राष्ट्र-सेवा की भाँति ही महात्मा की हिन्दी-सेवा भी महान – डाॅ. अनिल सुलभ

कुछ साल भी और जीवित रहते तो भारत कुछ और ही होता, हिन्दी राष्ट्रभाषा होती /

जयंती पर साहित्य सम्मेलन में “गांधी के साहित्यिक अवदान और हिन्दी-सेवा” को श्रद्धापूर्वक स्मरण किया गया /

पटना, २ अक्टूबर। गांधी महान भविष्य-द्रष्टा थे। यदि वे कुछ साल और जीवित रहे होते, तो भारत वर्षों पूर्व संसार का सबसे विकसित देश हो चुका होता। संविधान-निर्माण के साथ ही ‘हिन्दी’ भारत की ‘राष्ट्र-भाषा’ हो गयी होती। उनके सपनों का भारत हम आज तक नहीं बना सके। बापू की राष्ट्र-सेवा की भाँति ही मूल्यवान उनकी हिन्दी-सेवा भी थी और साहित्य-सेवा भी।
यह बातें, सोमवार को गांधी जयंती के अवसर “महात्मा गांधी की हिन्दी-सेवा और साहित्यिक अवदान” विषय पर, बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन में आयोजित संगोष्ठी की अध्यक्षता करते हुए, सम्मेलन अध्यक्ष डा अनिल सुलभ ने कही। उन्होंने कहा कि गांधी जी हिन्दी-सेवा को राष्ट्र-सेवा मानते थे। उनकी दृढ़ मान्यता थी कि भारत को एक भावनात्मक-सूत्र से हिन्दी ही जोड़ सकती है। इसीलिए उन्होंने संपूर्ण और अखंडित भारत में हिन्दी के प्रचार पर विशेष बल दिया। दक्षिण भारत में हिन्दी की अनेक संस्थाओं की स्थापना की, जिनमे से अनेक आज भी सक्रिए हैं।

गांधी जी ने देश की स्वतंत्रता के अनवरत संघर्ष और सत्याग्रहों के बीच भी सृजन के लिए समय निकालते रहे और ९ मूल्यवान ग्रंथ लिखे जिनमे उनकी विश्वविश्रुत आत्मकथा ‘सत्य का प्रयोग’, ‘हिंद स्वराज’, ‘दक्षिण अफ़्रीका में सत्याग्रह का इतिहास’, ‘गीता बोध’, ‘मेरे सपनों का भारत’ , ‘राम नाम’ सम्मिलित है। उन्होंने ‘हरिजन’ और ‘यंग इंडिया’ जैसे पत्रों के माध्यम से अपने संपादकीय और लेखन-सामर्थ्य का भी परिचय दिया। देश के लिए उनके राजनैतिक अवदान की भाँति उनका साहित्यिक अवदान भी महान था।
जयंती पर देश के द्वितीय प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री को स्मरण करते हुए अवकाश प्राप्त अपर समाहर्ता रमेश कँवल ने कहा कि गांधी जी की भाँति शास्त्री जी भी भारत के गौरव पुरुष हैं। ‘जय जवान और जय किसान’ का नारा देकर उन्होंने देश के किसानों और जवानों के मूल्य को समझा और समझाया था। वे राजनीति में शुद्धता और सिद्धांत के दृष्टांत थे।
अतिथियों का स्वागत करते हुए सम्मेलन के उपाध्यक्ष डा शंकर प्रसाद ने गांधी की आत्मकथा का उल्लेख करते हुए कहा कि यह महात्मा का ही कलेजा था कि उन्होंने अपनी भूलों की भी निःसंकोच चर्चा की और यह सिद्ध किया कि भूलों से सीखा जा सकता है, सत्य का उदाहरण बना जा सकता है। उनके जीवन में जो बदलाव आरंभ हुआ तो पीछे मुड़कर नहीं देखा। उनका तपस्वी जीवन उनका असह्य यातना सह कर भी अहिंसा को अपना हथियार बनाने वाला दिव्य गुण एक अद्वितीय उदाहरण है।
भारतीय प्रशासनिक सेवा के अवकाश प्राप्त अधिकारी बच्चा ठाकुर, ई अशोक कुमार, अंबरीष कांत, चितरंजन लाल भारती, डा शलिनी पाण्डेय, अरविंद अकेला, नरेश कुमार, आनंद बिहारी सिंह, सदानन्द प्रसाद, चंदा मिश्र, शायरा निगार आरा आदि ने भी बापू के अवदान और उनके बलिदानों को स्मरण करते हुए अपनी श्रद्धांजलि अर्पित की। मंच का संचालन कवि ब्रह्मानन्द पाण्डेय ने तथा धन्यवाद-ज्ञापन कृष्ण रंजन सिंह ने किया।
मयंक कुमार मानस, अमित कुमार सिंह, विशाल कुमार, मनोज रंजन, दुःख दमन सिंह, दिगम्बर जायसवाल, डौली कुमारी आदि प्रबुद्धजन उपस्थित थे।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *