दूसरी आजादी के नाम से मशहूर जेपी आंदोलन के दौरान आपातकाल और तत्कालीन सरकार की दमनकारी नीतियों के खिलाफ नुक्कड़ों पर काव्य-पाठ कर आम जनता को जागरूक करने वाले कवियों में गोपीवल्लभ प्रमुख थे।
सहज-सरल भाषा में लिखी सीधे संप्रेषित होने वाली उनकी कविताएं अन्याय के विरुद्ध खड़ा होने के लिए नौजवानों को प्रेरित और प्रोत्साहित करती थी। उनका एक लोकप्रिय गीत था – जहां-जहां जुल्मों का बोल/ बोल जवानों हल्ला बोल
नेताओं के चिकने बोल/ काला चेहरा उजला खोल/ झूठे नारे नकली ढोल/ लंबी कथनी करनी गोल/ खुलती जाती सब की पोल/ बोल जवानों हल्ला बोल।
गोपीवल्लभ पुलिस महकमें के एक अधिकारी थे, लेकिन सरकार-विरोधी गतिविधियों के कारण उनके पीछे खुफिया विभाग के अधिकारी लगे रहते थे उनसे आंख-मिचौली करते हुए वे किसी-न-किसी नुक्कड़ पर पहुंच कर काव्य-पाठ शुरु कर देते – भूखे प्यासे नंगे हम/ बोलो बम बोलो बम/ महंगाई से नाक में दम/ है काला बाजार गर्म/ कहीं नहीं ईमान धरम/ लाज रही ना रही शरम/ थामे हुए तिरंगे हम/ बोलो बम बोलो बम
अपना दुखड़ा, अपना गम/ कोई आंख न होगी नम/ कौन सुने दुख का सरगम/ दुख के साथी होते कम/ टूटी डोर तिलंगे हम/ बोलो बम बोलो बम।
यहां ध्यान देने की बात यह भी है कि उन लोकोक्तियों, मुहावरों का प्रयोग काव्य पंक्तियों या टेक के लिए करते थे जिसका इस्तेमाल आम जनता अपनी बातचीत में करती थी जैसे बोलो बम।
एक गीत में उन्होंने भज लो राम, भजा लो राम का प्रयोग किया था – मुजरिम सुबह, जुर्म है शाम/ मत लो उजियाले का नाम/ दिन चढ़ते ही कत्लेआम/ सूरज के सिर पर इल्जाम/ मारे गए मुफ्त गुलफाम/ भज लो राम भजा लो राम/ रोटी पर भूखे का नाम/ लिखती सुबह मिटाती शाम/ रोटी तो होती नीलाम/ भूख चबाती भूखा चाम/ रोटी चाबुक भूख गुलाम/ भज लो राम, भजा लो राम/ अश्वमेघ है आठो याम/ घोड़े छूटे हुए तमाम/ कोई दक्षिण कोई वाम/ जाने क्या होगा हे राम/ हम हैं थामे हुए लगाम/ भज लो राम भचा लो राम।
लंबी लड़ाई के बाद कांग्रेस शासन का अंत हुआ और जनता पार्टी की सरकार बनी। जनता को उम्मीदें जगी लेकिन अंतर्विरोधों के कारण यह सरकार अपना कार्यकाल पूरा न कर सकी। दरअसल यह सरकार अलग-थलग विचार-धारा वाली पार्टियों के सहयोग से बनी थी जिसमें काफी संख्या कुर्सी से चिपके रहने वाले नेताओं की थी।
जनता के साथ-साथ इस परिवर्तन के लिए संघर्ष करने वाले लोग बहुत निराश हुए। गोपीवल्लभ एक बार फिर जनता के बीच पहुंच गए , इस संदेश के साथ कि किसी भी पार्टी के अवसरवादी नेताओं को वोट न दें। सीधा कटाक्ष करते हुए लिखा –
खाई जिसने कसम/ देखो वही बेशर्म/ कुर्सी के लिए/ भूल गया अपना धर्म/ ऊंचे-ऊंचे बोल बोल के/ गिरे जो धमाधम/ ऐसे नेता को न वोट देंगे/ अब कभी हम।
इस कविता में उन्होंने बिहार के ग्रामीण इलाकों में उधम चौकड़ी मचाते हुए गिरने वाले लोगों के लिए प्रचलित धमाधम शब्द का प्रयोग किया। दरअसल यह शब्द धम और अधम के मिलने से बना है। धम यानी जोर से आवाज करते हुए गिरना और अधम यानी नीच। तात्पर्य यह किनीच लोग बहुत जोर से आवाज करते हुए गिरे। नेताओं पर यह उनका करारा प्रहार था। वे यहीं नहीं रुके। चुनाव के दौरान जाति, धर्म, संप्रदाय के नाम पर लोगों को बांटने की कोशिश करने वाले नेताओं के संबंध में उन्होने लिखा –
कहीं जोड़ो कहीं तोड़ो/ कहीं बांध हो कहीं मोड़ो/ तुम्हारे हाथ की कठपुतलियां हैं और क्या है हम।
इसी गीत में निराश साथी रचनाकारों को संबोधित करते हुए उन्होंने लिखा – लिखो, लिखकर बचा लो/ रक्त अपना हाशिए पर ही/ लहू की धार में बस रेतिया हैं/ और क्या हैं हम?
गोपी भल्ला जी का व्यक्तिगत जीवन सुखद नहीं था एक बेटी की जन्म के तुरंत बाद उनकी पत्नी का निधन हो गया था जिनकी याद में उन्होने कई मार्मिक गीत लिखे थे। एक गीत की आरंभिक पंक्तियां थीं – गीत दो लिखे मैंने/ जन्म के मरण के/ एक तुम न सुन सकी/ एक मैं न गा सका। एक दूसरे गीत में वे लिखते हैं – दरवाजे पर दीप जलाकर/ आंगन में तूफान दे दिया। एक अन्य गीत की पंक्तियां है – रात गढ़ी मूरत जो भिनसहरे खो गई/ सुबह-सुबह दर्पण से कहा-सुनी हो गई।
गोपीवल्लभ कविता लिखने को ही पर्याप्त नहीं मानते थे, उसे अधिक-से-अधिक लोगों तक पहुंचाना उनका मकसद होता था। दुरूहता उन्हें कभी पसंद नहीं थी। अपनी एक गजल में वे लिखते भी हैं – साफगोई गजल की किस्मत है/ हाय, कब होगा ये इलम तुमको।
गोपीवल्लभ की पहली कविता 1950 में पटना के स्थानीय अखबार आर्यावर्त में प्रकाशित हुई थी। उसके बाद 1953 में उनके दो नवगीत धर्मयुग में प्रकाशित हुए और फिर नियमित प्रकाशन का सिलसिला चल पडा था। इसके बावजूद काव्य-संग्रह के प्रकाशन के प्रति वे काफी उदासीन रहे। यही कारण है कि उनके जीवन-काल में उनका केवल एक काव्य-संग्रह -बंजर में बीज- प्रकाशित हुआ था जो अब अनुपलब्ध था। पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित उनकी कविताएं यहां-वहां बिखरी हुई थी। उनके निधन के लगभग 18वर्षों के बाद उनकी बेटी महिमाजी ने अपने पति अनूपजी के साथ उन्हें संकलित कर दो खंडो में – बोल जवानों हल्ला बोल और कृष्णा कै नाम से प्रकाशित करवाया है। बोल जवानों हल्ला बोल में आंदोलन के दौरान लिखी गई कविताएं संकलित हैं और कृष्णा में उनके अन्य गीत। कृष्णा उनकी पत्नी का नाम था
जेपी आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभाने वाले आलोचक, प्रोफेसर रामवचन राय इन दिनों बिहार विधान परिषद के सदस्य हैं। गोपीवल्लभ को करीब से देखा-जाना है, उनकी रचना-कर्म के साक्षी रहे हैं, बंजर में बीज का बलर्व भी लिखा था। उन्होंने इन दोनों काव्य-संग्रहों का विमोचन बिहार विधान परिषद के सभागार में अध्यक्ष अवधेश नारायण सिंह, जिनका बचपन अमर कथाकार राजा राधिकारमन प्साद सिंह के सानिध्य में गुजरा है, द्वारा करवाने की व्यवस्था करवाई। इस कार्यक्रम मैं गोपीवल्लभ को जानने वाले लगभग सभी लोग पहुंचे। उनके व्यक्तित्व और कृतित्व पर अवधेश नारायण सिंह, रामवचन राय, गोपीवल्लभ के साथ मंच साझा करने वाले कवि सत्यनारायण, भगवती प्रसाद द्विवेदी, अनिल विभाकर, शिवदयाल, कंचनबाला और मैंने अपने विचार व्यक्त किए।
कल बिहार विधान परिषद ई- विधान लागू करने वाला देश का पहला राज्य बना। इस अवसर पर पूरी तरह सजे-धजे परिवेश में लगभग गुमनामी में जा चुके एक कवि को याद करना आश्वस्ति देता है। गोपीवल्लभ के शब्दों में कहें तो शब्द ऐसे सजें/ चुप्पियां भी बजें।