बिहार में अगले साल विधानसभा के चुनाव होने हैं, लेकिन चुनाव से पहले एनडीए गठबंधन में सीट शेयरिंग और चुनावी नेतृत्व को लेकर कयासों के बाजार गर्म हैं। हालांकि लोकसभा चुनाव के वक्त भी इसी स्थिति से भाजपा और जदयू को गुजरना पड़ा था लेकिन भाजपा ने जदयू को अपना बड़ा साझीदार मानकर उसके साथ फिफ्टी-फिफ्टी पर समझौता कर लिया था।
लेकिन इस बार परिस्थितियां कुछ भिन्न हैं और कहा जा रहा है कि प्रचंड बहुमत और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के तीन तलाक और जम्मू कश्मीर पर लिये गए फैसले से पार्टी का आत्मविश्वास बढ़ा है।
भाजपा के इस बढ़ते आत्मविश्वास से पार्टी को अलग-अलग राज्यों में होने वाले चुनावों में इसका बड़ा फायदा मिलेगा । यही फायदा बिहार के चुनावों में भी उसे मिलने की पूरी उम्मीद है लेकिन यहां नीतीश कुमार जैसे नेतृत्व के सामने पार्टी क्या ऐसी सफलताओं को भुनाने में कामयाब हो पायेगी ये बड़ा सवाल है।
सही नीयत ठोस विचार तो क्यों ना फिर से नीतीश कुमार !
अंदरखाने ये चर्चा चल रही है कि आगामी बिहार विधानसभा के चुनाव में भाजपा बड़े भाई की भूमिका में होगी और मुख्यमंत्री को जदयू के लिए सीटें मांगने में थोड़ी परेशानी का सामना करना पड़ेगा लेकिन असलियत में एनडीए के बड़े नेता इससे इनकार करते हैं। जदयू के अंदर एक बड़ा धड़ा यह भी मानता है कि नीतीश कुमार के नेतृत्व में चुनाव तो लड़ा ही जाएगा साथ ही भाजपा के मुक़ाबले जदयू पांच से दस सीटों पर ज्यादा ही लड़ेगी। इधर, नीतीश पर नए नारे को लेकर जिस तरह से जदयू की फज़ीहत हो रही है उससे राजद को बड़ा बल मिल रहा है क्योंकि विपक्ष के पास फिलहाल सरकार पर हमले को लेकर कई मुद्दे हैं लेकिन यहां एक बड़ा सवाल यह है कि राजद या महागठबंधन के पास नीतीश कुमार के मुक़ाबले नेतृत्व कहां है, महागठबंधन की तरफ से कौन नीतीश कुमार के सामने चेहरा होंगे, अगर किसी चेहरे पर सहमति बन भी गयी तो क्या जनता नीतीश के सवाल पर उन्हें स्वीकार करेगी। इन सवालों के जवाब बिल्कुल सामने हैं कि विकास और सुशासन का चेहरा रहे नीतीश कुमार के मुकाबले फिलहाल ना तो विपक्ष के पास कोई बड़ा चेहरा है और ना ही भाजपा के पास फिलहाल कोई सीएम उम्मीदवार । दरअसल बिहार में कास्ट फैक्टर की वज़ह से दो बड़े दल के लिए सत्ता की चाबी पाना बिल्कुल आसान है वहीं पिछले चौदह सालों के कामकाज का अगर लिटमस टेस्ट भी करें तो पायेंगे कि नीतीश कुमार ने विकास की एक लंबी लकीर खींची है जिससे आगे होना फिलहाल किसी के बूते की बात नहीं। भाजपा को भी पता है कि अगर वे नीतीश के खिलाफ़ जनादेश हासिल करने गए तो तमाम विपक्षी पार्टियां नीतीश के चेहरे पर ही दांव लगा देगी और फिर किसी भी सूरत में बिहार की सत्ता पर काबिज होने का उनका सपना धरा रह जाएगा । “क्यों करें विचार ठीके तो है नीतीश कुमार” जैसे स्लोगन से भले ही नीतीश की ब्रांड इमेज वैसी नहीं दिख रही हो लेकिन नारों के नाम पर ही सत्ता का रण जीता नहीं जा सकता । वैसे पिछले चुनाव में पी के की सफल रणनीति ने चुनावी नारों का बड़ा फायदा जदयू और उसके सहयोगियों को मिला था और बिहार में बहार हो नीतीशे कुमार हो जैसे नारे ने एक बड़े वर्ग को प्रभावित किया था लेकिन इसके साथ ही डोर टू डोर कैंपेन के चलते जदयू को बड़ी जीत हासिल हुई थी । इसके साथ ही महागठबंधन के कास्ट फैक्टर ने इस जीत को और भी शानदार बना दिया था। इस बार भाजपा के पास प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के फैसलों से जहां इस चुनावी वैतरणी को पार करने का मूलमंत्र है लेकिन नीतीश के चेहरे पर ही एक बार फिर दांव लगाने को तैयार दिख रही है।
नीतीश की यूएसपी से मिलेगा जीत का मंत्र:
मुख्यमंत्री ने सात निश्चय के सहारे विकेंद्रीकृत तरीके से चहुंमुखी विकास की नई परंपरा शुरू की तो समाज में फैले कुप्रथाओं के खिलाफ़ सफल अभियान चलाकर एक बड़े वर्ग का भरोसा जीता है। जहां शराबबंदी के चलते आधी आबादी का बड़ा समर्थन लगातार चुनावों में मिल रहा है तो अल्पसंख्यक, दलित, महादलित, पिछड़े, अतिपिछड़े, अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, महिलाओं एवं युवाओं के साथ ही बुजुर्गों के बड़े वर्ग का भरपूर समर्थन मिल रहा है। नीतीश की स्कीम्स जहां य़ूनिवर्सल हैं वहीं वंचित और गरीब तबकों के बीच भी उनकी स्वीकार्यता कम नहीं है। महिलाओं को सभी सरकारी सेवाओं में पैंतीस फीसदी आरक्षण और कुछ समय पहले शुरू की गयी मुख्यमंत्री कन्या उत्थान योजना आगामी चुनावों के लिए बड़े मुद्दे बन सकते हैं। इसके साथ ही मुख्यमंत्री ग्राम परिवहन योजना, मुख्यमंत्री सतत् जीविकोपार्जन योजना, मुख्यमंत्री अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति उद्यमी योजना, मुख्यमंत्री सिविल सेवा प्रोत्साहन योजना, मुख्यमंत्री छात्रावास अनुदान योजना, स्टूडेंट क्रेडिट कार्ड योजना, कुशल युवा कार्यक्रम एवं छात्रावास खाद्यान्न योजना जैसे बहुआयामी प्रयासों के चलते एक बड़े वर्ग का समर्थन मिल सकता है। इसके साथ ही मुख्यमंत्री वृद्धजन पेंशन योजना की शुरूआत करके भी नीतीश ने बुजुर्गों के विश्वास को जीतने का प्रयास किया है। राज्य में पिछले कुछ वर्षों में कई आईकॉनिक बिल्डिंग के निर्माण से पूरे देश में बिहार की सकारात्मक छवि बनी है लेकिन अपराध के आंकड़ों के चलते सरकार की किरकिरी जरूर हो रही है। वैसे सरकार के दावों की मानें तो बढ़ते अपराध के साथ-साथ पुलिस की कार्रवाई और अनुसंधान में तेजी से अपराधियों को ससमय सजा भी मिल रही है। हर घर बिजली पहुंचाने के वादे को जहां नीतीश सरकार ने तय समय सीमा के पूर्व पूरा किया है तो वहीं हर घर नल का जल एवं हर घर तक पक्की गली-नाली और हर घर शौचालय का निर्माण भी तय समय सीमा में पूरा करने का निश्चय नीतीश के आत्मविश्वास को नई ऊर्जा दे रहा है। सड़कों के रखरखाव के लिए नई मेंटनेंस पॉलिसी से जहां बेहतर निर्माण का दृढ़ संकल्प छिपा है तो वहीं लोक शिकायत निवारण अधिनियम जैसे हथियार देकर उन्होंने एक आम जनता को संबल प्रदान किया है। लोक सेवाओं का अधिकार के जरिये आम लोगों को सरकारी योजनाओं का लाभ तय समय सीमा में हासिल करने का अधिकार एवं सरकारी लोक सेवकों के लिए जहां उन्होंने उनकी शिकायतों के निपटारे के लिए तंत्र की स्थापना की है वहीं छात्रों और युवाओं के लिए बेहतर चरित्र निर्माण और उनके बेहतर भविष्य के लिए कई तरह की योजनाओं की शुरूआत की है। दहेज प्रथा और बाल विवाह के खिलाफ़ जहां सामाजिक अभियान को उन्होंने बड़ी ऊंचाई दी है तो कानून का डर पैदा कर ऐसा करने वालों के लिए कड़ा संदेश दिया है। जल-जीवन-हरियाली अभियान पर मिशन मोड में काम शुरू करने की उनकी दृढ़ इच्छाशक्ति ने उन्हें बांकि नेताओं से अलग पंक्ति में खड़ा कर दिया है।
अल्पसंख्यकों के बीच नीतीश की नियत पर कोई संदेह नहीं…
नीतीश ने जहां बिहारियों में विकास की भूख जगायी है वहीं अल्पसंख्यकों के एक बड़े तबके को भी अपने साथ करने में कामयाबी हासिल की है। किसी भी राज्य के मुकाबले अल्पसंख्यकों के लिए इतनी योजनाएं कहीं नहीं हैं। ये उनके सुशासन की केमेस्ट्री ही है कि भाजपा के साथ होते हुए भी उन्हें मुस्लिम वोटरों का बड़ा समर्थन हासिल है। भाजपा को पता है कि 370 और तीन तलाक के मामले पर उसे हिंदुओं की बड़ी आबादी का समर्थन मिलेगा लेकिन बिहार में नीतीश कुमार अल्पसंख्यकों के बीच एक भरोसेमंद चेहरा साबित होंगे इसमें कोई शक नहीं। वैसे राजनीति में सबकुछ ठीक है और जायज भी क्योंकि राज्य में लोकसभा चुनावों के इतर विधानसभा चुनावों में स्थानीय मुद्दे अहम होते हैं, स्थानीय चेहरा अहम होता है और उसकी नीयत अहम होती है। कुल मिलाकर कह सकते हैं कि बिहार विधानसभा के चुनाव में जिसमें अभी लंबा वक्त है, भाजपा और जदयू के बीच नेतृत्व को लेकर फिलहाल कोई असमंजस की स्थिति नहीं है। दूसरी ओर सीट शेयरिंग को लेकर जदयू के फार्मूले पर ही एकमत होने के आसार हैं। जिन-जिन सीटों पर जदयू के सांसद विजयी हुए हैं उनकी तमाम विधानसभा सीटों पर जदयू अपने प्रत्याशी उतार सकती है। जदयू के पास इसके तर्क भी हैं कि इन सीटों पर मुस्लिम वोटरों की बड़ी तादाद है और यहां से उनके सांसद लोकसभा पहुंचे हैं, साथ ही इनमें से अधिकांश पर उनकी पार्टी का दबदबा भी है। वैसे भाजपा फिफ्टी-फिफ्टी पर तैयार होगी या जदयू को बड़ा भाई मानकर उसकी शर्तें मानेगी इसपर फिलहाल केवल कयास ही हैं। पिछले चुनावों में घायल और फिलहाल हांफते-फूलते विपक्ष को भी ये समझ नहीं आ रहा कि वो एनडीए के मुकाबले जीत के लिए कौन सा मूलमंत्र तैयार करें। इधर, जदयू अभी से चुनावी मोड में नज़र आने लगी है और अपने लोकप्रिय मुख्यमंत्री के कार्यों को जनता तक पहुंचाने और उनसे सीधे संवाद करने की तैयारी शुरू हो गयी है। अच्छा है, सच्चा है, चलो नीतीश के साथ चलें जैसे नारों ने पार्टी को जहां संबल दिया है वहीं कई और नारों और स्लोगन पर काम चल रहा है। जानकार बताते हैं कि बिहार से पहले होने वाले झारखंड और दिल्ली जैसे राज्यों के चुनावों से भी एनडीए की रणनीति का कुछ खुलासा होगा क्योंकि अगर इन राज्यों में भाजपा चुनाव जीतने में कामयाब होती है तो बिहार में पार्टी का आत्मविश्वास और बढ़ेगा और यह जदयू के लिए नई परेशानी खड़ी कर सकता है।