कामाख्या मंदिर- जानिए मां कामाख्या देवी की कथा

गुवाहाटी से करीब 8 किलोमीटर की दूरी पर स्थित कामाख्या मंदिर नीलांचल पर्वत के मध्य में स्थित है यह मंदिर प्रसिद्ध 108 शक्तिपीठों में से एक है. इस मंदिर को लेकर कई कथाएं प्रचलित हैं. लेकिन 51 शक्तिपीठों में से सबसे महत्वपूर्ण माने जाने वाला यह मंदिर रजस्वला माता की वजह से ज़्यादा ध्यान आकर्षित करता है. यहां चट्टान के रूप में बनी योनि से रक्त निकलता है. भारतीय समाज में जहां एक ओर रजस्वला स्त्रियों को अपवित्र मानकर धार्मिक पूजा-पाठ व मन्दिर में प्रवेश करना वर्जित माना जाता है वहीं दूसरी ओर शक्ति की प्रतीक मां कामाख्या देवी को रजस्वला होने के दौरान पवित्र मानकर पूजा जाता है.

प्रचलित कथा के अनुसार देवी सति ने भगवान शिव से शादी की. इस शादी से सति के पिता राजा दक्ष खुश नहीं थे. एक बार राजा दक्ष ने एक यज्ञ का आयोजन किया लेकिन इसमें सति के पति भगवान शिव को नहीं बुलाया. सति इस बात से नाराज़ हुईं और बिना बुलाए अपने पिता के घर पहुंच गई. इस बात पर राजा दक्ष ने उनका और उनके पति का बहुत अपमान किया. अपने पति का अपमान उनसे सहा नहीं गया और हवन कुंड में कूद गई. पिता दक्ष के द्वारा किए जा रहे यज्ञ की अग्नि में कूदकर सती के आत्मदाह करने के बाद जब महादेव उनके शव को लेकर तांडव कर रहे थे. तब भगवान विष्णु ने उनके क्रोध को शांत करने के लिए अपना सुदर्शन चक्र छोड़कर सती के शव के 51 टुकड़े कर दिए थे। उस समय जहां सती की योनि और गर्भ आकर गिरे थे, आज उस स्थान पर कामाख्या मंदिर स्थित है. यह मंदिर 17वीं सदी में बिहार के राजा नारा नारायणा ने बनाया.

प्राचीन समय की बात है कि एक बार नरकासुर नाम का राक्षस देवी कामाख्या की सुंदरता पर मोहित होकर, उनसे प्रेम करने लगा और फिर वह मां कामाख्या देवी से विवाह करना चाहता था. छुटकारा पाने के लिए नरकासुर के समक्ष एक शर्त रख दी. देवी ने नरकासुर से कहा कि यदि वह एक ही रात में नीलांचल पर्वत से मंदिर तक सीढि़यां बना पाएगा तो ही वह उससे विवाह कर लेगी. नरका ने देवी की शर्त स्वीकार कर ली.

जब देवी को लगा कि नरका इस कार्य को पूरा कर लेगा तो उन्होंने एक चाल चली. देवी ने एक कौवे को मुर्गा बनाकर उसे प्रातःकाल से पहले ही आवाज देने को कहा. उसे यह पता चला कि उसके साथ छल किया गया है तो वह उस मुर्गे को मारने दौड़ा और उसकी बलि दे दी. जिस स्थान पर मुर्गे की बलि दी गई उसे कुकुराकता नाम से जाना जाता है. तत्पश्चात मां भगवती की माया से भगवान विष्णु ने नरकासुर असुर का वध कर दिया. नरकासुर के नीच कार्यों के बाद एवं विशिष्ट मुनि के अभिशाप से देवी अप्रकट हो गयी थीं और कामदेव द्वारा प्रतिष्ठित कामाख्या मंदिर ध्वंसप्राय हो गया था.

इस मंदिर में हर साल अंबुवाची मेले का आयोजन किया जाता है. इस मेले में देशभर के तांत्रिक हिस्सा लेने आते हैं. पौराणिक सत्य है कि अम्बूवाची पर्व के दौरान मां भगवती रजस्वला होती हैं और मां भगवती की गर्भ गृह स्थित महामुद्रा (योनि-तीर्थ) से निरंतर तीन दिनों तक जल-प्रवाह के स्थान से रक्त प्रवाहित होता है. ऐसी मान्यता है कि प्रत्येक वर्ष जून के महीने में कामाख्या देवी रजस्वला होती हैं इन तीन दिनों के लिए मंदिर के दरवाजे बंद रहते हैं. तीन दिनों के बाद बड़ी धूमधाम से इन्हें खोला जाता है. हर साल मेले के दौरान मौजूद ब्रह्मपुत्र नदी का पानी लाल हो जाता है. ऐसा माना जाता है कि ये पानी माता के रजस्वला होने का कारण होता है. यह अपने आप में, इस कलयुग में एक अद्भुत आश्चर्य सा प्रतीत होता है.

कामाख्या तंत्र के अनुसारयोनि मात्र शरीराय कुंजवासिनि कामदा. रजोस्वला महातेजा कामाक्षी ध्येताम सदा॥

इतना ही नहीं यहां दिया जाने वाले वाला प्रसाद भी रक्त में डूबा कपड़ा होता है. ऐसा कहा जाता है कि तीन दिन जब मंदिर के दरवाजे बंद किए जाते हैं तब मंदिर में एक सफेद रंग का कपड़ा बिछाया जाता है जो मंदिर के पट खोलने तक लाल हो जाता है. इसी लाल कपड़े को इस मेले में आए भक्तों को दिया जाता है. इस प्रसाद को अंबुवाची प्रसाद भी कहा जाता है. इस मंदिर में कोई भी मूर्ति नहीं है. यहां सिर्फ योनि रूप में बनी एक समतल चट्टान को पूजा जाता हैं. मूर्तियां साथ में बने एक मंदिर में स्थापित की गई हैं. इस मंदिर में पशुओं की बली भी दी जाती है. लेकिन यहां किसी भी मादा जानवर की बलि नहीं दी जाती है.

खैर, सच्चाई जो भी हो! इस मंदिर के आर्षकण का केंद्र रजस्वला रक्त की पूजा है, जिसे देखने यहां हर साल बहुत लोग आते हैं.

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