बिहार की राजनीति में गत चुनाव में एक नयी बात देखने को मिली. इस चुनाव में युवाओं ने बिहार की राजनीति पर गहरा प्रभाव छोड़ा. बिहार चुनाव में सक्रिय युवा चेहरों में राजद से तेजस्वी यादव, लोजपा से चिराग पासवान, वीआईपी से मुकेश साहनी, प्लुरल्स से पुष्पम प्रिया चौधरी, कन्हैया कुमार समेत कई लोग प्रमुख थें.
हालाँकि इन में से कुछ हीं लोग अपना प्रभाव छोड़ने में सफल रहें. राजद के तेजस्वी यादव ने बगैर लालू प्रसाद और राबड़ी देवी के इस बार चुनाव मैदान में उतरने का जो रिस्क लिया था, वह बहुत हद तक इसमें कामयाब रहे. तेजस्वी यादव ने सिर्फ अपने बदौलत सोची समझी रणनीति के तहत बीजेपी-जेडीयू जैसे दलों को भी सोचने पर मजबूर कर दिया. राजद सत्ता से महज चंद क़दमों से दुर रह गयी. तेजस्वी यादव ने बहुत हीं परिपक्वता से इस चुनाव में मतदाताओं की नब्ज को पकड़ा. तेजस्वी की नौकरी वाली घोषणा ने सत्ता की नींद उड़ा दी. इसी का परिणाम रहा कि एनडीए को भी इस राह को पकड़ना पड़ गया.
तेजस्वी यादव बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री और राजद अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव के बेटे हैं. वे महागठबंधन के मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार भी थें. युवातुर्क तेजस्वी ने राजनीति के चाणक्य माने जाने वाले लालू की छत्रछाया में राजनीति की एबीसीडी सीखी. तेजस्वी ने चुनाव में कुछ अपवादों को छोड़ दिया जाये तो जाति-पाति से अलग अपना मुद्दा बनाया. यही कारण रहा कि विरोधियों के वोटों को तो बहुत नहीं रिझा सकें पर दिलों में जगह बनाने में सफल रहें.
यदि महागठबंधन सत्ता में आता तो निश्चित हीं तेजस्वी मुख्यमंत्री बनते. चुनावों के दौरान जनता यह समझ रही थी कि अगर तेजस्वी मुख्यमंत्री बनते हैं तो ऐसी सरकार का रिमोट कंट्रोल लालू प्रसाद के हाथ में होगा. इस बात को तेजस्वी भी अच्छी तरह से समझ रहे थें. इसी भ्रांति और भ्रम को तोड़ने के लिए तेजस्वी ने चुनाव में अपनी अलग छवि तैयार की. एक रणनीति के तहत उन्होंने लालू प्रसाद, राबड़ी देवी सहित तमाम पुराने नेताओं को दरकिनार कर चुनाव का नेतृत्व अपने हाथों में लिया. इस कारण उनकी काफी आलोचना भी हुई. पर सभी आलोचनाओं को नजरंदाज कर उन्होंने एनडीए गठबंधन को कड़ी टक्कर दी.
दुसरी ओर एनडीए की राह को और कठिन कर दिया लोजपा नेता चिराग पासवान ने. चिराग पासवान आम मतदाताओं के दिमाग में खुद को बीजेपी की बी टीम बताने में सफल हुए. इसका सीधा असर जेडीयू पर पड़ा. बीजेपी की कोर वोटर जो नीतीश कुमार के शासन के खिलाफ थें उनके वोट कट कर चिराग की झोली में चले गए.
चिराग पासवान को यह उम्मीद थी कि उन्हें उनके पिता रामविलास पासवान के निधन से मतदाताओं की सहानुभूति मिलेगी, पर इस सहानुभूति को वोटों में बहुत हद तक नहीं बदल सकें. हालाँकि उन्हें पता था कि चुनौतियाँ बहुत हैं और जीत की राह बहुत कठिन. बावजूद इसके नीतीश कुमार को हराने के अपने मकसद में कामयाब हो गए. वे किसी बड़े मोर्चे का चेहरा नहीं थें. इसके अलावा, उन्हें जाति विशेष की राजनीति की छवि को तोड़कर युवा नेता के रूप में अपने आप को स्थापित किया. यही कारण है कि खुद की पार्टी को बीजेपी की बी टीम बताने में सफल हो गए जो जेडीयू के लिए नुकसानदायक हो गया. चिराग पासवान के नेतृत्व में लोक जनशक्ति पार्टी नीतीश सरकार और जदयू का खुल कर विरोध करती आ रही है.
बिहार की राजनीति में बहुत कम समय में सत्ता तक पहुँचने वाले युवा बने मुकेश साहनी. मुकेश साहनी वर्तमान समय में सफल माने जा सकते हैं. ये अपनी मेहनत के साथ-साथ किस्मत के भरोसे भी सफल साबित हुए हैं. यदि इनके दल विकासशील इनसान पार्टी का महागठबंधन के साथ ताल-मेल नहीं टूटता तो शायद आज ये मंत्री की जगह विधायक भी नहीं रहते. ऐन चुनाव के वक़्त सीटों को लेकर हुए विवाद के बाद मुकेश साहनी महागठबंधन से अलग हो गए थें. मुकेश साहनी के अलग होते हीं भाजपा ने इन्हें लपक लिया. बीजेपी ने दूरदर्शिता दिखाते हुए अपने कोटे से 11 सीटें दीं हैं, क्योंकि इन्हें पता था कि मुकेश साहनी की पकड़ निषाद समुदाय पर है. फिलहाल बिहार सरकार में मंत्री मुकेश सहनी का मुंबई में बॉलीवुड में सेट डिजाइन करने का कारोबार है. निश्चित तौर पर मुकेश साहनी बिहार की राजनीति के उभरते सितारे बन सकते हैं.
युवाओं की सूची में एक और युवा नाम नवगठित प्लूरल्स पार्टी की राष्ट्रीय अध्यक्ष पुष्पम प्रिया चौधरी का उभरा. जदयू नेता की बेटी पुष्पम प्रिया ने पिछले साल नवंबर में हिंदी और अंग्रेजी अखबारों के पहले पन्ने पर फुल पेज विज्ञापन देकर खुद को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया था. हालांकि पुष्पम प्रिया इस चुनाव में अपनी छाप छोड़ना तो दूर खुद की सीट पर भी बुरी तरह से पीट गयीं. पुष्पम प्रिया की रणनीति सफल नहीं हो पाई. वे बिहार के मतदाताओं के नब्ज को पकड़ने विफल रहीं. सोशल मीडिया के ग्लैमर में तो वो छा गयी पर जमीन पर उनका जादू नहीं चल पाया.
दरभंगा से आने वाली पुष्पम प्रिया ने लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स और ससेक्स के इंस्टीट्यूट ऑफ डेवेलपमेंट स्टडीज से पढ़ाई की है. वे हमेशा से किसान अधिकारों की वकालत करती रही हैं. वे खुद को गांधीवादी विचारधारा का अनुयायी मानती हैं.
राष्ट्रीय स्तर पर अपनी छाप छोड़ेने वाले कन्हैया कुमार ने भी बिहार की राजनीति में अपनी पकड़ साबित करने की कोशिश की पर वो भी असफल हो गए. राज्य के एक खास वर्ग को सीपीआई के नेता कन्हैया कुमार से काफी उम्मीदे थी, पर उनका जलवा न तो लोकसभा चुनाव में चला और न हीं विधान सभा चुनाव. हालांकि कन्हैया कुमार के प्रशंसकों की कोई कमी नहीं है. कन्हैया कुमार छात्र राजनीति की उपज और मोदी सरकार के धुर विरोधी के रूप में देखे जाते हैं. युवा नेता कन्हैया कुमार बतौर नेता अपने को अभी तक स्थापित करने में असफल रहे हैं. हालांकि वे बहुत अच्छे वक्ता हैं. पर अब समय आ गया है कि उन्हें राजनीति में बने रहने के लिए खुद को वक्ता की जगह एक नेता के रूप में स्थापित करना होगा.
राजनीति के पंडितों के अनुसार, यह चुनाव साल 2025 की बिहार की राजनीति की नींव तैयार कर चूका है. इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि बिहार नए सियासी चेहरों की तलाश. इस चुनाव ने इस तलाश को भी पूरी कर दी है. नए युवाओं में कई चेहरे को मतदाताओं ने स्वीकार भी किया है. पुराने चेहरों में फिलवक्त लालू प्रसाद यादव जेल में हैं. राबड़ी देवी वाली राजनीति का दौर निकल चुका है. चुनाव के परिणाम को देखें तो स्पष्ट है कि शरद यादव, जीतन राम मांझी और पप्पू यादव जैसे नेताओं की राजनीतिक जमीन कमजोर हो चुकी है. युवा मतदाताओं के बीच उनका आकर्षण नहीं बचा है. वैसे पप्पू यादव येन-प्रकारेण अपनी उपस्थिति दर्ज करने का प्रयास करते रहते हैं, पर स्थायी मुद्दे और मुद्दे से भटकने के कारण उनकी रणनीति सफल नहीं हो पाती है. नीतीश कुमार भी इस चुनाव में राजीनीतिक रूप से काफी कमजोर हो गए हैं.
बदलते बिहार के मतदाताओं ने इस चुनाव में कई युवाओं को सफलता दिलाई है. ये चेहरे निश्चित हीं भविष्य के नेतृत्वकर्ता हो सकते हैं. जो युवा चेहरे विफल हुए हैं उन्होंने इस चुनाव में कई खट्टे-मीठे अनुभवों के साथ आगे बढ़ने की योजना बना रहे होंगे.
मधुप मणि “पिक्कू”
(लेखक निजी चैनल के संपादक रह चुके हैं, वर्तमान में वेब जर्नलिस्ट्स एसोसिएशन ऑफ़ इंडिया के राष्ट्रीय संयुक्त सचिव हैं)