मीरा चरित्र- “मीरा तुम्हें अपनी यह माँ कैसी लगती है ?” वीरमदेव जी

भाग – १८

यों तो मेड़ते के रनिवास में गिरिजा जी, वीरम देव जी (दूदा जी के सबसे बड़े बेटे) की तीसरी पत्नी थी, किन्तु पटरानी वही थी। उनका ऐश्वर्य देखते ही बनता था। पीहर से उनके विवाह के समय में पचासों दास दासियाँ साथ आए थे और परम प्रतापी हिन्दु सूर्य महाराणा साँगा की लाडली बहन का वैभव एवं सम्मान यहाँ सबसे अधिक था। पूरे रनिवास में उनकी उदार व्यवहारिकता में भी उनका ऐश्वर्य उपस्थित रहता।

मीरा उनकी बहुत दुलारी बेटी थी। ये उसकी सुन्दरता, सरलता पर जैसे न्यौछावर थी। बस, उन्हें उसका आठों प्रहर ठाकुर जी से चिपके रहना नहीं सुहाता था। किसी दिन त्योहार पर भी मीरा को श्याम कुन्ज से पकड़ कर लाना पड़ता। मीरा को बाँधने के तो दो ही पाश थे, भक्तभगवत चर्चा अथवा वीर गाथा। जब भी गिरिजा जी मीरा को पाती, उसे बिठाकर अपने पूर्वजों की शौर्य गाथा सुनाती। मीरा को वीर और भक्तिमय चरित्र रूचिकर लगते।

रात ठाकुर जी को शयन करा कर मीरा उठ ही रही थी कि गिरिजा जी की दासी ने आकर संदेश दिया, “बड़े कुँवरसा आपको बुलवा रहे है।”

“क्यों अभी ही ?” मीरा ने चकित हो पूछा और साथ ही चल दी।

उसने महल में जाकर देखा कि उसके बड़े पिता जी और बड़ी माँ दोनों प्रसन्न चित बैठे थे। मीरा भी उन्हें प्रणाम कर बैठ गई।

“मीरा तुम्हें अपनी यह माँ कैसी लगती है ?” वीरमदेव जी ने मुस्कुरा कर पूछा।

“माँ तो माँ होती है। माँ कभी बुरी नहीं होती।” मीरा ने मुस्कुरा कर कहा।

“और इनके पीहर का वंश, वह कैसा है ?”

“यों तो इस विषय में मुझसे अधिक आप जानते होंगे। पर जितना मुझे पता है तो हिन्दु सूर्य, मेवाड़ का वंश संसार में वीरता, त्याग, कर्तव्य पालन और भक्ति में सर्वोपरि है। मेरी समझ में तो बाव जी हुकम ! आरम्भ में सभी वंश श्रेष्ठ ही होते है उसके किसी वंशज के दुष्कर्म के कारण अथवा हल्की ज़गह विवाह – सम्बन्ध से लघुता आ जाती है।”

“बेटी, तुम्हारे इन माँ के भतीजे है भोज राज। रूप और गुणों की खान “मैंने सुना है।” मीरा ने बीच में ही कहा। “वंश और पात्र में कहीं कोई कमी नहीं है। गिरिजा जी तुझे अपने भतीजे की बहू बनाना चाहती है।”

“बाव जी हुकम !” मीरा ने सिर झुका लिया,” ये बातें बच्चों से तो करने की नहीं है।”

“जानता हूँ बेटी ! पर दादा हुकम ने फरमाया है कि मेरे जीवित रहते मीरा का विवाह नहीं होगा। बेटी बाप के घर में नहीं खटती बेटा ! यदि तुम मान जाओ तो दाता हुकम को मनाना सरल हो जायेगा। बाद में ऐसा घर-वर शायद न मिले। मुझे भी तुमसे ऐसी बातें करना अच्छा नहीं लग रहा है, किन्तु कठिनाई ही ऐसी आन पड़ी है तुम्हारी माताएँ कहती हैं कि हमसे
ऐसी बात कहते नहीं बनती। पहले योग-भक्ति सिखाई अब विवाह के लिए पूछ रहे हैं। इसी कारण स्वयं पूछ रहा हूँ बेटी।”

‘बावजी हुकम !’ रूंधे कंठसे मीरा केवल सम्बोधन ही कर पायी। ढलने को आतुर आंसुओं से भरी बड़ी-बडी आंखें उठाकर उसने अपने बड़े पिता की और देखा। ह्रदय के आवेग को अदम्य पाकर वह एकदम से उठकर माता-पिता को प्रणाम किए बिना ही दौड़ती हुई कक्ष से बाहर निकल गई।

वीरम देव जी नें देखा-मीरा के रक्त विहीन मुख पर व्याघ्र के पंजे में फँसी गाय के समान भय, विवशता और निराशा के भाव और मरते पशु के आर्तनाद सा विकल स्वर ‘बाव जी हुकम’ कानों मे पड़ा तो वे विचलित हो उठे। वे रण में प्रलयंकर बन कर शवों से धरती पाट सकते हैं; निशस्त्र व्याघ्र से लड़ सकते हैं किन्तु अपनी पुत्री की आँखों में विवशता नहीं देखस के। उन्हें तो ज्ञात ही नहीं हुआ कि मीरा” बाव जी हुकम” कहते कब कक्ष से बाहर चली गई।

क्रमशः

आचार्य स्वामी विवेकानन्द जी
सरस् श्रीरामकथा व श्रीमद्भागवत कथा व्यास श्रीधाम श्री अयोध्या जी

संपर्क सूत्र9044741252

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