यशस्वी हुए यशस्वी जायसवाल – डॉ० सुनील

कौन कहता है आसमाँ में सुराख नहीं हो सकता, एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारों”, दुष्यंत कुमार जी की लिखी यह कविता राजस्थान रॉयल्स के बेहतरीन क्रिकेट खिलाड़ी यशस्वी भूपेंद्र कुमार जयसवाल पर बिल्कुल सही बैठता है, क्रिकेट विश्लेषक होने के कारण मेरी नजरें यशस्वी पर बनी हुई थी। आईये आज आपको अपनी लेखनी से यशस्वी के जीवन की सम्पूर्ण झाॅकी दिखाता हूँ।

जायसवाल का जन्म 28 दिसंबर 2001 को सुरियावां, भदोही, उत्तर प्रदेश में हुआ। ये छह बच्चों में से चौथे थे। इनके पिता भूपेंद्र जायसवाल और माता कंचन जायसवाल एक गृहिणी है। इनका जन्म इतने गरीब परिवार में हुआ था कि इनके पास अपनी खुद की कोई जमीन- जगह इत्यादि नहीं थी। इन्हें अलग-अलग जगहों पर टेंट इत्यादि लगाकर के रहना पड़ता था।

इनके पिता श्री भूपेंद्र जायसवाल हार्डवेयर का मामूली दुकान चलाते थे, यशस्वी ने अपनी गरीबी और भुख को लेकर कहा “*आप क्रिकेट के मेंटल प्रेशर पर बात करते हैं, जबकि मैं अपनी लाइफ़ में उससे बड़ा प्रेशर देख चुका हूं. ये सब चीज़ें मुझे मज़बूत बनाती हैं. रन बनाना उतना महत्वपूर्ण नहीं है. मैं जानता हूं कि मैं रन बना सकता हूं और विकेट ले सकता हूं. मेरे लिए ये ज़्यादा ज़रूरी है कि शाम और सुबह का खाना मुझे मिलेगा कि नहीं. मुझे उसकी व्यवस्था कैसे करनी है.” उपरोक्त कथन यशस्वी की है | यशस्वी के गरीबी का दृश्य तो आपको दिखा दिया आइये अब आपको सबसे कम उम्र मे दोहरा शतक लगा कर रिकॉर्ड मे अपना नाम शुमार करने वाले यशस्वी जायसवाल के क्रिकेट के सफर की चर्चा करते हैं।

क्रिकेट का जुनून इस कदर हावी था कि वह सचिन जैसा क्रिकेटर बनना चाहता थे। शुरू में सीमेंट के पिच पर पिता ने क्रिकेट की एबीसीडी सिखाई बाद में  मुंबई रहने वाले चाचा ने 11 साल की उम्र में यशस्वी को अपने पास बुलाया।  यहीं से शुरू हुआ यशस्वी के संघर्ष का सफर। वहां पर उन्होंने अपने इस सपने को पूरा करने के लिए कैंटीन और डेयरी की दुकान पर काम करने के साथ गोलगप्पे भी बेचे लेकिन कदम पीछे नहीं खींचे।

यशस्वी ने डेयरी में भी काम किया। वहां एक दिन उन्हें नौकरी से निकाल दिया गया। इस दौरान क्लब ने यशस्वी को मदद की पेशकश की, लेकिन उनके सामने यह शर्त रखी गई कि अच्छा खेलोगे तभी टेंट में रहने के लिए जगह दी जाएगी। टेंट में यशस्वी रोटी बनाने का काम करते थे। वहां उन्हें दोपहर और रात में खाना मिल जाता था।

मुंबई में अपने संघर्ष को यशस्वी ने परिवार से कभी साझा नहीं किया। उनके पिता खर्चे के लिए कुछ पैसे भेज देते, लेकिन वह कम पड़ ही जाते। यशस्वी ने पैसे कमाने के लिए कई काम किए। मुंबई के आजाद मैदान में राम लीला के दौरान गोलगप्पे और फल बेचते थे। उन्हें कई बार खाली पेट सोना पड़ता था।

इसी बीच 2013 में आजाद मैदान पर अभ्यास के दौरान एक दिन उन पर कोच ज्वाला सिंह की नजर पड़ी। यहीं से इस युवा खिलाड़ी के दिन बदलने शुरू हो गए।
यशस्वी जायसवाल की क्रिकेट की प्रतिभा को अग्नि देने के लिए ज्वाला सिंह ने वर्ष 2013 में दिसंबर को एक संता क्रूज में क्रिकेट अकादमी की स्थापना की और उसे संचालित किया।

ज्वाला सिंह ने यशस्वी जायसवाल को अपने पंखों की तरह उपयोग किया।ज्वाला सिंह ने अपने इंटरव्यू में कहा था कि –

“मैं नेट्स के पीछे खड़ा था और यह बल्लेबाजी करने के लिए एक मुश्किल विकेट था।” “सभी बल्लेबाज संघर्ष कर रहे थे लेकिन जब यशस्वी आए, तो उन्होंने गेंद को सफाई से मारना शुरू कर दिया। मैं वास्तव में प्रभावित हुआ।

वक्त से लड़कर जो नसीब बदल दे, इंसान वहीं है जो अपनी तकदीर बदल दे’, यशस्वी जायसवाल ने इस पंक्ति को चरितार्थ कर दिया।

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