कमलनयन श्रीवास्तव
प्रथम हिन्दी शब्द कोष के रचयिता मुंशी राधा लाल माथुर का जन्म (1843-1913) में नागवां, जोधपुर (राजस्थान) में हुआ। इनके पिता का नाम कुंज लाल था और ये अपने माता-पिता के इकलौते पुत्र थे।
इनकी आरंभिक शिक्षा उर्दू और फारसी के माध्यम से जोधपुर में हुई। कामचलाऊ शिक्षा ग्रहण करने के बाद ही ये वर्ष 1859 में (16 साल की उम्र में) 16 रुपये मासिक हिन्दी पंडित का काम करने लगे।
बिहार की पाठशालाओं में 1870 ई0 में हिन्दी माध्यम से पठन-पाठन की अनुमति मिली थी। उस समय बिहार में न तो हिन्दी की पाठ्य पुस्तकें उपलब्ध थीं और न हिन्दी शिक्षण-प्रशिक्षण हेतु शिक्षक ही। हिन्दी शिक्षकों के शिक्षक प्रशिक्षण के लिए उस समय नारमल स्कूल खोले गये। बिहार से हिन्दी शिक्षकों को आमंत्रित करने की आवश्यकता हुई। अजमेर से राधा लाल माथुर तथा उनके मामा सूरजमल की बुलाहट हुई। सूरजमल को पटना में नॉर्मल स्कूल तथा राधा लाल माथुर को गया नॉर्मल स्कूल में नियुक्त किया गया।
हिन्दी भाषा में रूचि रखने वाले और हिन्दी के हिमायती डॉ० एस० डब्लू० फैलन साहेब बहादुर इसी बीच बिहार राज्य में इन्सपेक्टर बनकर आये। उनका ध्यान मुंशी राधा लाल जी की हिन्दी की योग्यता की ओर आकृष्ट हुआ। राधा लाल जी से वे इतने प्रभावित हुए कि उन्होनें इण्ट्रेस की परीक्षा पास करने पर उन्हें डिप्टी इन्सपेक्टर ऑफ स्कूल के पद पर नियुक्त करने का आश्वासन दिया। राधा लाल जी ने इन्ट्रेंस की परीक्षा पास की और डिप्टी इन्सपेक्टर ऑफ स्कूल, दरभंगा के पद पर उनकी नियुक्ति हुई। इसी पद पर वे आरा, मातिहारी, छपरा में कार्यरत रहे और सन् 1900 ई0 इसी पद से पेंशन लेकर सेवा निवृत्त हुए। सेवा निवृत्ति उपरांत वे पटना में ही रहे।
सन् 1870 ई0 में स्कूलों में हिन्दी के पठन-पाठन की अनुमति मिलने पर हिन्दी की स्तरीय पाठ्य पुस्तक उपलब्ध नहीं रहने के कारण शिक्षा विभाग के अधिकारियों को अन्य विकल्पों पर विचार करना पड़ा।
बिहार में हिन्दी भाषा और देवनागरी लिपि के प्रचार-प्रसार में राधा लाल जी का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। बिहार सर्किल के स्कूलों के इन्सपेक्टर डॉ० एस० डब्लू० फैलन सहिब बहादुर तथा भूदेव मुखोपाध्याय के मार्गदर्शन में राधा लाल जी ने पाठ्य पुस्तकों की रचना की। इनमें प्रमुख हैं- हिन्दी किताब (भाग एक से चार), भाषा बोधिनी, रोमन हिन्दी रीडर, वस्तु विचार तथा खेत-नाप विद्या (MENSURATION) ।
हिन्दी भाषा के इतिहास में मुंशी राधा लाल जी की सबसे बड़ी देन है उनका हिन्दी शब्द कोष। संभवतः उस समय तक हिन्दी शब्द कोष का निर्माण नहीं हो पाया था। शिक्षा विभाग के तत्कालीन इन्सपेक्टर एस० डब्लू० फैलन के आग्रह पर मुंशी राधा लाल माथुर ने ‘शब्द कोष’ तैयार किया। जिसका प्रथम संस्करण 1873 ई० में लाईट प्रेस, बनारस से गोपी नाथ पाठक के प्रबंधन में प्रकाशित हुआ। इस संस्करण की एक हजार प्रतियां छपी थी। इसके निर्माण के लिए बंगाल सरकार से उन्हें दो हजार रुपये का पुरस्कार प्राप्त हुआ।
इस शब्द कोष को तैयार करने में राधा लाल जी ने टामसन का हिन्दी-अंग्रजी कोष, शैक्सपीयर का हिन्दुस्तान अंग्रेजी शब्द कोष, प्राइस का प्रेमसागर शब्द संग्रह, कार्बन का हिन्दुस्तानी-अंग्रेजी कोष, सिद्धान्त कौमुदी, बेनेफी और ऐप्स का संस्कृत अंग्रेजी शब्द कोष, पं० तारानाथ तर्क वाचस्पति का संस्कृत कोष, वोलर का हिन्दुस्तान का इतिहास, पं० ज्वाला प्रसाद भार्गव के महाभारत (उल्था समेत) तथा सुख सागर जैसे ग्रंथो की सहायता ली गई जिसका उल्लेख भूमिका में की गई है।
भारतेन्दु हरिशचन्द्र जी को आर्थिक तंगहाली के दिनों में राधा लाल जी ने उनका साथ एवं सहयोग दिया था। वे अपनी निजी डायरी नियमित लिखते थे।
मुंशी राधा लाल जी की पहली शादी जोधपुर में हुई थी जिससे उन्हें एक पुत्री प्राप्त हुई, जिसका विवाह जोधपुर में ही कर दिया गया था। पहली पत्नी की मृत्यु के उपरांत उनकी दूसरी शादी दीवान मुहल्ला, तारणि प्रसाद लेन, पटना सिटी स्थित मुंशी बृजमोहन लाल माथुर की बेटी से हुई। दूसरी पत्नी से उन्हें चार पुत्र और चार पुत्रियां हुई। सन् 1913 ई0 में उनका निधन हुआ। आज भी दीवान मुहल्ला में उनकी तीसरी और चौथी पीढी के लोग निवास करते है।
हिंदी के प्रथम शब्द कोष के संबंध के बाबू श्याम सुन्दर जी पादरी एम० टी० एडम कृत (1829) हिन्दी भाषा या देवनागरी अक्षरों में प्रकाशित पहला शब्द कोष मानते हैं जबकि दूसरी और आधुनिक कोष विद्या के प्रकांड पं० रामचन्द्र वर्मा के मत से राधा लाल कृत ‘शब्द कोश’ सन् 1873 में मुद्रित हिन्दी का पहला शब्दकोष है। अपनी कृति ‘कोश कला’ मे रामचन्द्र वर्मा लिखते हैं “हिन्दी का जो पहला मुद्रित कोश मेरे देखने में आया, वह गया ट्रेनिंग स्कूल के हेडमास्टर राधा लाल कृत ‘शब्द कोश’ था जो सन् 1873 में काशी से प्रकाशित हुआ था। इसके प्रथम संस्करण की 1000 (एक हजार) प्रतियां प्रकाशित की गई थी।
राधा लाल माथुर द्वारा निर्मित शब्द कोष ही ‘प्रथम हिन्दी कोष’ है। 1873 में लाईट प्रेस, बनारस में मुद्रित इसकी प्रति इनके परिजनों के पास आज भी सुरक्षित है। इसकी पाण्डुलिपि (Manuscript) भी उनके पास उपलब्ध है। भरतेन्दु हरिश्चन्द्र के अनेक हस्तलिखित पत्र भी परिजनों ने संजो कर रखे हैं। इसपर गहन शोध की आवश्यकता है। ताकि हिन्दी जगत इसकी वास्तविकता से रूबरू हो सके…..