‘अतिथि देवो भवः’

गलत कुछ सिखाए वह आपका सगा नहीं हो सकता है। हां जो आपके बुराइयों को  मिटाए वह भले ही कितना भी कड़वा बोले वही आपका सगा होता है और आपका सच्चा मित्र भी वही होगा। खून के रिश्ते अपना होने की पहचान नहीं है, किसी का अपना होना तो कर्मों पर निर्भर करता है।turisum-day

हमारे सब हैं जैसे ईश्वर सबके हैं और सब ईश्वर के। बेहतर होगा कि आप घरों में रहने के साथ-साथ लोगों के दिलों में भी रहें और ‌बिना आपसी प्रेम के यह संभव नहीं है।

‘अतिथि देवो भवः’ संस्कृत की ये पंक्ति हमारी संस्कृति है। जिसे आजकल लोग बोझ समझने लगे हैं। यहां बदलाव की जरूरत है, या ‌यूं कहें की अतिथि सत्कार में हमें पीछे मुड़ कर वहीं रुक जाना चाहिए। अतिथि आता है और जाता है। जब अथिति जाता है तो अपने साथ पाप भी ले जाता है और पुण्य दे जाता है। ध्यान रखिये , मेहमान का आदर करें । हमारे संस्कार भी यही हैं और सत्य भी यही है।

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