कमल की कलम से !
आज हम आपको एक ऐसे वीर योद्धा से मिलवाने के लिए चल रहे हैं जिनकी आज शहीदी दिवस मनाई जा रही है. बाबा बंदा सिंह बहादुर के बलिदान दिवस पर उनके चरणों में कोटि कोटि नमन करते हुए हम शुरू करते हैं उनकी कहानी.
सिख धर्म में एक से एक महान योद्धा हुए हैं. लेकिन मुगलों को कड़ी टक्कर देने वाले और अंतिम सांस तक मुगलों का डटकर मुकाबला करने वाले बहादुर, साहसी और निर्भीक सिख योद्धा बाबा बंदा सिंह बहादुर की वीरता का हर कोई कायल है. वो बंदा सिंह ही थे जिन्होंने मुग़लों के अजेय होने के भ्रम को तोड़ा. छोटी से उम्र में सन्यास की ओर जाना और फिर वापस सांसरिक जीवन में लौटने उनके जीवन की प्रमुख घटना में से एक थी. जिसने उन्हें एक महान योद्धा और काबिल नेता में तब्दील कर दिया था.
15 वर्ष की आयु में एक गर्भवती हिरणी के शिकार से उनके दिल पर गहरा असर हो गया. इसके बाद वह घर त्याग कर वैरागी बन गए और जानकीदास वैरागी के शिष्य बन गए. जानकीदास ने उनका नाम माधोदास रख दिया.
माधोदास घूमते हुए पंचवटी पहुंच गए. यहां उनकी मुलाकात ओघड़नाथ योगी से हुई, वह तांत्रिक विद्या के लिए प्रसिद्ध थे. माधोदास ने शिष्य बनकर ओघड़नाथ बाबा की सेवा की. ओघड़नाथ ने प्रसन्न होकर 1691 में अपना बहुमूल्य ग्रंथ माधोदास को दे दिया. ओघड़नाथ की मृत्यु के बाद माधोदास ने नांदेड़ के पास गोदावरी के किनारे अपना डेरा बना लिया.
कहानी एक राजपूत वीर की जिसने सिख साम्राज्य की पूर्ण स्थापना की……ये पहले पंजाब के ऐसे सेनापति थे जिन्होंने मुगलों के अजय होने का भ्रम को तोड़ दिया.
सन् 1670 के अक्टूबर में जन्मे बंदा सिंह बहादुर को ये नाम खालसा में शामिल होने के बाद मिला.हालाँकि गुरु गोविंद सिंह ने उनका नाम ‘गुरबख्श सिंह’ रखा था. सन् 1708 में गुरु गोविंद सिंह ने बंदा सिंह बहादुर के आश्रम जाकर उनसे मुलाकात की थी, जिसके बाद बंदा सिंह बहादुर उनके शिष्य बन गए. खालसा में आते-आते ही बंदा सिंह बहादुर ने पंजाब के पटियाला में स्थित मुगलों की प्रांतीय राजधानी समाना पर नियंत्रण स्थापित कर इस्लामी आक्रांताओं में हड़कंप मचा दिया.
यमुना और सतलज के प्रदेश को अपने अधिकार में लेकर लोहगढ़ का मजबूत किला बनवाया और सिक्ख राज्य की स्थापना की. खालसा के नाम से शासन करते हुए उन्होनें गुरु जी के नाम से सिक्के चलवाए. बन्दा सिंह का राज्य थोड़े दिन चला था कि बहादुरशाह प्रथम ने आक्रमण करके लोहगढ़ पर कब्जा कर लिया. उसकी मृत्यु तक बन्दा और उसके साथी अज्ञातवास में रहे. बाद में उन्होंने फिर अपना किला जीत लिया था किन्तु 1715 में मुगल सेना ने उस स्थान को घेर लिया जहाँ बन्दा और उनके साथी थे.
बाबा बंदा सिंह बहादुर और उनके साथियों की अंतिम दिनों की कहानी बेहद दर्दनाक है. मार्च 1715 में बंदा सिंह बहादुर अपने सिपाहियों के साथ गुरदास नंगल की गढ़ी में घिर गए. मुगलों ने गढ़ी में प्रवेश के सभी रास्ते, किले तक भोजन और पीने के पानी पर पूरी तरह से रोक लगा दी. मुगल सेना के लगभग 30 हजार सिपाहियों ने किले को चारों तरफ से घेर लिया था.
कई महीनों तक बंदा सिंह बहादुर और उनके साथी अपना पेट भरने के लिए गढ़ी में पैदा हुई घास और पेड़ों के पत्ते खाते रहे. इसके बावजूद बंदा सिंह बहादुर के वफादार सिपाहियों ने आठ महीनों तक मुगल फौजों का डटकर मुकाबला किया. 17 दिसंबर, 1715 को बंदा सिंह बहादुर समेत 740 सैनिकों को लोहे की जंजीरों में जकड़कर कैद कर लिया गया. इन्हें दिल्ली ले जाया जाना था, इससे पहले इन्हें जंजीरों में जकड़कर लाहौर ले जाया गया. वहां से बंदा सिंह बहादुर को जंजीरों में जकड़कर पिंजरे में बंद करके हाथी पर लाद दिया गया था. इन कैदियों को कत्ल करने का काम पांच मार्च 1716 को शुरू हुआ.
लाल किले के पास हर दिन करीब 100 सैनिकों का कत्लेआम किया जाता. बंदा सिंह बहादुर एवं उनके चार साल के बेटे का कत्ल कुतुबमीनार के पास किया गया लेकिन मारने से पहले बहुत यातनाएं दी गईं. मुगल बादशाह फर्रुखसियर बंदा बैरागी से इस्लाम धर्म कुबूल करने को कहता रहा, लेकिन उन्होंने हमेशा पूरी मजबूती के साथ इनकार किया. उन्हें कीलों वाले पहियों के बीच से निकाला गया, वो बेहोश हो गए. जब जागे तो बंदा सिंह बहादुर के 4 साल के बेटे अजय सिंह को उनकी गोद में डाल दिया गया और उसकी हत्या करने को कहा गया, लेकिन उन्होंने मना कर दिया. इसके बाद उनके सामने ही उनके 4 साल के बेटे को चाकू से टुकड़े टुकड़े में काटा गया और उसका दिल निकाल कर पिता बंदा सिंह बहादुर के मुँह में ठूँस दिया गया. पर वो स्थिर रहे. फिर कसाई वाले चाकू से बंदा सिंह बहादुर की दाईं आँख को निकाल लिया गया, उसके बाद बाईं आँख काट कर बाहर कर दी गई.
फिर उनके दाएँ पैर को काट कर अलग कर दिया गया. उसके बाद उनके दोनों हाथों को काट कर उनके शरीर से अलग कर दिया गया. फिर उनके शरीर से मांस निकाले जाने लगे. उसके बाद उन्हें टुकड़ों में काटा जाने लगा. लेकिन, वो टस से मस नहीं हुए और अपना बलिदान दे दिया, पर इस्लाम नहीं अपनाया.
पर किसी भी कीमत पर उन्होंने हार नहीं मानी और देश की खातिर अपना बलिदान दे दिया. उनके बाकी साथियों का भी यही हाल किया गया.
बताते चलें कि दिल्ली के मंडी हाउस मेट्रो स्टेशन के सामने बंदा सिंह की एक बड़ी प्रतिमा एक ऊँचे मचान पर बनाई गई है. इनके नाम से ही 5 किलोमीटर लंबा बारापुला सेतु का नाम बदलकर बंदा बहादुर सेतु रखा गया है जो एम्स के पास से शुरू होकर नोएडा लिंक तक जाता है. इनकी शहादत को याद करने के लिए महरौली में कुतुब मीनार के पास बाबा बंदा सिंह बहादुर के नाम से गुरुद्वारा भी है.
बाबा बंदा सिंह बहादुर जी के शहीदी दिवस पर इन्हें शत-शत नमन करता हूं.