
अनूप नारायण सिंह की रिपोर्ट।
“एक पाव सतुआ
आधा गो पियाज गे
पत्थर तोड़े जइबे
जमालपुर पहाड़ गे।”
यह गीत जमालपुर के प्रसिद्ध लोक कवि यदुनंदन का है। जो जमालपुर रेल कारखाना के 6 नंबर गेट (श्रमिको के लिए मुख्य द्वार)और वहाँ से खुलनेवाली कुली गाड़ी में गीत गा गा कर हाजमा का चूर्ण और पाचक बेचा करता था। 1964/65 में जमालपुर में शादी -ब्याह या किसी भी अनुष्ठान में यददुनंदन के गए गीत का रिकॉर्ड खूब बजाया जाता था।
श्रमिक गाड़ी तो परिष्कृत नाम है। जमालपुर और आसपास के लोग #कुली #गाड़ी ही कहते थे जो अंग्रेजों का दिया नाम था।
तीन दिशा में तीन ट्रेन चलती थी। एक जमालपुर -सुल्तानगंज (35-36 किलोमीटर),दूसरा जमालपुर से कजरा (30/35 किलोमीटर) और तीसरा जमालपुर – मुंगेर (7/8 कि मी)।
यह गाड़ी सही समय पर खुलती थी और सही समय पर पहुंचती थी। मुफ्त की सवारी थी।
कई स्मृतियाँ इस ट्रेन से जुड़ी इस ट्रेन में रोशनी नही होती थी। अंधेरे में बैठते थे। वापसी में श्रमिक लोग रामचरित्र मानस का पाठ और व्याख्या करते थे ।
यह सुनकर की कुली गाड़ी अब इतिहास की चीज हो गई, कैसा न लगा। उदास कर गया।
कुली गाड़ी का इस्तेमाल सिर्फ रेल श्रमिक ही नहीं करते थे वरन रोजगार के लिए अन्य हज़ारों श्रमिक भी करते थे।
सुल्तानगंज कुली गाड़ी से तो सैकड़ों पत्थर मजदूर काली पहाड़ के 212 नम्बर पुल के हाल्ट पर सुबह को उतरते थे और शाम को4 बजे चढ़ते थे।
कोच के underframe के नीचे दो चक्कों के बीच के दोगी में पत्थर मजदूर यात्रा करते थे ।
अब यही कह सकता हूँ कि कुली गाड़ी यहाँ के #श्रमिक सांस्कृतिक की #लाइफ #लाइन थी ।
कुली गाड़ी हम तुम्हें भला न पाएंगे।
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