बदलते परिवेश और आधुनिकता ने अपनी पुरानी पहचान और संस्कृति को मानो काफी पीछे छोड़ दिया है जैसे बात करते हैं ‘डोली’ का। आने वाले पीढ़ी में हमारे बच्चे डोली को सिर्फ किताबों पर ही जान सकेंगे।
डोली प्रथा काफी पुराना
डोली प्रथा का इतिहास काफी पुराना है इतिहासकार इसे मुगलकाल की प्रथा बताते हैं। लेकिन सीतामढ़ी में डोली प्रथा का इतिहास धार्मिक व ऐतिहासिक है। सीतामढ़ी में त्रेतायुग से डोली प्रथा की शुरूआत हुई थी। जनकपुर (नेपाल) में स्वयंवर में धनुष तोड़कर मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम ने मां सीता से शादी रचायी। शादी के बाद डोली से ही मां जानकी अपने ससुराल अयोध्या गई थी।
शान की प्रतीक थी डोली
आम लोग इसे ‘डोली’ और खास लोग इसे ‘पालकी’ कहते थे, जबकि विद्वतजनों में इसे ‘शिविका’ नाम प्राप्त था। राजतंत्र में राजे रजवाड़े व जमींदार इसी पालकी से अपने इलाके के भ्रमण पर निकला करते थे। आगे आगे राजा की डोली और पीछे-पीछे उनके सैनिक व अन्य कर्मी पैदल चला करते थे। शादी विवाह में सामान ढोने के लिए बैलगाड़ी और दूल्हा दूल्हन के लिए ‘डोली’ का चलन था। शेष बाराती पैदल चला करते थे। कई कई गांवो में किसी एक व्यक्ति के पास तब डोली हुआ करती थी। जो उसकी शान की प्रतीक भी थी। शादी विवाह के मौकों पर लोगो को पहले से बुकिंग के आधार पर डोली बगैर किसी शुल्क के मुहैय्या होती थी। बस ढोने वाले कहांरो को ही उनका मेहनताना देना पड़ता था। जिसका दोनो तरफ का हिस्सा खिड़की की तरह खुला होता था। अंदर आराम के लिए गद्दे विछाये जाते थे। ऊपर खोखले मजबूत बांस के हत्थे लगाये जाते थे। जिसे कंधो पर रखकर कहांर ढोते थे।
प्रचलित परंपरा और रश्म के अनुसार शादी हेतु बारात निकलने से पूर्व दूल्हे की सगी सम्बंधी महिलाएं डोल चढ़ाई रश्म के तहत बारी बारी दुल्हे के साथ डोली में बैठती थी। इसके बदले कहांरो को यथा शक्ति दान देते हुए शादी करने जाते दूल्हे को आशीर्वाद देकर भेजती थी। दूल्हें को लेकर कहांर उसकी ससुराल तक जाते थे। इस बीच कई जगह रूक रूक थकान मिटाते और जलपान करते कराते थे। इसी डोली से दूल्हे की परछन रश्म के साथ अन्य रश्में निभाई जाती थी।
गीत गाते चलते थे डोली ढोते समय कहांर
अगले दिन बरहार के रूप में रूकी बारात जब तीसरे दिन वापस लौटती थी तब इस डोली में मायके वालों के बिछुड़ने से दुखी होकर रोती हुई दुल्हन बैठती थी। ओर रोते हुए काफी दूर तक चली जाती थी। जिसे हंसाने व अपनी थकान मिटाने के लिए कहांर तमाम तरह की चुटकी लेते हुए गीत भी गाते चलते थे। डोली ढोते समय मजाक करते कहारों को राह चलती ग्रामीण महिलाएं जबाव भी खूब देती थीं, जिसे सुनकर रोती दुल्हन हंस देती थी। दुल्हन की डोली जब उसके पीहर पहुंच जाती थी, तब एक रस्म निभाने के लिए कुछ दूर पहले डोली में दुल्हन के साथ दूल्हे को भी बैठा दिया जाता था। फिर उन्हें उतारने की भी रस्म निभाई जाती थी। इस अवसर पर कहारों को फिर पुरस्कार मिलता था।
अब न तो डोली दिखता है और न ही कहार
80 के दशक तक दुल्हा पालकी पर सवार होकर ससुराल जाता था तथा दुल्हन डोली में बैठ कर अपने पिया के घर आती थी। पर अब इसकी परंपरा समाप्त होने के साथ-साथ उसे ढोने वाले लोग भी बेरोजगार हो गए हैं। वर्तमान में भी कुछ लोग पारंपरिक ढ़ंग से अपनी बेटी की बिदाई करना चाहते हैं, लेकिन हालात यह है कि अब न तो डोली मिल रहा है और नहीं ढोने वाले लोग ही। खासकर विदाई के वक्त यह गीत और भी प्रासंगिक हो जाती थी। लेकिन, इन गीतों की प्रासंगिकता इतिहास के पन्नों में कैद होकर रह गई। अब न तो डोली दिखता है और न ही कहार।
देश के प्राचीन परंपरा पर शहरी कल्चर हावी होने लगा
समय के साथ गांव में भी शहरी कल्चर हावी होने लगा है। अंग्रेजों के साथ बिता हुआ पल देश में अपना असर डालते नजर आ रहा है। जिससे हमारे गांव की खुशबू हमारे देश के प्राचीन परंपरा धीरे धीरे लुप्त होते जा रही है। इनमें एक किसी की भूमिका नहीं होती पर हमारे समाज के लोग भूलते जा रहे है। शादी हो और दूल्हा-दुल्हन डोली न चढ़ें यह पहले असंभव था। लेकिन, आधुनिकता के दौर में डोली और कहार की जगह लग्जरी वाहनों ने जगह ले ली है। तेजी से बदलकर आधुनिक हुए मौजूदा परिवेश में तमाम रीति रिवाजों के साथ डोली का चलन भी अब पूरी तरह समाप्त हो गया।