श्राद्ध में दर्भ (कुश), काला तिल, अक्षत, तुलसी, भृंगराज (भंगरैया) आदि वस्तुओं का उपयोग किया जाता है ।
क्या आप जानते हैं कि क्यों …
१. दर्भ के बिना श्राद्धकर्म नहीं किया जाता ?
२. श्राद्ध करते समय देवता एवं पितरों के स्थानों पर बैठने के लिए यदि ब्राह्मण न मिलें, तब उन स्थानों पर दर्भ रखा जाता है ?
३. श्राद्धकर्म में काले तिल का उपयोग किया जाता है ?
४. श्राद्ध में चावल की ही खीर बनाई जाती है ?
५. भृंगराज एवं तुलसी के उपयोग से वायुमंडल शुद्ध होकर पितरों के लिए श्राद्धस्थल पर आना सुगम होता है ?
इस लेख में हम उपर्युक्त सभी प्रश्नों का अध्यात्मशास्त्रीय उत्तर जानने का प्रयत्न करेंगे ।
१. दर्भ
१ अ. दर्भ के बिना श्राद्धकर्म क्यों नहीं किया जाता ?
‘दर्भ तेजोत्पादक वनस्पति होने के कारण इससे निरंतर तेजतत्त्व की तरंगें प्रक्षेपित होती रहती हैं । इन तरंगों के प्रभाव से श्राद्ध की प्रत्येक क्रिया में रज-तम कणों की बाधा अल्प होती है । इससे श्राद्धस्थल पर अनिष्ट शक्तियों के आक्रमण घट जाते हैं तथा पितरों को आगे जाने के लिए विशेष प्रकार की ऊर्जा मिलती है ।’
१ आ. श्राद्ध में दर्भ के प्रयोग से क्या होता है ?
‘दर्भ में तेजतत्त्व के कणों से संबंधित सुप्त वायु होती है । यह वायु श्राद्ध के समय मंत्रोच्चारण से सक्रिय होकर, वायुमंडल की सहायता से ऊपर की ओर जाती है । मंत्रोच्चारण से उत्पन्न तप्त ऊर्जा इस वायु के माध्यम से अत्यंत वेग से ऊपर की ओर जाती है । इससे, उस हवन अथवा संकल्प की तरंगें अभीष्ट स्थान तक पहुंचती हैं और कार्य अल्प समय में सफल होता है ।’
१ इ. दर्भ पर अनेक आघात कर अथवा उसे नखों से क्यों नहीं तोडना चाहिए ?
‘नख’ मूलतः रज-तमात्मक प्रवृत्ति के दर्शक होते हैं । दर्भ पर अनेक आघात करने से अथवा उन्हें नख से तोडते समय उत्पन्न होनेवाली रज-तमात्मक ध्वनितरंगों से दर्भ की सत्त्व से संबंधित संवेदनशीलता घट जाती है । इससे श्राद्ध का फल अल्प हो जाता है । रज-तमयुक्त तरंगें अपेक्षाकृत भारी होती हैं । ये तरंगें जब दर्भ में प्रवेश करती हैं, तब उससे प्रक्षेपित होनेवाली तरल तेजतरंगें भी भारी हो जाती हैं । तब, उनकी ऊध्र्व दिशा में जाने की क्षमता घट जाती है । ऐसे दर्भ का प्रयोग घातक होता है ।’
१ उ. श्राद्ध करते समय देवता एवं पितरों के स्थान पर बैठने के लिए ब्राह्मण न मिलने पर वहां दर्भ क्यों रखते हैं ?
‘दर्भ में पाई जानेवाली सुप्त तेजकणयुक्त वायु के कारण वह आवश्यकतानुसार ब्रह्मांड की सगुण एवं निर्गुण दोनों प्रकार की तरंगें आकर्षित करने में अग्रसर होता है । इस गुणधर्म के कारण वह देवताओं की उच्च तरंगें तथा पितरों की कनिष्ठ तरंगें दोनों को श्राद्धस्थल पर आकर्षित करता है । दर्भ में तेज से संबंधित सुप्त वायु श्राद्ध के संकल्पयुक्त मंत्रोच्चारण से सक्रिय होती है, जिससे दर्भ अपने तेजतत्त्वरूपी वायुप्रक्षेपण से अनिष्ट शक्तियों को प्रतिबंधित कर, पितरों को श्राद्धस्थल पर आकर्षित कर सकता है । दर्भ सभी कनिष्ठ एवं उच्च स्तर के घटकों का प्रतिनिधित्व करता है । इसलिए, विशिष्ट घटक की प्रत्यक्ष अनुपस्थिति में उसके स्थान पर उसे रखकर, श्राद्ध का संकल्प पूरा किया जाता है ।’
२. काले तिल
२ अ. श्राद्ध में काले तिल का उपयोग क्यों करते हैं ?
काले तिल की रज-तमात्मक शक्ति के आधार पर पितरों को श्राद्धस्थल पर आना सुगम होने से श्राद्ध में काले तिल का उपयोग होना ‘श्राद्ध में काले तिल का उपयोग करने का उद्देश्य है – काले तिलों से प्रक्षेपित होनेवाली रज-तमात्मक तरंगों की सहायता से मत्र्यलोक में भटकनेवाले पितरों को श्राद्धस्थल पर बुलाना । श्राद्ध में पितरों के लिए किए गए आवाहनात्मक मंत्रोच्चारण से उत्पन्न नादशक्ति से काले तिलों की सुप्त रज-तमात्मक शक्ति जागृत होती है । यह शक्ति जिस समय रज-तमात्मक स्पंदनों का वलय वातावरण में प्रक्षेपित करती है, तब श्राद्ध में किए गए आवाहन के अनुसार पितर इन स्पंदनों की ओर आकृष्ट होते हैं और पृथ्वी के वायुमंडल में प्रवेश करते हैं । फलस्वरूप, उन्हें काले तिल से प्रक्षेपित होनेवाली रज-तमात्मक तरंगों पर आरूढ होकर श्राद्ध के स्थान पर आना सुगम होता है । श्राद्ध में अर्पित नैवेद्य की वायु को ग्रहण कर पितर संतुष्ट होते हैं । काले तिलों से प्रक्षेपित होनेवाली तरंगों से पितरों के सूक्ष्मशरीर के सर्व ओर स्थित वासनात्मक कोष सक्रिय होता है और श्राद्ध का अपना अंश ग्रहण कर, तृप्त होता है ।’
२ आ. श्राद्धकर्म में गुडमिश्रित अन्न, तिल एवं मधु का दान क्यों करना चाहिए ?
श्राद्ध में गुडमिश्रित अन्न, तिल एवं मधु दान करने से पितरों का सब प्रकार के भावनात्मक लेन-देन से १० प्रतिशत मुक्त होना
‘श्राद्धकर्म में प्रयुक्त गुडमिश्रित अन्न, तिल एवं मधु ये पितरों के वासनात्मक लेन-देन से संबंधित कर्मों के प्रतीक हैं । अतः, इनके दान से पितरों की भिन्न-भिन्न सांसारिक वासनाएं पूरी होती हैं ।
१. गुड
यह सभी वस्तुओं में तुरंत घुल-मिल जानेवाला पदार्थ है । इसलिए, यह जीव के विशिष्ट कार्य से उत्पन्न समष्टि लेन-देन का प्रतीक है ।
२. तिल
यह व्यक्तिगत स्तर पर अनजाने में बननेवाले लेन-देन का प्रतीक है ।
३. मधु
यह माया का प्रत्यक्ष रूप है । यह दान करने से, भावना पर आधारित और जानबूझ कर किया गया लेन-देन घटता है ।
जो व्यक्ति पितृकर्म करता है, वह सब पितरों का ऋण चुकाने के लिए और उन्हें सद्गति दिलाने हेतु, उनका दायित्व लेकर, उनके सर्व ओर स्थित वासनामय कोषों का जाल काटने के लिए प्रार्थनासहित दान और विशेष कर्म कर पितरों को गति प्राप्त करवाता है ।
गुड, तिल एवं मधु के दान से ब्रह्मांड का रज-सत्त्व, सत्त्व-रज, रजोगुणात्मक और आपतत्त्वात्मक चैतन्य सक्रिय होता है तथा लिंगदेहों के सर्व ओर विद्यमान वासनात्मक कोष नष्ट करता है । अर्थात, यह दान एक प्रकार से पितरों को सब प्रकार के भावनात्मक लेन-देन से १० प्रतिशत मुक्त करता है । दत्तात्रेय देवता के शरण में जाकर, प्रार्थना कर उनकी शरण जाकर, यह विधि भावपूर्ण कर, श्राद्धकर्म की विधि की समाप्ति विधिवत करने से, जीव को श्राद्ध का पूरा फल मिलता है और उसकी साधना सफल होती है । इसलिए, कोई भी अनुष्ठान यथायोग्य दान, भाव और धर्मशास्त्रीय आधार समझकर करना अत्यंत महत्त्वपूर्ण होता है ।’
– एक विद्वान (सद्गुरु) श्रीमती अंजली गाडगीळ के माध्यम से, १.८.२००५, दोपहर २.४२़
३. अक्षत (चावल)
३ अ. श्राद्ध में चावल की ही खीर क्यों बनाते हैं ?
‘पितरों को संतुष्ट करने के लिए श्राद्ध में उनके लिए चावल की खीर बनाते हैं । इसमें पडी चीनी मधुर रस का और दूध चैतन्य का स्रोत है । चावल अपने में सबको मिला लेता है । ये सभी पदार्थ आप (जल) तत्त्व से संबंधित हैं ।
खीर में लौंग का उपयोग करने पर, उससे निकलनेवाली तमोगुणी तरंगें खीर के अन्य पदार्थों से निकलनेवाली आप-तत्त्वात्मक तरंगों के साथ मिल जाती हैं । इस मिश्रण से उत्पन्न होनेवाली आपतत्त्वात्मक सूक्ष्म-वायु की ओर रज-तमात्मक लिंगदेह अल्पावधि में आकर्षित होती हैं । लौंग से प्रक्षेपित होनेवाली सूक्ष्म-वायु नैवेद्य के सर्व ओर उष्ण गतिमान तरंगों का सूक्ष्म-कवच बनाती है । इससे नैवेद्य को अनिष्ट शक्तियों के आक्रमण से सुरक्षित रखने में सहायता मिलती है ।’
४. भृंगराज एवं तुलसी
४ अ. श्राद्धस्थल पर पितरों का आगमन सुगम बनाने
भृंगराज में तेजतत्त्व है और तुलसी में चेतनाशक्ति अधिक होती है । भृंगराज के पत्तों से वायुमंडल में प्रक्षेपित होनेवाली तेजोमय तरंगों से वायुमंडल के रज-तम कणों की गति मंद होती है । रज-तम कणों की गति मंद होने पर उन्हें, तुलसी के पत्तों से प्रक्षेपित होनेवाली श्रीकृष्णतत्त्व की तरंगों से सहजता से नष्ट किया जाता है । इस प्रकार, भृंगराज एवं तुलसी, वहां का वायुमंडल शुद्ध करने में एक-दूसरे की सहायता करते हैं । वायुमंडल की इस शुद्धता एवं श्राद्ध में किए जानेवाले संकल्प से पितरों के लिए श्राद्धस्थल पर आना सरल होता है ।’
संदर्भ : सनातन का ग्रंथ ‘श्राद्ध (भाग – १) महत्त्व एवं अध्यात्मशास्त्रीय विवेचन’