आजादी के बाद नयी लोकतांत्रिक सरकार के गठन के साथ ही भारत की राजनीति विभिन्न प्रकार के जातिय संगठनों एवं विभिन्न जातियों के कथित प्रतिनिधियों द्वारा प्रभावित की जाने लगी।
ये संगठन एवं विभिन्न जातियों के तथाकथित प्रतिनिधि अपनी – अपनी जातियों को गोलबंद करके राजनीतिक पार्टियों के समक्ष अपनी जाति के संगठित वोट का दम दिखाकर चुनाव में टिकट प्राप्त करने लगे एवं अपने अन्य हितों को साधने लगे।
राजनीतिक दल भी अपनी वोट बैंक की राजनीति के तहत इन जातिय संगठनों एवं उनके प्रतिनिधियों को रिझाने के लिए उनकी मांगों को पूरी करने की होड़ में लग गये। इसप्रकार राजनीतिक दलों एवं जातिय संगठनों के बीच एक गठजोड़ बन गया जो बाद के दिनों में और भी मजबूत होता गया।
जातिय संगठनों की स्थापना तो जातियों के विकास को लक्ष्य बना कर करने की बात कही जाती रही है परन्तु ये जातियों के विकास का ज़रिया न बनकर उनके प्रतिनिधियों के विकास की ज़रिया बन कर रह गई हैं।
राजनीतिक दलों को अपनी मांगों की सूची थमा कर वोट के सौदे किये जाने लगे। ये संगठन चुनाव के समय ही ज्यादा सक्रिय नज़र आते हैं लेकिन चुनाव के बाद इनकी सक्रियता नगण्य हो जाती है।
चुनाव आते ही ये अपनी जाति से जुड़े मुद्दे को उठाने लगते हैं और राजनीतिक दलों से ज्यादा से ज्यादा सीटों पर अपनी जाति के उम्मीदवार को टिकट देने की मांग करने लगते हैं। कुछ जातिय संगठन तो यहाँ तक एलान कर देते हैं कि जो पार्टी ज्यादा सीटों पर उनकी जाति के उम्मीदवारों को टिकट देगी, उनकी जाति उसी पार्टी को वोट देगी।
इन संगठनों के द्वारा वोट के दावे ऐसे किये जाते हैं मानो किसी एक जाति का हर एक व्यक्ति संगठन की इच्छा को ध्यान में रख कर ही वोट करता हो। राजनीतिक पार्टियां अपने वोट बैंक के हिसाब से अलग अलग जातियों के वोट हासिल करने के लिए इन्हें साधने में लगी रहती हैं।
दुष्परिणाम- सामाजिक और विकास से जुड़े मुद्दे गौण
इसका दुष्परिणाम यह होता है कि पूरी राजनीति जाति तक सिमट कर रह जाती है औरसामाजिक और विकास से जुड़े मुद्दे गौण हो जाते हैं। राजनीतिक दल योग्य उम्मीदवारों के बदले जातिय वोट की ऊँची बोली लगाने वाले उम्मीदवार को टिकट देने लगते हैं।
ऐसे उम्मीदवार जब चुनाव जीत कर जनप्रतिनिधि बन जाते हैं तो न अपनी जाति का और न ही समाज का विकास कर पाते हैं लेकिन समय समय पर ऐसे प्रयास जरूर करते रहते हैं जिससे कि समाज में जातिय एवं साम्प्रदायिक दूरी बनी रहे और आपसी तनातनि बरकरार रहे क्योंकि इनकी राजनीति का यही अधार होता है। उन्हें अपनी राजनीतिक हितो की रक्षा के लिए विकसित और संगठित समाज की नहीं बल्कि अविकसित और विभक्त समाज की जरूरत होती है। अतः वे ऐसे ही समाज का निर्माण करना उचित समझते हैं।
चार वर्षों तक पटल से गायब रहने वाले ये जातिय संगठन चुनावी वर्ष में बरसाती मेंढकों की भाँति उभर आते हैं और चुनाव की समाप्ति के उपरांत विलुप्ति हो जाते हैं। चुनावी वर्ष में भी ये संगठन अपनी जाति के लोगों की सुधि न लेकर सिर्फ राजनीतिक बयान देते रहते हैं और अपनी पूरी ताकत अपनी जाति के अपने पसंदीदा उम्मीदवार की उम्मीदवारी पक्की करने के लिए राजनीतिक दलों पर जातिय दबाव बनाने मे लगा देते हैं।
इन संगठनों के संचालक अपनी जाति के उसी उम्मीदवार का समर्थन करते हैं जो उनके निजी हितों की पूर्ति करने में सक्षम हो पाता है। उन्हें अपनी जाति के हितों की कोई चिन्ता नहीं होती । उनकी जाति या समाज का शोषण करने वाला भी कोई व्यक्ति यदि उनकी निजी हितों की पूर्ति करने में समर्थवान होता है तो संगठन संचालक उसकी उम्मीदवारी का समर्थन कर देते हैं।
जाति के प्रभाव का ज्यादा उदाहरण बिहार, उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में मिलता है
कभी- कभी संचालकों के बीच उम्मीदवारों के चयन को लेकर संघर्ष भी होते रहते हैं। राजनीति में जाति के प्रभाव का ज्यादा उदाहरण बिहार, उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में देखने को मिलता है। चुनावी वर्ष में बिहार की राजधानी पटना के गाँधी मैदान में बड़ी बड़ी जातिय रैलियां आयोजित की जाती रही हैं। इस वर्ष बिहार में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं लेकिन कोरोना संक्रमण की रोकथाम के लिए रैलियां प्रतिबन्धित हैं ।
इसलिए इस चुनाव में गाँधी मैदान भी चैन की सांसे ले रहा है। इन जातिय रैलियों के माध्यम से राजनीतिक दलों पर अधिक से अधिक संख्या में जाति विशेष के लोगों को टिकट देने के लिए दबाव बनाया जाता रहा है।
इन सब प्रक्रियाओं के कारण योग्य और कर्मठ उम्मीदवारों का चयन नहीं हो पाता है और अन्ततः अयोग्य एवं स्वार्थी व्यक्ति राजनीतिक दलों से टिकट प्राप्त कर सत्ता का हिस्सा बन जाता है जो समाज एवं जनता की सेवा करने के बजाय उनका शोषण कर अपने स्वार्थ साधना में लगा रहता है।
हमारे संविधान के अनुच्छेद – 14 के अनुसार किसी भी व्यक्ति के साथ जाति, धर्म या लिंग के आधार पर किसी प्रकार का भेद – भाव नहीं किया जा सकता है पर राजनीतिक दल उम्मीदवारों की जाति, वर्ग और धर्म के आधार पर ही चुनाव में टिकट का वितरण करते हैं । संविधान के नये नियम बनाने एवं संशोधन करने में भूमिका निभाने के लिए चुने जाने वाले इन उम्मीदवारों के चयन प्रक्रिया के प्रथम चरण में ही संविधान के नियम तोड़ दिये जाते हैं।
इस व्यवस्था में सुधार के लिए किसी भी प्रयास की उम्मीद राजनीतिक पार्टियों से नहीं की जा सकती है क्योंकि राजनीतिक पार्टियां अपने वोट बैंक के साथ कभी भी कोई समझौता नहीं कर सकती हैं। राजनीति में व्याप्त बुराइयों को दूर करने का सफल और सार्थक प्रयास सिर्फ जनता कर सकती है। यदि मतदाता अपनी वोट की चोट से ऐसे जातिय विचारधारा वाले उम्मीदवारों को नकार दे तो फिर राजनीति में जाति की भूमिका समाप्त हो जाएगी।
मतदाता यदि जाति और पार्टी से ऊपर उठकर योग्य उम्मीदवार को अपना बहुमूल्य वोट देकर अपना जन प्रतिनिधि चुने तो सारी समस्याओं का अन्त संभव हो सकेगा। मतदाता को यह समझना होगा कि चुनाव में सिर्फ उम्मीदवार को ही उनकी वोट की जरूरत नहीं है बल्कि उन्हें भी योग्य उम्मीदवार की जरूरत है। इसलिए अच्छे एवं योग्य व्यक्तियों को राजनीति में आने के लिए प्रेरित करने की जरूरत है ताकि भारतीय राजनीति से जाति के ज़हर को निकाला जा सके।