रमज़ान एक अहम इबादत है। यह साल में एक बार आता है। यह ईश्वर की तरफ से हमारे ऊपर फ़र्ज़ करार दिया, इसलिए हर मुसलमान रमज़ान में रोज़ा रखते हैं।
बिहार के समस्तीपुर के ताजपुर स्थित मदरसा इस्लामिया शाहपुर बघौनी के प्रधाध्यापक मोहम्मद उमर फारूक रमजान की फ़जीलत के बारे में बताते हुए कहते हैं कि रोज़ा हमारे ऊपर इसलिए भी फ़र्ज़ है कि हम इस पूरे माह के दिनों में हलाल चीजों से बचते है और हराम के करीब भी नहीं जाते। हर इंसान इस महीने अपने रब कि खूब-खूब इबादत करता है ताकि अपने रब को खुश करके जन्नत का रास्ता हमवार करले। इस महीने में बहुत ज्यादा लोगो की मगफिरत होती है।
इन तीस दिनों को दस-दस दिनों के भाग करके तीन आसरा बनाया गया। हर दस दिन को 1 आशरा कहते है पहला आशरा रहमत कहलाता है। दूसरा आशरा मगफिरत कहलाता है और तीसरा आशरा जहन्नम से छुटकारा का है। इस महीने में मुसलमान रोज़ा रखते हैं।
नमाजे तराबीह पढ़ते हैं जो रात में ईशा की नमाज़ के बाद 2, 2 करके 20 रकात पढ़ी जाती है। रोज़ा का अर्थ होता है खुद को खाने पीने और बीबी के करीब होने से सुबह सादिक से लेकर गुरूबे आफताब तक रोके रखना।
रोज़ा दरअसल हमारे जिस्म की बहुत सारी बीमारियो और रोगों से रोकने का अहम जरिया है जहां इंसान इस महीने में हराम चीजों के खाने पीने से परहेज़ करता है। वहीं आने वाले ग्यारह महीनों में गलत काम ना करने का अजम् और फैसला करता है। हम आम दिनों में जो भी अच्छे काम करते है वही काम हम रमज़ान में करे तो 70 गुना ज्यादा नेकी मिलता है।
रमज़ान में अपने रोज़े को अल्लाह के यहां मकबूल होने के लिए जरूरी है कि हम झूठ, धोखाधड़ी, चुगलखोरी और गीवत से बचे। रमज़ान हमे जितना ज्यादा हो सके गरीबों को खिलाए इफ्तार कराए उन के बच्चो के लिए कपड़े का इंतजाम करे। रमज़ान हमे इंसान से प्रेम करने की हिदायतें देता है।
बिहार पत्रिका के लिए अबू साकिब और अकील अहमद की रिपोर्ट
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