एनडीए विवाद- “ऐसे हीं कोई बेवफा नहीं होता”

“ऐसे हीं कोई बेवफा नहीं होता” जी हाँ ये कहावत एनडीए के घटक दल के नेता चिराग पासवान पर बिलकुल सटीक बैठती है. बिहार में एनडीए के घटक और इसके नेता बीजेपी और जेडीयू के रिश्ते से नाराज होकर कई बार टूटे. टूटने का कारण कभी भी बीजेपी नहीं रही है. घटक दल नीतीश कुमार की कार्यशैली से नाराज होकर बीजेपी अलाकमान से शिकायत करते तो जरुर थें पर बीजेपी नीतीश कुमार आगे शुरू से हीं नतमस्तक रही है.

आखिर क्या वजह है कि बिहार में बीजेपी और जेडीयू के अलावे कोई भी दल एनडीए के साथ लम्बी पारी नहीं खेल पाया है ? चिराग पासवान जिस तरह से संकल्प से साथ मैदान में अपने हीं गठबंधन के नेता के खिलाफ नाराजगी व्यक्त कर रहे हैं यह बीजेपी के लिए बहुत सोचनीय है. आखिर क्या वजह है कि चिराग बगावत कर रहे हैं ?

बिहार में लालू राज को जंगलराज बता कर सत्ता हासिल करने के बाद उस 15 साल के भय को आम जनमानस के दिलोदिमाग पर बैठा दिया गया और उस वक़्त की अछूत भाजपा को नीतीश का सहारा मिला. भाजपा ने भी मौके की नजाकत और परिस्थितयों को देखते हुए नीतीश कुमार को बिहार का सरकार बना दिया.

गठबंधन में दल जुड़ते गयें और बिहार में कई दलों ने राजद का साथ छोड़कर बीजेपी के साथ हो लिए. समाजवादी नेता शरद यादव, जार्ज फर्नांडिस, उपेन्द्र कुशवाहा, जीतन राम मांझी, रामविलास पासवान आदि में कई नेताओं ने कई बार तो कुछ ने एक हीं बार में हमेशा के लिए एनडीए को बाय-बाय कर दिया. एक बार तो खुद नीतीश ने भी एनडीए को तलाक दे कर सुसुप्ता अवस्था में पड़ी राजद में नयी जान फूंकने का काम किया था.

बीजेपी अलाकमान ने कभी भी अपने अन्य घटक दलों के आगे झुकने या समझौता करने के बजाय नीतीश पर हीं भरोसा जताया. भरोसा का कारण भी था कि चुनावों में बिहार की जनता ने एनडीए को बड़ी बहुमत से सरकार बनाने का मत दिया जिस पर पिछले चुनाव के पूर्व जहाँ उपेन्द्र कुशवाहा ने अपनी अलग डफली महागठबंधन के साथ बजाई तो शरद यादव ने नीतीश कुमार का साथ छोड़ कर राजद में शामिल हो गए.

पिछले एक दशक में जो एक बातें बिलकुल अलग नजर आयीं वो थी समाजवाद. सभी तथाकथित समाजवादी नेता अपने सिद्धांतों से भटके नजर आयें. जो समाजवाद आरम्भ से हीं कांग्रेस का घोर विरोधी हुआ करता था वो कांग्रेस की गोद में जाकर बैठ गए. इस चुनाव में तो समाजवाद की नयी पीढ़ी ने भी कांग्रेस का दामन थाम कर समाजवाद की बोरिया बिस्तर समेटने को मजबूर कर दिया. आपको बताते चलें कि समाजवादी नेता शरद यादव की पुत्री बिहार में कांग्रेस के टिकट से चुनाव लड़ रहीं हैं.

अब बात करते हैं लोजपा और जेडीयू के संबंधों पर. इस चुनाव में सबकी नजर लोजपा पर टिकी है. यदि लोजपा अपने पारंपरिक दलित वोटों के कुछ प्रतिशत को भी शिफ्ट करने में सफल हो गयी तो नीतीश कुमार के लिए बड़ी मुसीबत हो सकती है. यहाँ कुछ प्रतिशत से असर इसलिए पड़ेगा क्योंकि एनडीए के शहरी वोटरों का मत प्रतिशत इस बार हर हाल में काफी गिरेगा. इस महामारी में सब्जीमंडी की बजाय घर के पास से गुजरने वाली ठेले से सामान खरीदने वाले शहरी वोटर किसी भी सूरत में मतदान का प्रयोग करेंगे यह एक बड़ा सवाल है.

मधुप मणि “पिक्कू”

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