झारखंड की राजधानी रांची से करीब 80 किलोमीटर दूर रजरप्पा स्थित छिन्नमस्तिका मंदिर शक्तिपीठ के रूप में काफी विख्यात है. यहां भक्त बिना सिर वाली देवी मां की पूजा करते हैं और मानते हैं कि मां उन भक्तों की सारी मनोकामनाएं पूरी करती हैं. रजरप्पा के भैरवी-भेड़ा और दामोदर नदी के संगम पर स्थित मां छिन्नमस्तिके मंदिर आस्था की धरोहर है. असम के कामाख्या मंदिर के बाद दुनिया के दूसरे सबसे बड़े शक्तिपीठ के रूप में विख्यात मां छिन्नमस्तिके मंदिर काफी लोकप्रिय है.
रजरप्पा का यह सिद्धपीठ केवल एक मंदिर के लिए ही विख्यात नहीं है. छिन्नमस्तिके मंदिर के अलावा यहां महाकाली मंदिर, सूर्य मंदिर, दस महाविद्या मंदिर, बाबाधाम मंदिर, बजरंग बली मंदिर, शंकर मंदिर और विराट रूप मंदिर के नाम से कुल 7 मंदिर हैं. पश्चिम दिशा से दामोदर तथा दक्षिण दिशा से कल-कल करती भैरवी नदी का दामोदर में मिलना मंदिर की खूबसूरती में चार चांद लगा देता है. मंदिर की उत्तरी दीवार के साथ रखे एक शिलाखंड पर दक्षिण की ओर मुख किए माता छिन्नमस्तिके का दिव्य रूप अंकित है.
वैसे तो यहां साल भर श्रद्धालुओं की भीड़ लगी रहती है, लेकिन शारदीय नवरात्रि और चैत्र नवरात्रि के समय भक्तों की संख्या बढ़ जाती है. मंदिर में प्रातःकाल 4 बजे माता का दरबार सजना शुरू होता है. मंदिर में बड़े पैमाने पर विवाह भी संपन्न कराए जाते हैं. भक्तों की भीड़ भी सुबह से पंक्तिबद्ध खड़ी रहती है, खासकर शादी-विवाह, मुंडन-उपनयन के लगन और दशहरे के मौके पर भक्तों की 3-4 किलोमीटर लंबी लाइन लग जाती है. आमतौर पर लोग यहां सुबह आते हैं और दिनभर पूजा-पाठ और मंदिरों के दर्शन करने के बाद शाम होने से पूर्व ही लौट जाते हैं. ठहरने की अच्छी सुविधा यहां अभी उपलब्ध नहीं हो पाई है.
मंदिर के निर्माण काल के बारे में पुरातात्विक विशेषज्ञों में मतभेद है. कई विशेषज्ञ का कहना है कि इस मंदिर का निर्माण 6000 वर्ष पहले हुआ था और कई इसे महाभारतकालीन का मंदिर बताते हैं. मां छिन्नमस्तिके की महिमा की कई पुरानी कथाएं प्रचलित हैं. प्राचीनकाल में छोटा नागपुर में रज नामक एक राजा राज करते थे. राजा की पत्नी का नाम रूपमा था. इन्हीं दोनों के नाम से इस स्थान का नाम रजरूपमा पड़ा, जो बाद में रजरप्पा हो गया.
एक कथा के अनुसार एक बार पूर्णिमा की रात में शिकार की खोज में राजा दामोदर और भैरवी नदी के संगम स्थल पर पहुंचे. रात्रि विश्राम के दौरान राजा ने स्वप्न में लाल वस्त्र धारण किए तेज मुख मंडल वाली एक कन्या देखी. उसने राजा से कहा- हे राजन, इस आयु में संतान न होने से तेरा जीवन सूना लग रहा है. मेरी आज्ञा मानोगे तो रानी की गोद भर जाएगी. राजा की आंखें खुलीं तो वे इधर-उधर भटकने लगे. इस बीच उनकी आंखें स्वप्न में दिखी कन्या से जा मिलीं. वह कन्या जल के भीतर से राजा के सामने प्रकट हुई. उसका रूप अलौकिक था. यह देख राजा भयभीत हो उठे. वह कन्या कहने लगी- हे राजन, मैं छिन्नमस्तिके देवी हूं. कलियुग के मनुष्य मुझे नहीं जान सके हैं जबकि मैं इस वन में प्राचीनकाल से गुप्त रूप से निवास कर रही हूं. मैं तुम्हें वरदान देती हूं कि आज से ठीक नौवें महीने तुम्हें पुत्र की प्राप्ति होगी. देवी बोली- हे राजन, मिलन स्थल के समीप तुम्हें मेरा एक मंदिर दिखाई देगा. इस मंदिर के अंदर शिलाखंड पर मेरी प्रतिमा अंकित दिखेगी. तुम सुबह मेरी पूजा कर बलि चढ़ाओ. ऐसा कहकर छिन्नमस्तिके अंतर्ध्यान हो गईं. इसके बाद से ही यह पवित्र तीर्थ रजरप्पा के रूप में विख्यात हो गया.
जनश्रुतियों और कथा के मुताबिक कहा जाता है कि एक बार मां भवानी अपनी दो सहेलियों के साथ मंदाकिनी नदी में स्नान करने आई थीं. स्नान करने के बाद सहेलियों को इतनी तेज भूख लगी कि भूख से बेहाल उनका रंग काला पड़ने लगा. उन्होंने माता से भोजन मांगा. माता ने थोड़ा सब्र करने के लिए कहा, लेकिन वे भूख से तड़पने लगीं. सहेलियों के विनम्र आग्रह के बाद मां भवानी ने खड्ग से अपना सिर काट दिया, कटा हुआ सिर उनके बाएं हाथ में आ गिरा और खून की तीन धाराएं बह निकलीं. सिर से निकली दो धाराओं को उन्होंने उन दोनों की ओर बहा दिया. बाकी को खुद पीने लगीं. तभी से मां के इस रूप को छिन्नमस्तिका नाम से पूजा जाने लगा.
मंदिर का मुख्य द्वार पूरबमुखी है. मां छिन्नमस्तिके मंदिर के अंदर स्थित शिलाखंड में मां की 3 आंखें हैं. बायां पांव आगे की ओर बढ़ाए हुए वे कमल पुष्प पर खड़ी हैं. पांव के नीचे विपरीत रति मुद्रा में कामदेव और रति शयनावस्था में हैं. मां छिन्नमस्तिके का गला सर्पमाला तथा मुंडमाल से सुशोभित है. बिखरे और खुले केश, जिह्वा बाहर, आभूषणों से सुसज्जित मां नग्नावस्था में दिव्य रूप में हैं. दाएं हाथ में तलवार तथा बाएं हाथ में अपना ही कटा मस्तक है. इनके अगल-बगल डाकिनी और शाकिनी खड़ी हैं जिन्हें वे रक्तपान करा रही हैं और स्वयं भी रक्तपान कर रही हैं. इनके गले से रक्त की 3 धाराएं बह रही हैं। मंदिर के सामने बलि का स्थान है. बलि स्थान पर प्रतिदिन औसतन 100-200 बकरों की बलि चढ़ाई जाती है.
दामोदर और भैरवी नदी का संगम स्थल भी अत्यंत मनोहारी है. भैरवी नदी स्त्री नदी मानी जाती है जबकि दामोदर पुरुष. संगम स्थल पर भैरवी नदी ऊपर से नीचे की ओर दामोदर नदी के ऊपर गिरती है. कहा जाता है कि जहां भैरवी नदी दामोदर में गिरकर मिलती है उस स्थल की गहराई अब तक किसी को पता नहीं है. दामोदर के द्वार पर एक सीढ़ी है। इसका निर्माण 22 मई 1972 को संपन्न हुआ था. इसे तांत्रिक घाट कहा जाता है, जो 20 फुट चौड़ा तथा 208 फुट लंबा है। यहां से भक्त दामोदर में स्नान कर मंदिर में जा सकते हैं। रजरप्पा जंगलों से घिरा हुआ है, इसलिए एकांत वास में साधक तंत्र-मंत्र की सिद्धि प्राप्ति में जुटे रहते हैं. नवरात्रि के मौके पर असम, पश्चिम बंगाल, बिहार, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश समेत कई प्रदेशों से साधक यहां जुटते हैं.रजरप्पा के स्वरूप में अब बहुत परिवर्तन आ चुका है। तीर्थस्थल के अलावा यह पर्यटन स्थल के रूप में भी विकसित हो चुका है. आदिवासियों के लिए यह त्रिवेणी है। मकर संक्रांति के मौके पर लाखों श्रद्धालु आदिवासी और भक्तजन यहां स्नान व चौडाल प्रवाहित करने तथा चरण स्पर्श के लिए आते हैं. अब यह पर्यटन स्थल का मुख्य केंद्र है. मां छिन्नमस्तिके मंदिर के निकट ठहरने के लिए उत्तम व्यवस्था है. मंदिर तक जाने के लिए पक्की सड़क है. यह पर्यटन स्थल का मुख्य केंद्र है। सुबह से शाम तक मंदिर पहुंचने के लिए बस, टैक्सियां एवं ट्रैकर उपलब्ध हैं.