वक्त कराता है सदा, सब रिश्तों का बोध।
पर्दा उठता झूठ का, होता सच पर शोध।।
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लौटा बरसों बाद मैं, उस बचपन के गांव।
नहीं बची थी अब जहां, बूढ़ी पीपल छांव।।
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मूक हुई किलकारियां, गुम बच्चों की रेल।
गूगल में अब खो गये, बचपन के सब खेल।।
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धूल आजकल फांकता, दादी का संदूक।
बच्चों को अच्छी लगे, अब घर में बंदूक।।
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स्याही, कलम, दवात से, सजने थे जो हाथ।
कूड़ा-करकट बीनते, नाप रहे फुटपाथ।।
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चीरहरण को देखकर, दरबारी सब मौन।
प्रश्न करे अँधराज से, विदुर बने अब कौन।।
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सूनी बगिया देखकर, तितली है खामोश।
जुगनू की बारात से, गायब है अब जोश।।
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—-सत्यवान ‘सौरभ’