जियो और जीने दो, समान नागरिक संहिता की पहली बाधा पार…

आनंद कौशल/ प्रधान संपादक, देश प्रदेश.मीडिया

तीन तलाक खत्म करने की दिशा में भारत के उच्चतम न्यायालय ने मंगलवार को जो ऐतिहासिक फैसला दिया है उससे देश का एक बड़ा वर्ग प्रभावित होगा। हालांकि पूरे प्रकरण में जो बात निकल कर सामने आ रही है वो यही है कि तीन तलाक अभी खत्म नहीं हुआ है बल्कि अभी इसपर रोक लगाई गई है, लेकिन साथ ही देश की सर्वोच्च संस्था यानी संसद को छह महीने के अंदर इस मसले पर तर्कसंगत कानून बनाने को कहा गया है। हम आपको बता दें कि आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड जिस शरीयत कानून के हवाले से इसका समर्थन करता रहा है वो चौदह सौ साल पुराना है यानी समय और परिस्थितियों के मुताबिक इसमें कोई बदलाव नहीं हुआ है। भाजपा समान नागरिक संहिता की वकालत करती रही है और इस फैसले के बाद ये स्पष्ट है कि संसद जल्द कानून बनाकर एक देश एक कानून के राह की पहली चुनौती पार करने की तैयारी में है। मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड का कहना है कि वो तीन तलाक का समर्थन नहीं कर रहे लेकिन जो महिलाएं इसका हल चाहती हैं वो लड़का पक्ष के साथ इकरारनामा कर सकती हैं कि तुरंत तीन तलाक बोल देने से रिश्ते खत्म नहीं होंगे। सवाल ये है कि आखिर देश की सुप्रीम कोर्ट को आज ये फैसला क्यों लेना पड़ा? क्यों नहीं मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड पहले से ऐसी व्यवस्था करता जिससे मुस्लिम महिलाओं को कोर्ट का दरवाजा खटखटाना नहीं पड़ता। दरअसल मुस्लिम कट्टरपंथियों और अनपढ़ उलेमाओं की वजह से तीन तलाक का मुद्दा बेहद पेंचीदा हो गया था।

देश की करीब सत्रह करोड़ मुस्लिम महिलाओं को इसका कितना फायदा मिलेगा ये तो संसद द्वारा पारित कानून के बाद ही पता चलेगा लेकिन इस फैसले ने पूरी दुनिया में भारत की एक असरदार छवि पेश की है क्योंकि जिस इस्लाम में समानता का अधिकार उसके कुरान-ए-पाक की आत्मा है उसी के साथ छेड़छाड़ किया जाता रहा है। भारत की सर्वोच्च संस्था संसद और देश में सबसे ऊपर हमारे संविधान की मूल भावना भी यही कि जीओ और जीने दो यानि समानता और आत्मसम्मान के साथ सबको जीने का अधिकार है फिर वो चाहे हिंदू हो या मुसलमान, या फिर सिख हों या ईसाई। दरअसल कोर्ट के फैसले की मुखालफत करने वाले महिलाओं को भोग की वस्तु से ज्यादा कुछ नहीं समझते। पूरी दुनिया में करीब बाईस मुस्लिम देशों में तीन तलाक पर प्रतिबंध है। हमारे पडोसी पाकिस्तान में 1962 में जबकि बांग्लादेश में 1971 में इस बावत कानून लागू किया गया है। वहीं मिस्त्र में 1929 में जबकि सूडान में 1935 में और सीरिया में 1953 में तीन तलाक को पूरी तरह से अवैध घोषित किया गया है तो फिर भारत में ऐसा क्यों नहीं है?कुल मिलाकर कहें तो तुष्टिकरण की गलत व्यवस्था और राजनीतिक अवसरवादी रवैये ने इस बेतुके फरमान को मुस्लिम महिलाओं की तकदीर का हिस्सा बना दिया। अब वो वक्त आ गया है जब धर्मनिरपेक्षता के साथ ही संविधान की मर्यादा को सबसे ऊपर रखते हुए इस बावत बेहतर कानून बनाया जाए और लाखों पीड़ित महिलाओं के पुनर्वास के साथ ही आगे ऐसी घटनाओं की पुनरावृत्ति रोकने को लेकर कड़े प्रबंध किए जाएं।

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