पुरुषोत्तम मास कमला/ पद्मिनी एकादशी व्रत-जानिये विस्तार से

२६ सितंबर २०२० शनिवार को रात्रि ०७:०० बजे से २७ सितंबर रविवार को रात्रि ०७:४६ बजे तक
पुरुषोत्तम मास कमला/पद्मिनी एकादशी व्रत २७ सितंबर २०२०,रविवार को रखें

अर्जुन ने कहा: हे भगवन् ! अब आप अधिक (लौंद/ मल/ पुरुषोत्तम) मास की शुक्लपक्ष की एकादशी के विषय में बतायें, उसका नाम क्या है तथा व्रत की विधि क्या है? इसमें किस देवता की पूजा की जाती है और इसके व्रत से क्या फल मिलता है?

श्रीकृष्ण बोले : हे पार्थ वैसे तो प्रत्येक साल में २४ एकादशी ही होती है पर हर ३६ मास के बाद जब मलमास आता है तो दो एकादशीया और बढ़ जाती है जिसके कारण साल की २६ एकादशी होती है !

अधिक मास की एकादशी अनेक पुण्यों को देनेवाली है, उसका नाम शुक्ल पक्ष में कमला या पद्मिनी है और कृष्ण पक्ष में परमा एकादशी कहा जाता है।

इस पुरुषोत्तम मास की दोनों एकादशी के व्रत से मनुष्य विष्णुलोक को जाता है।

यह अनेक पापों को नष्ट करनेवाली
तथा मुक्ति और भक्ति प्रदान करनेवाली है। इसके फल व गुणों को ध्यानपूर्वक सुनें-

व्रती को दशमी के सायं से ही व्रत शुरु करना चाहिए। एकादशी के दिन प्रात: नित्यक्रिया से निवृत्त होकर पुण्य क्षेत्र में स्नान करने चले जाना चाहिए। उस समय गोबर, मृत्तिका, तिल, कुश तथा आमलकी चूर्ण से विधिपूर्वक स्नान करना चाहिए। स्नान करने से पहले शरीर में मिट्टी लगाते हुए उसीसे प्रार्थना करनी चाहिए: ‘हे मृत्तिके ! मैं तुमको नमस्कार करता हू । तुम्हारे स्पर्श से मेरा शरीर पवित्र हो। समस्त औषधियों से पैदा हुई और पृथ्वी को पवित्र करने वाली, तुम मुझे शुद्ध करो। ब्रह्मा के थूक से पैदा होनेवाली ! तुम मेरे शरीर को छूकर मुझे पवित्र करो। हे शंख चक्र गदाधारी देवों के देव ! जगन्नाथ ! आप मुझे स्नान के लिए आज्ञा दीजिए।’

इसके उपरान्त वरुण मंत्र को जपकर पवित्र तीर्थों के अभाव में उनका स्मरण करते हुए किसी तालाब में स्नान करना चाहिए। स्नान करने के पश्चात् स्वच्छ और सुन्दर वस्त्र धारण करके संध्या, तर्पण करके मंदिर में जाकर भगवान की धूप, दीप, नैवेघ, पुष्प, केसर आदि से पूजा करनी चाहिए। उसके उपरान्त भगवान के सम्मुख नृत्य गान आदि करें।

भक्तजनों के साथ भगवान के सामने पुराण की कथा सुननी चाहिए। अधिक मास की शुक्लपक्ष की ‘पद्मिनी एकादशी’ का व्रत निर्जल करना चाहिए। यदि मनुष्य में निर्जल रहने की शक्ति न हो तो उसे जल पान या अल्पाहार से व्रत करना चाहिए। रात्रि में जागरण करके नाच और गान करके भगवान का स्मरण करते रहना चाहिए। प्रति पहर मनुष्य को भगवान श्री लक्ष्मी नारायण या महादेवजी की पूजा करनी चाहिए।

पहले पहर में भगवान को नारियल, दूसरे में बिल्वफल, तीसरे में सीताफल और चौथे में सुपारी, नारंगी अर्पण करना चाहिए। इससे पहले पहर में अग्नि होम का, दूसरे में वाजपेय यज्ञ का, तीसरे में अश्वमेघ यज्ञ का और चौथे में राजसूय यज्ञ का फल मिलता है। इस व्रत से बढ़कर संसार में कोई यज्ञ, तप, दान या पुण्य नहीं है। एकादशी का व्रत करने वाले मनुष्य को समस्त तीर्थों और यज्ञों का फल मिल जाता है।

इस तरह द्वादशी के सूर्योदय तक जागरण करना चाहिए और स्नान करके ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिए।

इस प्रकार जो मनुष्य विधि पूर्वक भगवान की पूजा तथा व्रत करते हैं, उनका जन्म सफल होता है और वे इस लोक में अनेक सुखों को भोगकर अन्त में भगवान विष्णु के परम धाम को जाते हैं। हे पार्थ ! मैंने तुम्हें एकादशी के व्रत का पूरा विधान बता दिया।

व्रत कथा

अब जो ‘पद्मिनी एकादशी’ का भक्ति पूर्वक व्रत कर चुके हैं, उनकी कथा कहता हूँ, ध्यानपूर्वक सुनें। यह सुन्दर कथा पुलस्त्यजी ने नारदजी से कही थी।

एक समय कार्तवीर्य ने रावण को अपने बंदीगृह में बंद कर लिया। उसे मुनि पुलस्त्यजी ने कार्तवीर्य से विनय करके छुड़ाया। इस घटना को सुनकर नारदजी ने पुलस्त्यजी से पूछा : ‘हे महाराज ! उस मायावी रावण को, जिसने समस्त देवताओं सहित इन्द्र को जीत लिया, कार्तवीर्य ने किस प्रकार जीता, सो आप मुझे समझाईए।’

इस पर पुलस्त्यजी बोले :
‘हे नारद जी ! पहले कृतवीर्य नामक एक राजा राज्य करता था। उस राजा को सौ स्त्रियाँ थीं, उसमें से किसी को भी राज्यभार सँभालने वाला योग्य पुत्र नहीं था। तब राजा ने आदरपूर्वक पण्डितों को बुलवाया और पुत्र की प्राप्ति के लिए यज्ञ किए, परन्तु सब असफल रहे। जिस प्रकार दु:खी मनुष्य को भोग नीरस मालूम पड़ते हैं, उसी प्रकार उसको भी अपना राज्य पुत्र बिना दुःखमय प्रतीत होता था। अन्त में वह तप के द्वारा ही सिद्धियों को प्राप्त जानकर तपस्या करने के लिए वन को चला गया। उसकी स्त्री भी (हरिश्चन्द्र की पुत्री प्रमदा) वस्त्रालंकारों को त्यागकर अपने पति के साथ गन्ध मादन पर्वत पर चली गई। उस स्थान पर इन लोगों ने दस हजार वर्ष तक तपस्या की परन्तु सिद्धि प्राप्त न हो सकी। राजा के शरीर में केवल हड्डियाँ रह गयीं। यह देखकर प्रमदा ने विनय सहित महासती अनसूया से पूछा: मेरे पतिदेव को तपस्या करते हुए दस हजार वर्ष बीत गये, परन्तु अभी तक भगवान प्रसन्न नहीं हुए हैं, जिससे मुझे पुत्र प्राप्त हो। इसका क्या कारण है?

इस पर अनसूया बोली कि अधिक (लौंद/मल ) मास में जो कि छत्तीस महीने बाद आता है, उसमें दो एकादशी होती है। इसमें शुक्लपक्ष की एकादशी का नाम ‘पद्मिनी’ और कृष्णपक्ष की एकादशी का नाम ‘परमा’ है। उसके व्रत और जागरण करने से भगवान आपको अवश्य ही पुत्र देंगे।

इसके पश्चात् अनुसूइया जी ने व्रत की विधि बतलाई। रानी ने अनुसूइया की बतलाई विधि के अनुसार एकादशी का व्रत और रात्रि में जागरण किया। इससे भगवान विष्णु उस पर बहुत प्रसन्न हुए और वरदान माँगने के लिए कहा।

रानी ने कहा : आप यह वरदान मेरे पति को दीजिए।

प्रमदा का वचन सुनकर भगवान विष्णु बोले : ‘हे प्रमदे ! मलमास (लौंद) मुझे बहुत प्रिय है। उसमें भी एकादशी तिथि मुझे सबसे अधिक प्रिय है। इस एकादशी का व्रत तथा रात्रि जागरण तुमने विधि पूर्वक किया, इसलिए मैं तुम पर अत्यन्त प्रसन्न हूँ।’ इतना कहकर भगवान विष्णु राजा से बोले: ‘हे राजेन्द्र ! तुम अपनी इच्छा के अनुसार वर माँगो। क्योंकि तुम्हारी स्त्री ने मुझको प्रसन्न किया है।’

भगवान की मधुर वाणी सुनकर राजा बोला : ‘हे भगवन् ! आप मुझे सबसे श्रेष्ठ, सबके द्वारा पूजित तथा आपके अतिरिक्त देव दानव, मनुष्य आदि से अजेय उत्तम पुत्र दीजिए।’ भगवान तथास्तु कहकर अन्तर्धान हो गए। उसके बाद वे दोनों अपने राज्य को वापस आ गए। उन्हीं के यहाँ कार्तवीर्य पुत्र के रूप में उत्पन्न हुए थे। वे भगवान के अतिरिक्त सबसे अजेय थे। इन्होंने रावण को जीत लिया था। यह सब ‘पद्मिनी’ के व्रत का प्रभाव था। इतना कहकर पुलस्त्यजी वहाँ से चले गए।

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा :
हे पाण्डुनन्दन अर्जुन ! यह मैंने अधिक (लौंद/मल/पुरुषोत्तम) मास के शुक्लपक्ष की एकादशी का व्रत कहा है। जो मनुष्य इस व्रत को करता है, वह विष्णुलोक को जाता है।

आचार्य स्वामी विवेकानन्द जी
श्री रामकथा व श्रीमद्भागवत कथा व्यास
श्री धाम श्री अयोध्या जी

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