भारतीय सेना की तरह पुलिस पर भरोसा क्यों नहीं है ?

देश भर में हम आये दिन पुलिस द्वारा हिरासत में लिये गए लोगों की मृत्यु और यातना की घटनाों को सुनते हैं जिसके फलस्वरूप पुलिस की छवि पर दाग लगते है। यही नहीं अपराधी प्रवृति के लोगों में पुलिस के प्रति क्रूरता जन्म लेती है।
उत्तर प्रदेश और हरियाणा में अभी-अभी पुलिस वालों के साथ हुई मुठभेड़ और पुलिस वालों का इस तरह शहीद होना भारत की विघटित होती आपराधिकयिक प्रणाली की ओर इशारा करते हुए देश में पुलिस सुधार की आवश्यकता को उजागर करता है।
देश में अधिकांशतः राज्यों में पुलिस की छवि तानाशाहीपूर्ण, जनता के साथ मित्रवत न होना और अपने अधिकारों का दुरुपयोग करने की रही है।
पुलिस व्यवस्था में सुधार के साथ ही न्यायिक प्रक्रियाओं के उचित उपयोग का मुद्दा भी महत्त्वपूर्ण है

रोज़ ऐसे अनेक किस्से सुनने-पढ़ने और देखने को मिलते हैं, जिनमें पुलिस द्वारा अपने अधिकारों का दुरुपयोग किया जाता है। पुलिस का नाम लेते ही प्रताड़ना, क्रूरता, अमानवीय व्यवहार, रौब, उगाही, रिश्वत आदि जैसे शब्द दिमाग में कौंध जाते हैं।

 देश भर में आज पुलिस व्यवस्था में सुधार के साथ ही न्यायिक प्रक्रियाओं के उचित उपयोग का मुद्दा भी महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि प्रायः यह देखा जाता है कि रिमांड के संदर्भ में याचिका स्वीकार करते हुए न्यायिक दंडाधिकारी  उसकी प्रासंगिकता पर विचार नहीं करते हैं और वे पुलिस के प्रभाव से प्रभावित होते हैं।
भारत की अपनी पुलिस प्रणाली में सुधार की आवश्यकता को पूरा करने का संदेश दिया है।
नस्लवाद और पुलिस की बर्बरता के खिलाफ अमेरिका में हुए विरोध प्रदर्शन ने भारत की अपनी पुलिस प्रणाली में सुधार की आवश्यकता को पूरा करने का संदेश दिया है।  यही कारण है कि भारत के उपराष्ट्रपति एम वेंकैया नायडू ने पुलिसिंग और पुलिस स्टेशन के लोगों को केंद्रित और समाज के प्रति नरमी बरतने  की आवश्यकता पर जोर दिया है।
स्मार्ट पुलिसिंग पर एक राष्ट्रीय संगोष्ठी को संबोधित करते हुए, उन्होंने जांच और सुरक्षा और सुरक्षा प्रबंधन में आईटी क्षमता के ज्यादा से ज्यादा उपयोग करने का सुझाव दिया। उपराष्ट्रपति नायडू ने सर्वोच्च न्यायालय द्वारा सुझाए गए अनुसार कर्मियों की कमी, आधुनिक हथियार,परिवहन और संचार सुविधाओं में सुधार और पुलिस सुधार के अन्य पहलुओं पर भी जोर दिया।
राजनीतिज्ञों और पुलिस के रिश्तों में अलग-अलग गठजोड़ देखने को मिलते है
पुलिस राज्य सूची का विषय है, इसलिये भारत के प्रत्येक राज्य के पास अपना एक पुलिस बल है। राज्यों की सहायता के लिये केंद्र को भी पुलिस बलों के रखरखाव की अनुमति दी गई है ताकि कानून और व्यवस्था की स्थिति सुनिश्चित की जा सके। मगर राज्य सरकारों का पुलिस पर एकाधिकार -सा रहता है।

जिसके चलते देश भर में पुलिसिंग में एकरूपता नहीं आ पाती ।  यह भी देखा गया है कि नियमों और कानूनों के सख्ती के पालन कि वजह से अपराधी किसी एक राज्य विशेष कि पुलिस से बहुत डरते है और कुछ राज्यों की पुलिस से उनको रत्तीभर भी खौफ नहीं होता।  हमारी पुलिस अभी भी अपनी वफादारी और पेशेवर क्षमताओं के संबंध में पारंपरिक ब्रिटिश राज मानसिकता की चपेट में है। सभी राज्यों के अपने कानून हैं, राजनीतिज्ञों और पुलिस के रिश्तों में अलग-अलग गठजोड़ देखने को मिलते है जिससे एक राज्य की पुलिस दूसरे राज्य की पुलिस से पूरा सहयोग नहीं कर पाती तभी तो अपराधी हाथ नहीं लग पाते।

पुलिस बलों में 30% रिक्तियां अभी भी मौजूद हैं जो सबसे बड़ी समस्या है। जिसके कारण पुलिस दबाव में काम करती है, भारत में (2017 में) प्रति 1,00,000 लोगों पर 131 पुलिस अधिकारी थे; जबकि स्वीकृत संख्या (181) और संयुक्त राष्ट्र से अनुशंसित संख्या (222) है, जो अंतरराष्ट्रीय स्तर की आधी है। पुलिस में रिक्तियों की धीमी गति से भरना कठिन स्थिति को बढ़ाता है।

जनवरी 2020 तक पुलिस बलों में 5 लाख से अधिक रिक्तियां मौजूद हैं। विकसित देशों की तुलना में उन्हें बहुत कम भुगतान किया जाता है और काम ज्यादा लिया जाता है, जो भ्रष्ट आचरण को बढ़ावा देता है। यही कारण है आमतौर पर भ्रष्ट पुलिस वाले नेताओं को निहारते हैं और उनके दबाव में पूर्वाग्रहों को छिपाए रखते हैं। जो उनके प्रदर्शन को अनुचित बनाते हैं।

पुलिस दुर्व्यवहार पर अज्ञात गिरफ्तारियां, गैरकानूनी खोजें, अत्याचार और हिरासत में बलात्कार जैसे आरोप उसकी छवि को मिटटी में मिला देते हैं। लोग पुलिस के साथ बातचीत को आमतौर पर निराशाजनक, समय ख़राब करने वाली और जेब काटने वाली मानते है, लोग भारतीय पुलिस को अपनी सुरक्षा न मानकर एक डंडा भर ही समझते है और उनसे बचने के तरीके ढूंढते है न क़ि पुलिस क़ि सहायता से समाधान।

 इनके पीछे विभागीय कमियां भी है, 86% पुलिस बल कांस्टेबल हैं, जिनके सेवानिवृत्त होने से पहले एक पदोन्नति (हेड कांस्टेबल) के अलावा कुछ नहीं है। बार-बार स्थानांतरण से पुलिस की कार्रवाइयों की जवाबदेही कमजोर होती है और दीर्घकालिक सुधारों को लागू करने में असमर्थता होती है, साथ ही यह उन्हें भ्रष्ट रास्ते अपनाने के लिए प्रेरित करता है और पुलिस की विश्वसनीयता को कम करता है। राज्य सरकारें कई बार पुलिस प्रशासन का दुरुपयोग भी करती हैं। कभी अपने राजनीतिक विरोधियों से निपटने के लिये तो कभी अपनी किसी नाकामी को छिपाने के लिये। यही मुख्य कारण है कि राज्य सरकारें पुलिस सुधार के लिये तैयार नहीं हैं।  एक अध्ययन में पाया गया कि  भारतीय पुलिस क़ि अपेक्षा लोग भारतीय सेना पर अत्यधिक भरोसा करते हैं।

भारत के अधिकांश राज्यों ने अपने पुलिस संबंधी कानून ब्रिटिश काल के पुलिस अधिनियम, 1861 के आधार पर बनाए हैं, जिसके कारण ये सभी कानून भारत की मौजूदा लोकतांत्रिक व्यवस्था के अनुरूप नहीं है। जैसा कि भारत एक आर्थिक और राजनीतिक महाशक्ति बनने की दिशा में तेजी से प्रगति कर रहा है, हमारी पुलिस पिछले युग के फ्रेम में जमे नहीं रह सकती है।

वर्तमान और उभरती चुनौतियों से निपटने के लिए हमारी पुलिस को तैयार करने के लिए आपराधिक न्याय प्रणाली और हमारे जमीनी स्तर के पुलिस संस्थानों को मजबूत करने की तत्काल आवश्यकता है; महिलाओं की 33 प्रतिशत भागीदारी के अलावा पुलिस की निरंकुशता की जाँच के लिये विभाग बनाने पर भी चर्चा की जानी चाहिए।

पुलिस सुधारों को राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी के कारण लागू नहीं किया जाता है, इसलिए पुलिस कदाचार की शिकायतों की जांच करने के लिए एक स्वतंत्र शिकायत प्राधिकरण केंद्र स्तर पर होने की आवश्यकता है।  देश भर में एक जैसी वेतन वृद्धि करना ताकि उनके बुनियादी ढांचे को बेहतर बनाया जा सके। जो उन्हें भ्रष्टाचार के लिए प्रोत्साहन को कम करें,पुलिस सुधार में अहम हो सकता है पुलिस व्यवस्था को आज नई दिशा, नई सोच और नए आयाम की आवश्यकता है।

पुलिस को नागरिक स्वतंत्रता, मानव अधिकारों के प्रति जागरूक,समाज के सताए वंचित वर्ग के लोगों के प्रति संवेदनशील बनने की जरूरत है । देखने में आता है कि पुलिस प्रभावशाली व पैसे वाले लोगों के प्रति नरम तथा आम जनता के प्रति सख्त रवैया अपनाती है, जिससे जनता का सहयोग प्राप्त करना उसके लिये मुश्किल हो जाता है।

सदी बदल चुकी है, देश का सामाजिक परिवेश पूरी तरह बदल चुका है। आज हमें  पीपुल्स पुलिस चाहिए। ऐसी पुलिस जो सख्त और संवेदनशील हो, आधुनिक और मोबाइल, सतर्क और जवाबदेह, विश्वसनीय और जिम्मेदार, तकनीक-प्रेमी और प्रशिक्षित हो।

मगर हमें भी समझना होगा कि पुलिस नागरिकों की मित्र है और बिना उनके सहयोग से कानून व्यवस्था का पालन नहीं किया जा सकता।  हम मूक दर्शक बने रहकर या प्रशासन पर टीका टिपण्णी कर या कैंडल लाइट मार्च निकालकर या सोशल साइट्स पर अपना विचार व्यक्त करने भर से पुलिस सुधार नहीं कर सकते। हर नागरिक को अब इस बात के लिये दबाव डालना चाहिये कि देश भर में राजनीतिक दल अपने चुनावी घोषणा पत्रों में पुलिस सुधार को एक अनिवार्य मुद्दे के रूप में शामिल करें।

—प्रियंका सौरभ

रिसर्च स्कॉलर इन पोलिटिकल साइंस,
कवयित्री, स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार,
फीचर तस्वीर- “चित्रांकन : अंजलि सुभाष एवं शिवम् सुरेश”
 
(आलेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं) 

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