पितृ-लोक क्या है?
हमारे संतो,योगियों, ऋषियों ने प्रौनुभुतियो के द्वारा जो देखा-महसूस किया उसके लिहाज से सनातन समाज के लिए जीवन-पद्धतिया बनाई, जिससे कि साधारण मनुष्य कर्म-प्रारब्ध और लालसाओ में फंसा हुआ जीवन ख़त्म न कर बैठे। हिन्दू कर्म-पूजन-योग ध्यान और सहज संस्कार वश सारी ऋण कर्म पूरा करता है। इसीलिये जीवन के आख़िरी समय में उसको पछताना नही होत।|उन छोटे-छोटे सहज करमो में भी श्रद्ध की व्यवस्था है।
श्राद्ध करना, पारिवारिक वृद्धि के लिये आशीर्वाद पाना है।बच्चे होना, विवाह होना और कुटुम्ब में शाँति होना – श्राद्ध करने का फल है। वो लोग – जो कभी हमारे परिवार का हिस्सा थे, प्राण त्यागकर पितर-लोक को चले गये। वही जानते हैं कि – हमारे परिवार में, हमारे कुटुम्ब में किस चीज की आवश्यकता है। जिससे परिवार की वृद्धि होगी। यश, मान-सम्मान और धन-सम्पति देवी-देवताओं के कृपादृष्टि का फल है। परन्तु विवाह होना, बच्चा होना और कुटुम्ब में भाई-चारा होना – पितरों के आशीर्वाद का फल है। हमारे पूर्वज – हमारे गुजरे हुये प्रियजन अनैमितिक आत्माओं के रूप में पितर-लोक में रहते है। अगर हम निरन्तर श्राद्ध, दान, पुण्य और उनकी शाँति के लिये प्रार्थना करते है तो समय-समय पर वो हमारे कुटुम्ब-परिवार की सुख-शाँति का आशीर्वाद देते है है। पारिवारिक वृद्धि के लिये वे स्वयं भी हमारे परिवार में जन्म लेते है।
पितर-लोक – पाँचवे आयाम में स्थापित है, हम तीसरे आयाम है। हम पितरों को नही देख सकते, लेकिन वे हमको देख सकते है। पारिवारिक वृद्धि के लिये वे हमारी सहायता कर सकते है।
उदाहरण के तौर पर – पेड़-पौधे पहले आयाम में पनपते है। धूप, हवा और जल से पोषण पाते है। ये अगर उन्हें ना मिले तो सूख जायेंगे अथवा नष्ट हो जायेंगे। अपने पोषण के लिये – ये स्वयं कुछ नही कर सकते। इसके लिये उन्हें दूसरे आयाम में जाना पड़ेगा जहां उन्हें पोषण के आवश्यक तत्व मिल सकते हैं। लेकिन उन्हें दूसरे आयाम का पता ही नही है। दूसरे आयाम का पता है – जीव-जन्तु, पशु पक्षी और जानवरों को है – जो अपने पालन-पोषण के लिये दूर-दूर तक जाते हैं। जहां तक खाना मिलता है – चलते चले जाते और अगर खाना इन्हें ना मिले तो – ये नही जानते कि – खाना कैसे प्राप्त करना है ?
ये उपलब्ध खानपान पर ही निर्भर रहते हैं। क्योंकि – ये तीसरे आयाम को नही जानते, जहां विभिन्न संसाधनों से पालन-पोषण के लिये खान-पान तैयार किया जा सकता है म। ये तीसरा आयाम मनुष्यों का है जो रचनात्मक प्रवृति के होते है और प्राकृतिक संसाधनों से अपने जीवन यापन को सरल बनाते हैं।
खानपान हो या संसाधनों का उपयोग – मूलमंत्र है, शक्ति अर्जित करना। फिर – वो पेड़-पौधे हो, पशु-पक्षी हो याँ मनुष्य हो। सभी को शक्ति चाहिये। लेकिन पेड़-पौधे और पशु-पक्षी तो केवल जीवन-यापन के लिये ही खानपान के रूप में शक्ति अर्जित करते है परन्तु मनुष्य अति-महत्वाकांक्षी है और रचनात्मक भी है। उसकी शक्ति की महत्त्वाकांक्षा उसके जीवन-यापन से अधिक की है। वो अपनी सीमाओं से आगे जाकर प्रकृति पर नियंत्रण करना चाहता है। जिसमे उसे शक्ति की असीम संभावनायें दिखाई देती है। वो निरन्तर उन्नति करते चला जाना चाहता है – जिससे उसे और शक्ति मिलती चली जाये। लेकिन फिर – उसका सामना समय से होता है ।वो समय को समझ नही पाता उसकी गति को नियंत्रित नही कर पाता है। क्योंकि – ये चौथा आयाम है। यहां भौतिक-जगत का कोई नियम नही चलता यहां तक की भौतिक शरीर भी नही चलता – ये सूक्ष्म-जगत है। यहां सूक्ष्म शरीर धारी ही विचरण कर सकते है। सभी जीव और भौतिक शरीर धारी – शरीर त्यागने के बाद इसी चौथे आयाम में प्रवेश करते है । ये समय की धारा होती है – जिसके उस पार पाँचवा आयाम है। मनुष्य – जब शरीर त्यागता है और इस चौथे आयाम में प्रवेश करता है। तब उसके परिजन उसका अंतिम संस्कार करते है। उसके लिये पुजा-प्रार्थना करते हैं। ताकि वो इस आयाम से परिष्कृत होता हुआ समय की इस धारा को पार कर ले और पितर-लोक की ओर प्रस्थान करे तथा वहां नैमित्तिक आत्माओं के संसर्ग में रहे और फिर से उनके कुटुम्ब-परिवार में जन्म ले सके। चौथे आयाम में असंख्य आत्मायें विचरण करती रहती हैं। इनमे हज़ारों वर्षों से विचरण करती विभिन्न प्रेतात्मायें भी होती है। जिनका अंतिम संस्कार नही हुआ, जिनके लिये किसी ने श्राद्ध नही किया, किसीने पुजा-प्रार्थना नही की – ऐसी असंख्य आत्मायें इसमें भटक रही हैं ।जैसे – पहले आयाम के पेड़-पौधे, मनुष्य को फल, फूल, पत्ते और लकड़ी निरंतर देते रहते है और बदले में मनुष्य उन्हें बनाये रखने का प्रयास करता रहता है। वैसे ही – अगर मनुष्य निरन्तर अपने पूर्वजों के श्राद्ध, दान, पुण्य और पुजा-प्रार्थना करता है। तब पांचवे आयाम में स्थापित पितृ-लोक से पितर भी मनुष्य को, उसके कुटुम्ब परिवार को और उसके आसपास शाँति को बनाये रखने का प्रयास करते हैं।
श्राद्ध व पिण्डदान
श्राद्ध या पिन्डदान कितने प्रकार के है श्राद्ध या पिन्डदान क्यो करना चाहिए?
पितरों की संतुष्टि के उद्देश्य से श्रद्धापूर्वक किये जाने वाले तर्पर्ण, ब्राह्मण भोजन, दान आदि कर्मों को श्राद्ध कहा जाता है. इसे पितृयज्ञ भी कहते हैं. श्राद्ध के द्वारा व्यक्ति पितृऋण से मुक्त होता है और पितरों को संतुष्ट करके स्वयं की मुक्ति के मार्ग पर बढ़ता है.श्राद्ध या पिन्डदान दोनो एक ही शब्द के दो पहलू है पिन्डदान शब्द का अर्थ है अन्न को पिन्डाकार मे बनाकार पितर को श्रद्धा पूर्वक अर्पण करना इसी को पिन्डदान कहते है दझिण भारतीय पिन्डदान को श्राद्ध कहते है
श्राद्ध के प्रकार
शास्त्रों में श्राद्ध के निम्नलिखित प्रकार बताये गए हैं –
०१. नित्य श्राद्ध : वे श्राद्ध जो नित्य-प्रतिदिन किये जाते हैं, उन्हें नित्य श्राद्ध कहते हैं. इसमें विश्वदेव नहीं होते हैं।
०२. नैमित्तिक या एकोदिष्ट श्राद्ध : वह श्राद्ध जो केवल एक व्यक्ति के उद्देश्य से किया जाता है. यह भी विश्वदेव रहित होता है. इसमें आवाहन तथा अग्रौकरण की क्रिया नहीं होती है।
एक पिण्ड, एक अर्ध्य, एक पवित्रक होता है।
०३. काम्य श्राद्ध : वह श्राद्ध जो किसी कामना की पूर्ती के उद्देश्य से किया जाए, काम्य श्राद्ध कहलाता है।
०४. वृद्धि (नान्दी) श्राद्ध : मांगलिक कार्यों (पुत्रजन्म, विवाह आदि कार्य) में जो श्राद्ध किया जाता है, उसे वृद्धि श्राद्ध या नान्दी श्राद्ध कहते हैं।
०५. पावर्ण श्राद्ध : पावर्ण श्राद्ध वे हैं जो भाद्रपद कृष्ण पक्ष के पितृपक्ष, प्रत्येक मास की अमावस्या आदि पर किये जाते हैं. ये विश्वदेव सहित श्राद्ध हैं।
०६. सपिण्डन श्राद्ध : वह श्राद्ध जिसमें प्रेत-पिंड का पितृ पिंडों में सम्मलेन किया जाता है, उसे सपिण्डन श्राद्ध कहा जाता है।
०७. गोष्ठी श्राद्ध : सामूहिक रूप से जो श्राद्ध किया जाता है, उसे गोष्ठीश्राद्ध कहते हैं।
०८. शुद्धयर्थ श्राद्ध : शुद्धयर्थ श्राद्ध वे हैं, जो शुद्धि के उद्देश्य से किये जाते हैं।
०९. कर्मांग श्राद्ध : कर्मांग श्राद्ध वे हैं।
जो षोडश संस्कारों में किये जाते हैं.।
१०. दैविक श्राद्ध : देवताओं की संतुष्टि की संतुष्टि के उद्देश्य से जो श्राद्ध किये जाते हैं, उन्हें दैविक श्राद्ध कहते हैं।
११. यात्रार्थ श्राद्ध : यात्रा के उद्देश्य से जो श्राद्ध किया जाता है, उसे यात्रार्थ कहते हैं।
१२. पुष्टयर्थ श्राद्ध : शारीरिक, मानसिक एवं आर्थिक पुष्टता के लिये जो श्राद्ध किये जाते हैं, उन्हें पुष्टयर्थ श्राद्ध कहते हैं।
१३. श्रौत-स्मार्त श्राद्ध : पिण्डपितृयाग को श्रौत श्राद्ध कहते हैं, जबकि एकोदिष्ट, पावर्ण, यात्रार्थ, कर्मांग आदि श्राद्ध स्मार्त श्राद्ध कहलाते हैं।
कब किया जाता है श्राद्ध?
श्राद्ध की महत्ता को स्पष्ट करने से पूर्व यह जानना भी आवश्यक है की श्राद्ध कब किया जाता है. इस संबंध में शास्त्रों में श्राद्ध किये जाने के निम्नलिखित अवसर बताये गए हैं –
०१. भाद्रपद कृष्ण पक्ष के पितृपक्ष के १६ दिन।
०२. वर्ष की १२ अमावास्याएं तथा अधिक मास की अमावस्या।
०३. वर्ष की १२ संक्रांतियां।
०४. वर्ष में ०४ युगादी तिथियाँ।
०५. वर्ष में १४ मन्वादी तिथियाँ।
०६. वर्ष में १२ वैध्रति योग।
०७. वर्ष में १२ व्यतिपात योग।
०८. पांच अष्टका।
०९. पांच अन्वष्टका।
१०. पांच पूर्वेघु।
११. तीन नक्षत्र: रोहिणी, आर्द्रा, मघा।
१२. एक कारण : विष्टि।
१३. दो तिथियाँ : अष्टमी और सप्तमी।
१४. ग्रहण : सूर्य एवं चन्द्र ग्रहण।
१५. मृत्यु या क्षय तिथि।
क्यों आवश्यक है श्राद्ध?
श्राद्धकर्म क्यों आवश्यक है, इस संबंध में निम्नलिखित तर्क दिए जा सकते हैं –
०१. श्राद्ध पितृ ऋण से मुक्ति का माध्यम है।
०२. श्राद्ध पितरों की संतुष्टि के लिये आवश्यक है।
०३. महर्षि सुमन्तु के अनुसार श्राद्ध करने से श्राद्धकर्ता का कल्याण होता है।
०४. मार्कंडेय पुराण के अनुसार श्राद्ध से संतुष्ट होकर पितर श्राद्धकर्ता को दीर्घायु, संतति, धन, विघ्या, सभी प्रकार के सुख और मरणोपरांत स्वर्ग एवं मोक्ष प्रदान करते हैं।
०५. अत्री संहिता के अनुसार श्राद्धकर्ता परमगति को प्राप्त होता है।
०६. यदि श्राद्ध नहीं किया जाता है, तो पितरों को बड़ा ही दुःख होता है।
०७. ब्रह्मपुराण में उल्लेख है की यदि श्राद्ध नहीं किया जाता है, तो पितर श्राद्ध करने वाले व्यक्ति को शाप देते हैं और उसका रक्त चूसते हैं. शाप के कारण वह वंशहीन हो जाता अर्थात वह पुत्र रहित हो जाता है, उसे जीवनभर कष्ट झेलना पड़ता है, घर में बीमारी बनी रहती है.श्राद्ध-कर्म शास्त्रोक्त विधि से ही कर इस सृष्टि में हर चीज का अथवा प्राणी का जोड़ा है। जैसे – रात और दिन, अँधेरा और उजाला, सफ़ेद और काला, अमीर और गरीब अथवा नर और नारी इत्यादि बहुत गिनवाये जा सकते हैं। सभी चीजें अपने जोड़े से सार्थक है अथवा एक-दूसरे के पूरक है। दोनों एक-दूसरे पर निर्भर होते हैं। इसी तरह दृश्य और अदृश्य जगत का भी जोड़ा है। दृश्य जगत वो है जो हमें दिखता है और अदृश्य जगत वो है जो हमें नहीं दिखता म। ये भी एक-दूसरे पर निर्भर है और एक-दूसरे के पूरक हैं। पितृ-लोक भी अदृश्य-जगत का हिस्सा है और अपनी सक्रियता के लिये दृश्य जगत के श्राद्ध पर निर्भर है।
धर्म ग्रंथों के अनुसार श्राद्ध के सोलह दिनों में लोग अपने पितरों को जल देते हैं तथा उनकी मृत्युतिथि पर श्राद्ध करते हैं। ऐसी मान्यता है कि पितरों का ऋण श्राद्ध द्वारा चुकाया जाता है। वर्ष के किसी भी मास तथा तिथि में स्वर्गवासी हुए पितरों के लिए पितृपक्ष की उसी तिथि को श्राद्ध किया जाता है।
पूर्णिमा पर देहांत होने से भाद्रपद शुक्ल पूर्णिमा को श्राद्ध करने का विधान है। इसी दिन से महालय (श्राद्ध) का प्रारंभ भी माना जाता है।
श्राद्ध का अर्थ है श्रद्धा से जो कुछ दिया जाए। पितृपक्ष में श्राद्ध करने से पितृगण वर्षभर तक प्रसन्न रहते हैं।
धर्म शास्त्रों में कहा गया है कि पितरों का पिण्ड दान करने वाला गृहस्थ दीर्घायु, पुत्र-पौत्रादि, यश, स्वर्ग, पुष्टि, बल, लक्ष्मी, पशु, सुख-साधन तथा धन-धान्य आदि की प्राप्ति करता है।
श्राद्ध में पितरों को आशा रहती है कि हमारे पुत्र-पौत्रादि हमें पिण्ड दान तथा तिलांजलि प्रदान कर संतुष्ट करेंगे।
इसी आशा के साथ वे पितृलोक से पृथ्वीलोक पर आते हैं। यही कारण है कि हिंदू धर्म शास्त्रों में प्रत्येक हिंदू गृहस्थ को पितृपक्ष में श्राद्ध अवश्य रूप से करने के लिए कहा गया है।
श्राद्ध से जुड़ी कई ऐसी बातें हैं जो बहुत कम लोग जानते हैं। मगर ये बातें श्राद्ध करने से पूर्व जान लेना बहुत जरूरी है क्योंकि कई बार विधिपूर्वक श्राद्ध न करने से पितृ श्राप भी दे देते हैं। आज हम आपको श्राद्ध से जुड़ी कुछ विशेष बातें बता रहे हैं, जो इस प्रकार हैं–
०१- श्राद्धकर्म में गाय का घी, दूध या दही काम में लेना चाहिए। यह ध्यान रखें कि गाय को बच्चा हुए दस दिन से अधिक हो चुके हैं। दस दिन के अंदर बछड़े को जन्म देने वाली गाय के दूध का उपयोग श्राद्ध कर्म में नहीं करना चाहिए।
०२- श्राद्ध में चांदी के बर्तनों का उपयोग व दान पुण्यदायक तो है ही राक्षसों का नाश करने वाला भी माना गया है। पितरों के लिए चांदी के बर्तन में सिर्फ पानी ही दिए जाए तो वह अक्षय तृप्तिकारक होता है। पितरों के लिए अर्घ्य, पिण्ड और भोजन के बर्तन भी चांदी के हों तो और भी श्रेष्ठ माना जाता है।
०३- श्राद्ध में ब्राह्मण को भोजन करवाते समय परोसने के बर्तन दोनों हाथों से पकड़ कर लाने चाहिए, एक हाथ से लाए अन्न पात्र से परोसा हुआ भोजन राक्षस छीन लेते हैं।
०४- ब्राह्मण को भोजन मौन रहकर एवं व्यंजनों की प्रशंसा किए बगैर करना चाहिए क्योंकि पितर तब तक ही भोजन ग्रहण करते हैं जब तक ब्राह्मण मौन रह कर भोजन करें।
०५- जो पितृ शस्त्र आदि से मारे गए हों उनका श्राद्ध मुख्य तिथि के अतिरिक्त चतुर्दशी को भी करना चाहिए। इससे वे प्रसन्न होते हैं। श्राद्ध गुप्त रूप से करना चाहिए। पिंडदान पर साधारण या नीच मनुष्यों की दृष्टि पडने से वह पितरों को नहीं पहुंचता।
०६- श्राद्ध में ब्राह्मण को भोजन करवाना आवश्यक है, जो व्यक्ति बिना ब्राह्मण के श्राद्ध कर्म करता है, उसके घर में पितर भोजन नहीं करते, श्राप देकर लौट जाते हैं। ब्राह्मण हीन श्राद्ध से मनुष्य महापापी होता है।
०७- श्राद्ध में जौ, कांगनी, मटरसरसों का उपयोग श्रेष्ठ रहता है। तिल की मात्रा अधिक होने पर श्राद्ध अक्षय हो जाता है। वास्तव में तिल पिशाचों से श्राद्ध की रक्षा करते हैं। कुशा (एक प्रकार की घास) राक्षसों से बचाते हैं।
०८- दूसरे की भूमि पर श्राद्ध नहीं करना चाहिए। वन, पर्वत, पुण्यतीर्थ एवं मंदिर दूसरे की भूमि नहीं माने जाते क्योंकि इन पर किसी का स्वामित्व नहीं माना गया है। अत: इन स्थानों पर श्राद्ध किया जा सकता है।
०९- चाहे मनुष्य देवकार्य में ब्राह्मण का चयन करते समय न सोचे, लेकिन पितृ कार्य में योग्य ब्राह्मण का ही चयन करना चाहिए क्योंकि श्राद्ध में पितरों की तृप्ति ब्राह्मणों द्वारा ही होती है।
१०- जो व्यक्ति किसी कारणवश एक ही नगर में रहनी वाली अपनी बहिन, जमाई और भानजे को श्राद्ध में भोजन नहीं कराता, उसके यहां पितर के साथ ही देवता भी अन्न ग्रहण नहीं करते।
११- श्राद्ध करते समय यदि कोई भिखारी आ जाए तो उसे आदरपूर्वक भोजन करवाना चाहिए। जो व्यक्ति ऐसे समय में घर आए याचक को भगा देता है उसका श्राद्ध कर्म पूर्ण नहीं माना जाता और उसका फल भी नष्ट हो जाता है।
१२- शुक्लपक्ष में, रात्रि में, युग्म दिनों (एक ही दिन दो तिथियों का योग)में तथा अपने जन्मदिन पर कभी श्राद्ध नहीं करना चाहिए। धर्म ग्रंथों के अनुसार सायंकाल का समय राक्षसों के लिए होता है, यह समय सभी कार्यों के लिए निंदित है। अत: शाम के समय भी श्राद्धकर्म नहीं करना चाहिए।
१३- श्राद्ध में प्रसन्न पितृगण मनुष्यों को पुत्र, धन, विद्या, आयु, आरोग्य, लौकिक सुख, मोक्ष और स्वर्ग प्रदान करते हैं। श्राद्ध के लिए शुक्लपक्ष की अपेक्षा कृष्णपक्ष श्रेष्ठ माना गया है।
१४- रात्रि को राक्षसी समय माना गया है। अत: रात में श्राद्ध कर्म नहीं करना चाहिए। दोनों संध्याओं के समय भी श्राद्धकर्म नहीं करना चाहिए। दिन के आठवें मुहूर्त (कुतपकाल) में पितरों के लिए दिया गया दान अक्षय होता है।
१५- श्राद्ध में ये चीजें होना महत्वपूर्ण हैं- गंगाजल, दूध, शहद, दौहित्र, कुश और तिल। केले के पत्ते पर श्राद्ध भोजन निषेध है। सोने, चांदी, कांसे, तांबे के पात्र उत्तम हैं। इनके अभाव में पत्तल उपयोग की जा सकती है।
१६- तुलसी से पितृगण प्रसन्न होते हैं। ऐसी धार्मिक मान्यता है कि पितृगण गरुड़ पर सवार होकर विष्णु लोक को चले जाते हैं। तुलसी से पिंड की पूजा करने से पितर लोग प्रलयकाल तक संतुष्ट रहते हैं।
१७- रेशमी, कंबल, ऊन, लकड़ी, तृण, पर्ण, कुश आदि के आसन श्रेष्ठ हैं। आसन में लोहा किसी भी रूप में प्रयुक्त नहीं होना चाहिए।
१८- चना, मसूर, उड़द, कुलथी, सत्तू, मूली, काला जीरा, कचनार, खीरा, काला उड़द, काला नमक, लौकी, बड़ी सरसों, काले सरसों की पत्ती और बासी, अपवित्र फल या अन्न श्राद्ध में निषेध हैं।
१९- भविष्य पुराण के अनुसार श्राद्ध १२ प्रकार के होते हैं, जो इस प्रकार हैं-
०१- नित्य, ०२- नैमित्तिक, ०३- काम्य, ०४- वृद्धि, ०५- सपिण्डन, ०६- पार्वण, ०७- गोष्ठी, ०८- शुद्धर्थ, ०९- कर्मांग, १०- दैविक, ११- यात्रार्थ, १२- पुष्टयर्थ।
२०- श्राद्ध के प्रमुख अंग इस प्रकार :
तर्पण- इसमें दूध, तिल, कुशा, पुष्प, गंध मिश्रित जल पितरों को तृप्त करने हेतु दिया जाता है। श्राद्ध पक्ष में इसे नित्य करने का विधान है।
भोजन व पिण्ड दान– पितरों के निमित्त ब्राह्मणों को भोजन दिया जाता है। श्राद्ध करते समय चावल या जौ के पिण्ड दान भी किए जाते हैं।
वस्त्रदान– वस्त्र दान देना श्राद्ध का मुख्य लक्ष्य भी है।
दक्षिणा दान– यज्ञ की पत्नी दक्षिणा है जब तक भोजन कराकर वस्त्र और दक्षिणा नहीं दी जाती उसका फल नहीं मिलता।
२१ – श्राद्ध तिथि के पूर्व ही यथाशक्ति विद्वान ब्राह्मणों को भोजन के लिए बुलावा दें। श्राद्ध के दिन भोजन के लिए आए ब्राह्मणों को दक्षिण दिशा में बैठाएं।
२२- पितरों की पसंद का भोजन दूध, दही, घी और शहद के साथ अन्न से बनाए गए पकवान जैसे खीर आदि है। इसलिए ब्राह्मणों को ऐसे भोजन कराने का विशेष ध्यान रखें।
२३- तैयार भोजन में से गाय, कुत्ते, कौए, देवता और चींटी के लिए थोड़ा सा भाग निकालें। इसके बाद हाथ जल, अक्षत यानी चावल, चन्दन, फूल और तिल लेकर ब्राह्मणों से संकल्प लें।
२४- कुत्ते और कौए के निमित्त निकाला भोजन कुत्ते और कौए को ही कराएं किंतु देवता और चींटी का भोजन गाय को खिला सकते हैं। इसके बाद ही ब्राह्मणों को भोजन कराएं। पूरी तृप्ति से भोजन कराने के बाद ब्राह्मणों के मस्तक पर तिलक लगाकर यथाशक्ति कपड़े, अन्न और दक्षिणा दान कर आशीर्वाद पाएं।
२५- ब्राह्मणों को भोजन के बाद घर के द्वार तक पूरे सम्मान के साथ विदा करके आएं। क्योंकि ऐसा माना जाता है कि ब्राह्मणों के साथ-साथ पितर लोग भी चलते हैं। ब्राह्मणों के भोजन के बाद ही अपने परिजनों, दोस्तों और रिश्तेदारों को भोजन कराएं।
२६- पिता का श्राद्ध पुत्र को ही करना चाहिए। पुत्र के न होने पर पत्नी श्राद्ध कर सकती है। पत्नी न होने पर सगा भाई और उसके भी अभाव में सपिंडो (परिवार के) को श्राद्ध करना चाहिए । एक से अधिक पुत्र होने पर सबसे बड़ा पुत्र श्राध्दकर्म करे।बड़े के ना होने की स्थिति में ही छोटा करे ।
आचार्य स्वामी विवेकानन्द जी
श्री रामकथा व श्रीमद्भागवत कथा व्यास श्री धाम श्री अयोध्या जी
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