगर भारत का ही उदाहरण लें तो पिछली सरकारों के समय कुल बजट का 0.5 प्रतिशत ही हेल्थ सेक्टर पर खर्च होता था। हाल के वर्षों में ये कुछ बढ़ा तो है फिर भी इसकी भागीदारी 2 प्रतिशत के आसपास ही है। विकसित देशों में भी हेल्थ-मेडिसीन सेक्टर की हैसियत 5-6 प्रतिशत की ही है। इस तरह की स्थितियां आने पर इस सेक्टर का कारोबार कई गुना बढ़ सकता है जिसमें चीन पूरी तैयारी के साथ बैठा है। विशेषज्ञों का कहना है कि यह सब उस साजिश का हिस्सा है जिसके तहत वो पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था ठप्प करने की फिराक में हैं।
भारत ही नहीं, युरोप के भी बाजारों में इंफेक्शन से सुरक्षा पहुंचाने वाले उपकरणों, मास्कों और पीपीई किट की सप्लाई में चीन की उन कंपनियों का बड़ा हिस्सा है जो वुहान के लॉकडाउन के बावजूद शंघाई और बीजिंग से अपना कारोबार करती रहीं। बाजार पर नजर रखने वालों का मानना है कि चीन में बहुत सारी नयी मास्क और पीपीई किट बनाने वाली कंपनियों ने अक्टूबर-नवंबर में बाजार में कदम रखा और तीन-चार महीनों में ही उन्हें करोड़ों का ऑर्डर मिल गया। एक तरफ जहां भारतीय शेयर बाजार के लुढ़कने से उद्योग जगत के सिरमौर माने जाने वाले मुकेश अंबानी को 5.8 अरब डॉलर का नुकसान हुआ वहीं अलीबाबा फेम चीनी उद्योगपति और जैक मा एशिया के सबसे अमीर व्यक्ति की कुर्सी पर जा बैठे। गौरतलब है कि दुनिया भर में मेडिकल इक्विपमेंट, पीपीई किट, मास्क वेंटिलेटर आदि की सप्लाई में अलीबाबा डॉट कॉम सबसे महत्त्वपूर्ण बीटूबी प्लेटफॉर्म है।
उधर अमेरिका को भी इस व्यापार में बड़ी कामयाबी मिल रही है। दुनिया भर में जहां भी चीन को साजिशकर्ता के रूप में प्रोजेक्ट किया गया है वहां जांच उपकरणों, वेंटिलेटरों, टेस्टिंग किट, पीपीई किट, फेस मास्क आदि के बाजार में अमेरिकी कंपनियां अपने पांव जमा रही हैं। विएतनाम और कंबोडिया जैसे छोटे से छोटे देश तक स्वास्थ्य उपकरणों की बड़ी खेप का ऑर्डर अमेरिकी कंपनियों को ही दे रहे हैं।
इधर भारत में सेबी के भरपूर प्रयासों के बावजूद शेयर बाजार बुरी तरह लड़खड़ाया हुआ है और निवेशकों के खरबों रुपये डूबे हुए हैं। ऑटोमोबाइल से लेकर बैंकिंग तक के शेयर लाख कोशिशों के बावजूद चढ़ नहीं पा रहे। भारत सरकार ने जिस तेजी से लॉकडाउन का फैसला किया वो मीडिया के प्रभाव के लिहाज से तो सफल है, लेकिन बाजार विशेषज्ञों के लिहाज से बेहद चौंकाने वाला है। हालांकि सरकारों को इस लॉकडाउन की तैयारी करने का मौका तक नहीं मिल पाया और अर्थव्यवस्था के एक बड़ा हिस्सा ठप हो गया। दिल्ली, राजस्थान व पंजाब जैसे कुछ राज्यों में स्थानीय सरकारों की अक्षमता की वजह से दिहाड़ी मजदूरों की स्थिति और आधी-अधूरी घोषणा ने अफवाहों का बाजार ही गर्म किया। खास बात ये है कि इतने बड़े स्तर पर लॉकडाउन करने वाला भारत दुनिया का इकलौता देश है। उम्मीद के मुताबिक डब्लूएचओ के अध्यक्ष ने इसकी खूब प्रशंसा की।
व्यापारिक फ्रंट पर देखा जाये तो महिंद्रा एंड महिंद्रा और मारुति जैसी बड़ी कंपनियों ने अपना उत्पादन पूरी तरह रोक दिया है। सीआईआई का कहना है कि भारतीय इलेक्ट्रॉनिक उद्योग जगत भारी तनाव में है। मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर में, खास तौर पर इलेक्ट्रॉनिक्स सेक्टर बड़े पैमाने पर कच्चा माल चीन से आयात करता है। इलेक्ट्रॉनिक्स सेक्टर में 40 से 50 फीसदी व्यापार चीनी कंपनियों पर निर्भर है और कंज्यूमर इलेक्ट्रॉनिक्स सेक्टर का 20 से 30 फीसदी तक का व्यवसाय चीन पर निर्भर है। मोबाइल फोन्स का उत्पादन तो 80 से 85 प्रतिशत तक चीन पर ही निर्भर है। उधर चीन लॉकडाउन के बाद किस तरह पेश आयेगा इसे लेकर भी भारतीय व्यापार जगत बुरी तरह सशंकित है। एयरलाइन और ट्रांस्पोर्ट जगत के साथ-साथ होटल उद्योग भी भारी संकट में है। लॉकडाउन खत्म होने के बाद भी ये छद्म युद्द सी स्थिति कब तक रहेगी कहना मुश्किल है। मजदूरों की स्थिति बेरोजगारी और खतरनाक भुखमरी की ओर बढ़ रही है।
हालांकि निराशा के इस माहौल में कई सुखद खबरें भी देखने को मिल रही हैं। एक्सीडेंट का आंकड़ा जहां शून्य के लगभग पहुंच गया हैं वहीं कोविड-19 के अलावे दूसरी बीमारियों से भी होने वाली और सामान्य मौतों की संख्या में भी आश्चर्यजनक रूप से गिरावट आयी है। दिल्ली और मुंबई समेत तमाम महानगरों की हवा प्रदूषण मुक्त हो गयी है। गंगा और यमुना जैसी नदियों का पानी बिलकुल साफ हो चला है। शहरों और नगरों पर पड़ने वाला अनावश्यक बोझ कम हो रहा है, लेकिन जैसा कि हर आम और खास का मानना है, ये तूफान के पहले की शांति है जो बेहद खतरनाक है।
(इस आलेख के लेखक फेम इंडिया मैग्जीन के एसोशिएट संपादक कार्यरत हैं।)