मृत्यु जीवन का सत्य- बिहार पुलिस एसोसिएशन के अध्यक्ष मृत्युंजय कुमार सिंह की कलम से

फुर्सत के क्षण
इंसान के जन्म के साथ ही मृत्यु निश्चित हो जाती है।ईश्वर भी जन्म लेकर अपने शरीर का परित्याग किया है।मृत्यु इंसान के जीवन का अंतिम सत्य है।सामान्य भाषा मे किसी भी जीवात्मा अर्थात प्राणी के जीवन के अन्त को मृत्यु कहते हैं।रामायण पढ़ने या वर्तमान समय में धारावाहिक के रूप में देखने पर सत्य के रूप में सामने आया कि जिस प्राणी ने जन्म लिया है उन सभी की मृत्यु भी ईश्वर जन्म के साथ ही निर्धारित कर देते हैं।जीवन का सबसे बड़ा सत्य है मृत्यु जिसे कोई टाल नहीं सकता है। जो मृत्युलोक में आया है उसे एक दिन अपने शरीर को छोड़कर जाना ही है।राजा दशरथ द्वारा श्रवण को धोखे में हुई हत्या उपरांत श्रवण के माता पिता का श्राप उनकी मृत्यु निर्धारित कर दी।रावण का मृत्यु पूर्व से निर्धारित था जिनके लिए विष्णु भगवान श्रीराम के रूप में धरती पर जन्म लिए।शरीर में मौजूद उर्जा जिसे आत्मा कहते हैं वह समाप्त नहीं होती बस रूपान्तरित होती रहती है। धर्म शास्त्र कहते हैं जिसने सत्य को जान लिया उसे मरने से कभी डर नहीं लगता, वो जान लेता है कि जिसने जन्म लिया है उसकी मौत भी अटल सत्य है। वैसे मृत्यु के विषय में ज्ञान होना तो अत्यंत दुर्लभ है। लेकिन कुछ ऐसी दिव्य आत्माएं होती जिन्हें मृत्यु का आभास मौत से पूर्व ही हो जाता है कि उसकी मौत कब और कैसे होने वाली है।जब व्यक्ति के शरीर से आत्मा निकलती है उसे कुछ समय तक पता ही नहीं होता है कि वह शरीर से अलग है।स्वयं के जीवन का सबसे बड़ा कष्ट पीड़ा के दिन, पल से आप सभी को अवगत कराता हूँ।आज से लगभग 38 वर्ष पूर्व ( अतीत) जब हम दस वर्ष का था उस समय की ये घटना है। मेरी माता स्वर्गीय विंध्यवासिनी देवी की अचानक दो चार उल्टी हुई,पेट में दर्द हुआ। ग्रामीण डॉक्टर द्वारा दवाई दिया गया। कुछ समय के लिए माँ ठीक भी हुई परंतु फिर अचानक उनको दस्त हुआ और वो बेड पर इस तरह लेटी की कभी उठि ही नही।हमें याद है जब वो बेड पर लेटी थी, साँस चल रही थी वो ज़ुबा से कुछ बोल नहीं पा रही थी परंतु उनकी आंखें कुछ कह रही थी जिसे उपस्थित हम सभी समझ नहीं पा रहे थे।उस वक़्त माँ की आँखों में आँसू स्पष्ट रूप से दिख रहा था फिर कुछ देर के बाद साँस रुक गई और मृत्यु हो गया। धरती पर माँ का प्यार , पुचकार स्नेह , आशीर्वाद जीवन से विलुप्त हो गया।इससे पहले मैं बताना चाहता हूँ कि माँ पूर्णत स्वस्थ थी।उस समय मैं बच्चा था बहुत कुछ समझ नहीं था।परंतु आज मृत्यु को परिभाषित करते हुए पुनः बीते दिन पल की याद के साथ माँ की याद आ गई और आज भी पुनः आँखें भर आइ।ओशो द्वारा भी मृत्यु को परिभाषित इस तरह किया गया:- इंसान के जीवन में मृत्यु कीमती चीज है। अगर दुनिया में मृत्यु न होती तो संन्यास न होता। अगर दुनिया में मृत्यु न होती तो धर्म न होता।अगर दुनिया में मृत्यु न होती तो ईश्वर का कोई स्मरण न करता, प्रार्थना न होती, पूजा न होती, आराधना न होती। राम , कृष्ण बुद्ध नही होते।यह पृथ्वी दिव्य पुरुषों को मनुष्यों के रूप में जन्म न दे पाती।
गौतम बुद्ध के जन्म पर ऋषि द्वारा भविष्यवाणी की गई थी कि मृत्यु का आभास ज्ञान होने पर सन्यासी बन जाएगे।पिता द्वारा सारी उपाए किए गए पर होनी को कोई टाल नही सकता।एक मरे हुए आदमी की लाश को देख कर पूछे अपने सारथी से, इसे क्या हो गया? उस सारथी ने कहा कि यह आदमी की मृत्यु हो गया है।बुद्ध ने कहा, क्या मुझे भी मरना होगा? सारथी झिझका, कैसे कहें? बुद्ध ने कहा, झिझको मत। सच–सच कहो, झूठ न बोलना। क्या मुझे भी मरना होगा? मजबूरी में सारथी को कहना पड़ा कि कैसे छिपाऊं आपसे! आज्ञा तो यही है आपके पिता की कि आपको मृत्यु की जानकारी न होने दी जाए।क्योंकि बचपन में आपके ज्योतिषियों ने कहा था कि जिस दिन इसको मौत का स्मरण आएगा, उसी दिन यह सन्यासी हो जाएगा। मगर झूठ भी कैसे बोलूं मृत्यु तो सबको एकदिन आएगी। आपको भी आएगी , मृत्यु से कोई कभी बच नहीं सका है।गौतम बुद्ध ने उसी रात घर छोड़ दिया।हमने अभी तक के अपने जीवन यात्रा में देखा है और सभी इंसान को इस सृष्टि में कभी कभी दृष्टिगोचर हुई होगी कि किसी इंसान को हल्की खाँसी – बुखार या हल्की चोट लग जाती है उसके बाद उसकी मृत्यु हो जाती है। ए भी कभी देखने को मिलता है कि किसी इंसान को गंभीर चोट या गंभीर बीमारी होने के बावजूद भी वह पूर्ण स्वस्थ हो जाता है।कई घटनाएँ ऐसी घटित होती है किसी स्थान पर कोई व्यक्ति का जाना निश्चित नहीं है परंतु आचानक ऐसी स्थिति उत्पन्न हो जाती है कि वह व्यक्ति को वहाँ जाना पड़ता है और उसके साथ कोई गंभीर घटनाएँ घटित हो जाती है और उसकी मृत्यु भी हो जाती है।पुलिस विभाग में हमारी आँखों के सामने भी इस तरह की आचानक घटना हुई है।मुंबई के पालघर में दो साधुवो एवं उनके ड्राइवर की हत्या( मृत्यु)आचानक होने से वे स्वयं अनभिज्ञ थे।वेदव्यास द्वारा रचित सुख सागर में वर्णन है कि महाप्रलय के बाद सृष्टि का जिनोद्धार कर मानव जीव की उत्पति हुई।इसके बाद मानव जीव की संख्या में काफ़ी वृद्धि हो गई कारण उस वक़्त मृत्यु का कोई नाम ही नहीं था।ब्रह्माजी चिंतित हुए और अपनी चिंता को लेकर विष्णु के पास गए फिर दोनों लोग भगवान शंकर के पास पहुँचे।तीनों देव विचार विमर्श कर के मृत्यु नाम की एक लड़की की उत्पति कर के बोले कि तुम मृत्यु हो तुम्हारा काम लोगों की जान लेना है।इसको सुनकर मृत्यु दुखी हुई और इंकार कर बोली की ए महापाप है। तब देवों में कहा की लोगों की मृत्यु होगी लेकिन आरोप तुम पर नहीं आएगा ।उस वक़्त चौंसठ रोग,घटना का निर्माण हुआ।हम सभी देखते या सुनते रहते है कि इंसान जीव कभी भी मरता है तो उस वक़्त कोई घटना,बीमारी मृत्यु का कारण होता है।हम सभी जब अपने परिवार, निकट के संबंध में या आस पड़ोस के यहाँ किसी के मृत्यु होने पर जाकर देखते हैं, दुःख प्रगट कर फूल अर्पित करते हैं उसके बाद जब श्मशान जाते हैं तो हम सभी चिंतन मनन करते हैं और सांसारिक मृत्यु की समीक्षा करते हैं।एक विचार लेकर वहाँ से निकलते हैं परंतु कुछ समय के बाद ही मृत्यु की सोच से दूर होकर अपने दिनचर्या में व्यस्त हो जाते हैं।सृष्टि की रचना ही इस प्रकार से हुई है कि मनुष्य का जीवन स्वयं के लिए है ही नही।जिसने जितनी जल्दी इसे समझ लिया,उसे उतनी जल्दी जीवन आनंद की अनुभूति प्राप्त हो गयी।किसी की आंखों के आंसू पोछने से भी बेहतर है किसी के चेहरे पर मुस्कराहट लानाऔर उससे भी बेहतरीन है उस मुस्कुराहट में आपका अंश होना है।किसी की मुस्कुराहटों का कारण बनना अपने अंदर के ईश्वर का बोध कराने जैसा है।हर इंसान के अंदर ईश्वर विद्यमान है।अंत में कहूँगा:- मृत्यु से सबकी यारी है,आज इसकी कल उसकी,यानी एक दिन सबकी बारी है।

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