रुई धुनने की परंपरागत पेशा को छोड़कर पलायन को मजबूर हैं धुनिया जाति के लोग

बीते दो दशक पूर्व शहरी व ग्रामीण क्षेत्रों में ठंड के पांव पसारते हीं धुनिया की मांग अचानक बढ़ जाती है। आधुनिकता कि दौर मे अल्पसंख्यक समुदाय का धुनिया जाति हासिये पर है।
रुई धुन कर तोशक तकिया, बनाने वाले धुनिया जाती की सुधि नहीं ली जा रही है। ठंड से निजात दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले धुनिया जाति खुद भुखमरी के शिकार है।


मधेपुरा जिले के विभिन्न प्रखंड क्षेत्रों में इनकी अच्छी खासी संख्या हैं। इनकी सामाजिक और शैक्षणिक स्थिति बदतर होती जा रही है।
आज के दौर मे गरीबी व बेबसी से जूझते धुनिया जाति के लोग अब रुई धुनने का पारंपरिक पेशा छोड़ कर दिल्ली, पंजाब, हरियाणा की ओर पलायन करने को विवश हैं।


चाँदपुर, भहगा टोला, इस्लामपुर के मो.वाजिद, मो, मसूद मंसूरी बताते हैं कि बाजार मे मशीन के आ जाने से अब लोग रुई की धुनाई से कराना नहीं चाहते हैं। दु:खुद कोरोना काल में भी राशन कार्ड तक नहीं बन सका और सरकार का कोई लाभ नहीं है।
शहर आते है तो मेहनत मजदूरी करते हैं तो 10 रुपया कमाते हैं तो परिवार का गुजरा चलता है। उन्होंने कोई भी सरकारी सहायता नहीं मिलना दु:ख है।

मधेपुरा से मो. अफरोज अहमद की रिपोर्ट

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