(अनुभव की बात, अनुभव के साथ)
केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार ने एक बड़ा फैसला लेते हुए आर्थिक रूप से कमजोर सवर्णों को सरकारी नौकरियों और शिक्षण संस्थानों में दस फीसदी आरक्षण देने का फैसला किया है।अब लोकसभा का चुनाव निकट है तो ऐसे में इस फैसले को सवर्णों को लुभाने के प्रयास के रूप में देखना लाजिमी है।तीन प्रदेशों में सरकार गंवाने के बाद यह उम्मीद लगाई ही जा रही थी कि लोकसभा चुनाव से पहले सवर्णों को लुभाने के लिए सरकार कुछ ना कुछ तो करेगी ही। दरअसल इन राज्यों के चुनाव परिणाम को भाजपा के प्रति सवर्णों और किसानों के नाराजगी के रूप में भी देखा जा रहा है।दस फीसदी आरक्षण देने की घोषणा कर सरकार ने एक तीर से दो शिकार करने का प्रयास किया है,क्योंकि देश के ज्यादातर किसान सवर्ण समाज से ही आते हैं।
ऐसा पहली बार हुआ है जब आर्थिक आधार पर आरक्षण देने की घोषणा हुई है।अभी तक देश में आरक्षण जाति आधारित ही रही है।केंद्र सरकार द्वारा गरीब सवर्णों को आरक्षण देने की घोषणा के बाद राजनीतिक दलों में इसका श्रेय लेने के लिए होड़ मची हुई है।कोई भी राजनीतिक दल केंद्र सरकार के इस फैसले का विरोध करने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा है।ऐसे महागठबंधन के कुछ घटक दलों ने इसे चुनावी जुमला होने की आशंका व्यक्त की है।
इसके पहले पूर्व प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव ने गरीब सवर्णों को दस प्रतिशत आरक्षण देने का फैसला किया था।परंतु मामला अदालत में पहुंचने पर उच्चतम न्यायालय ने इसे असंवैधानिक करार देते हुए खारिज कर दिया था।1992 में उच्चतम न्यायालय कह चुकी है कि पचास प्रतिशत से ज्यादा आरक्षण संविधान के विपरीत है।लेकिन मोदी सरकार के इस फैसले के कुछ तकनीकी आधार हैं,जिस वजह से संभावना जताई जा रही है कि इस बार उच्चतम न्यायालय इसे असंवैधानिक करार नहीं देगी।खैर यह तो आने वाला कल ही बताएगा।
मोदी सरकार के इस फैसले को आखिर क्या कहा जाए ?एक साहसिक फैसला या फिर तीन राज्यों में हुए हार से हताशा में लिया गया फैसला।लोकसभा का चुनाव निकट है और ऐसे में मोदी सरकार का यह फैसला यह साबित करता है कि सरकार को अपने पांच वर्षों में किए गए विकास कार्यों पर कोई भरोसा नहीं है।सरकार शायद जनता में अपना विरोध महसूस कर रही है।यही वजह है कि सरकार चुनाव में विकास को मुद्दा नहीं बनाना चाह रही है।सरकार जातीय समीकरण से चुनाव जीतने की ओर कदम बढ़ा रही है। पहले एससी-एसटी एक्ट में सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को पलटना, एससी-एसटी कर्मी को प्रमोशन में आरक्षण देने की वकालत कर उन्हें लुभाने की कोशिश और फिर तीन राज्यों में हार के बाद सवर्णों को लुभाने का प्रयास।
अफसोस है कि हमारे देश में चुनाव आज भी धर्म और जाति के नाम पर लड़े जा रहे हैं।हर राजनीतिक दल जातीय गठजोड़ बनाने में लगा है। विकास की चर्चा गौण होती दिख रही है।
क्या ये बेहतर नहीं होता कि आरक्षण का आधार जाति नहीं सिर्फ और सिर्फ आर्थिक होता,या फिर आरक्षण को ही पूरी तरह समाप्त कर दिया जाता।देश में आरक्षण नाम की कोई चीज ही नहीं होती।आर्थिक रूप से और सामाजिक रूप से पिछड़ों के लिए सरकार शिक्षा प्राप्त करने में सुविधा देती।शिक्षण संस्थानों में उन्हें फीस में छूट मिलती,उन्हें पाठ्य सामग्री मुफ्त में उपलब्ध कराई जाती और शिक्षा से सम्बंधित और भी सुविधा दी जाती। परंतु योग्यता से किसी भी प्रकार का समझौता नहीं किया जाता।क्या यह मुमकिन है की आरक्षित वर्ग से आने वाले अधिकारी, चिकित्सक या फिर कोई भी कर्मचारी उतने योग्य हैं जितने सामान्य वर्ग के ?ये मेरी निजी राय है कि जातिगत आरक्षण देश के लिए कोढ़ है।