-आनंद कौशल, वरिष्ठ पत्रकार सह राजनीतिक समीक्षक-
पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के परिणाम बहुत कुछ कह रहे हैं। छत्तीसगढ़ में जहां भाजपा ने अपना पुराना किला खो दिया वहीं, तेलंगाना और मिजोरम के नतीजों ने भाजपा की जबरदस्त किरकिरी भी की है। हालांकि मध्यप्रदेश के चुनावी नतीजे उतने बुरे नहीं रहे लेकिन यहां पर भी कांग्रेस ने सरकार की संभावनाओं को खारिज़ कर दिया। शिवराज सिंह चौहान को यहां कुर्सी छोड़नी पड़ी। कुल मिलाकर कहें तो पांचों राज्यों के चुनावी नतीजों को भले ही सत्ता का सेमीफाइनल नहीं मानें तो कम से कम लोकसभा चुनाव के पहले की ये बड़ी हार जरूर कही जा सकती है और उससे भी बड़ा संकेत यह कि जैसी हवा बह रही है वह मोदी लहर की ओर इशारा नहीं कर रही। एनडीए के अंदर भी एक बड़ी बेचैनी दिखने लगी है और विपक्षी खेमे को मानो नया जीवन मिल गया हो।
कांग्रेस को मिली संजीवनी
राहुल गांधी के लिए यह केवल एक जीत नहीं है बल्कि राहुल गांधी के अध्यक्ष बने आज एक साल पूरे हो गए औऱ आज के इस विजय ने पार्टी और राहुल को दोहरी खुशी दी है। पार्टी को इससे बड़ी संजीवनी मिली है तो कांग्रेस कार्यकर्ताओं को राहुल गांधी के नेतृत्व का साथ मिल गया है। नेहरू-गांधी परिवार की विरासत को आगे ले जाने वाला नया नेतृत्व अब टिकाऊ और भरोसेमंद भी साबित हो गया है। वहीं, भाजपा के लगातार फैसलों ने उसे लोगों के सामने आज बेबस कर दिया है। पहले नोटबंदी, फिर जीएसटी और उसके बाद राफेल जैसे मुद्दों के चक्रव्यूह ने.
भाजपा को चित्त कर दिया।
पिछले कुछ दिनों के घटनाक्रम को देखें तो पता चलेगा कि रालोसपा नेता उपेंद्र कुशवाहा ने एनडीए से नाता तोड़ लिया, आरबीआई के गर्वनर उर्जित पटेल ने त्यागपत्र दे दिया, वहीं, इससे पहले चंद्रबाबू नायडू ने एनडीए से नाता तोड़ लिया था, शिव सेना लगातार नाराज़ चल रही है। राम मंदिर को लेकर साधुओं का बड़ा दबाव झेलना पड़ रहा है।कुल मिलाकर कहें तो भाजपा के पास कांग्रेस को जवाब देने से ज्यादा उसे अपने चक्रव्यूह से निकलने को लेकर ही क़वायद करनी पड़ रही है। हालांकि तेलंगाना और मणिपुर को लेकर भाजपा के पास कोई जीत का प्लान नहीं था लेकिन कहा जा रहा था कि छत्तीसगढ़ में विकास और बेहतर शासन के चलते एक बार फिर रमण सिंह सत्ता पर काबिज़ होंगे।वहीं, मध्यप्रदेश में भी भाजपा का दावा था कि एंटी इनकंबेंसी का प्रभाव नहीं पड़ेगा। हालांकि राजस्थान में महारानी की हार भी अप्रत्याशित नहीं है क्योंकि यहां एंटी इनकंबेंसी का प्रभाव हर बार देखा जाता रहा है। पांच सालों पर यहां सत्ता परिवर्तन की लहर देखने को मिलती है। चुनावी रणनीतिकारों का भी मानना है कि एससी, एसटी को लेकर भाजपा के रूख से भी उसे बड़े तबके का कोपभाजन बनना पड़ा है। वहीं, कांग्रेस ने जिस तरह से एक एक मोर्चे पर भाजपा को घेरा वह उसकी जीत का आधार बना।
सीट शेयरिंग को लेकर बढ़ेगा दबाव
वैसे चुनावी जानकारों का यह भी मानना है कि यह जीत कांग्रेस की जीत नहीं है बल्कि यह भाजपा के खिलाफ़ जनादेश है। अब चुनावी मैनेजमेंट के माहिर माने जाने वाले भाजपा अध्यक्ष अमित शाह और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए आगे की राह आसान नहीं होगी क्योंकि इस प्रदर्शन के बाद सहयोगी दलों की ओर से जबरदस्त दबाव होगा। अभी लोकसभा चुनाव होने हैं लिहाज़ा सहयोगी पार्टियों की ओर से सीट शेयरिंग को लेकर बड़ा दबाव होगा। बिहार में भी जदयू पहले से बड़े भाई की भूमिका में है और इस नतीजे के बाद जदयू का कद और बढ़ेगा वहीं, नाराज़ चल रहे सहयोगियों को मनाने की क़वायद भी करनी होगी। हिंदुत्व का एजेंडा छोड़ सबको साथ लेकर चलना होगा क्योंकि चुनाव के पहले राम मंदिर की हवा भी ज़हर बनकर बरपी। साढ़े चार सालों में मोदी मैजिक का असर धीरे-धीरे कम हो रहा है और इसके पीछे जागरूक जनता का वो जनादेश भी है जिसमें राम मंदिर से ज्यादा बेचैनी किसानों की समस्या, बेरोज़गारों की समस्या, अमीरी और गरीबी की बढ़ती खाई, पेट्रो कीमतों में लगी आग, नोटबंदी, जीएसटी और जनता के वैसे ज़मीनी मुद्दे हैं जिसने उनकी दो जून की रोटी पर भी आफत पैदा कर दी है।
मोदी मैजिक से बाहर निकलकर जनहित से जुड़े मुद्दों पर देना होगा ज़ोर
कहते हैं सुबह का भूला अगर शाम को वापस घर लौट आए तो उसे भूला नहीं कहते, शायद एक नई शुरूआत या यों कहें कि भाजपा अपनी जीत का मंत्र तैयार करने में जनहित को प्राथमिकता दे क्योंकि व्यावसायिक हित के साथ ही दलहित को जनता नकार चुकी है। कांग्रेस मुक्त भारत का सपना अब बेमानी सी है और कांग्रेस की इस जीत को सेमीफाइनल मानकर ही भाजपा तैयारी करे तो बेहतर होगा। वैसे जानकारों की मानें तो इस जीत के बाद भाजपा उग्र हिंदुत्ववाद को अपना ढाल बना सकती है और गाहे-बगाहे लोकसभा चुनाव के ऐन पहले राम मंदिर को लेकर कुछ फैसला कर सकती है लेकिन इस कद