गीता के अमृत तत्व, इसे सभी को जरूर पढ़ना चाहिए। खूब पढ़े और शेयर करें

।।गीता।।

यह गीता के अमृत तत्व हैं। शायद आप सभी को समझने में बहुत सरलता होगी।

 

।।श्लोक।।

_धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सव:।_

_मामका: पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत सञ्जय॥ १॥_

अर्थ:

हे संजय! धर्मभूमि कुरुक्षेत्रमें इकट्ठे हुए युद्धकी इच्छावाले मेरे और पाण्डुके पुत्रोंने भी क्या किया ?

 

।।शब्द विन्यास।।

सञ्जय = हे संजय!

धर्मक्षेत्रे = धर्मभूमि

कुरुक्षेत्रे = कुरुक्षेत्रमें

समवेता: = इकट्ठे हुए

युयुत्सव: = युद्धकी इच्छावाले

मामका: = मेरे

च = और

पाण्डवा: = पाण्डुके पुत्रोंने

एव = भी

किम् = क्या

अकुर्वत = किया ?

 

धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे —कुरुक्षेत्रमें देवताओंने यज्ञ किया था। राजा कुरुने भी यहाँ तपस्या की थी। यज्ञादि धर्ममय कार्य होनेसे तथा राजा कुरुकी तपस्याभूमि होनेसे इसको धर्मभूमि कुरुक्षेत्र कहा गया है।

यहाँ ‘धर्मक्षेत्रे’ और ‘कुरुक्षेत्रे’ पदोंमें ‘क्षेत्र’ शब्द देनेमें धृतराष्ट्रका अभिप्राय है कि यह अपनी कुरुवंशियोंकी भूमि है। यह केवल लड़ाईकी भूमि ही नहीं है, प्रत्युत तीर्थभूमि भी है, जिसमें प्राणी जीते-जी पवित्र कर्म करके अपना कल्याण कर सकते हैं। इस तरह लौकिक और पारलौकिक सब तरहका लाभ हो जाय—ऐसा विचार करके एवं श्रेष्ठ पुरुषोंकी सम्मति लेकर ही युद्धके लिये यह भूमि चुनी गयी है।

संसारमें प्राय: तीन बातोंको लेकर लड़ाई होती है—भूमि, धन और स्त्री। इन तीनोंमें भी राजाओंका आपसमें लडऩा मुख्यत: जमीनको लेकर होता है। यहाँ ‘कुरुक्षेत्रे’ पद देनेका तात्पर्य भी जमीनको लेकर लडऩेमें है।

कुरुवंश में धृतराष्ट्र और पाण्डुके पुत्र सब एक हो जाते हैं। कुरुवंशी होने से दोनों का कुरुक्षेत्रमें अर्थात् राजा कुरुकी जमीनपर समान हक लगता है। इसलिये (कौरवों द्वारा पाण्डवोंको उनकी जमीन न देने के कारण) दोनों जमीनके लिये लड़ाई करने आये हुए हैं।

यद्यपि अपनी भूमि होनेके कारण दोनों के लिये ‘कुरुक्षेत्रे’ पद देना युक्तिसंगत, न्यायसंगत है, तथापि हमारी सनातन वैदिक संस्कृति ऐसी विलक्षण है कि कोई भी कार्य करना होता है तो वह धर्मको सामने रखकर ही होता है। युद्ध-जैसा कार्य भी धर्मभूमि—तीर्थभूमिमें ही करते हैं, जिससे युद्धमें मरनेवालोंका उद्धार हो जाय, कल्याण हो जाय। अत: यहाँ कुरुक्षेत्रके साथ ‘धर्मक्षेत्रे’ पद आया है।

यहाँ आरम्भमें ‘धर्म’ पदसे एक और बात भी मालूम होती है। अगर आरम्भके ‘धर्म’ पद में से ‘धर् ’ लिया जाय और अठारहवें अध्यायके अन्तिम श्लोकके ‘मम’ पद में से ‘म’ लिया जाय, तो ‘धर्म’ शब्द बन जाता है। अत: सम्पूर्ण गीता धर्म के अन्तर्गत है, अर्थात् धर्म का पालन करनेसे गीता के सिद्धान्तों का पालन हो जाता है और गीता के सिद्धान्तोंके अनुसार कर्तव्य-कर्म करनेसे धर्म का अनुष्ठान हो जाता है।

इन ‘धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे’ पदों से सभी मनुष्यों को यह शिक्षा लेनी चाहिये कि कोई भी काम करना हो तो वह धर्मको सामने रखकर ही करना चाहिये। प्रत्येक कार्य सबके हितकी दृष्टि से ही करना चाहिये, केवल अपने सुख-आराम की दृष्टिशसे नहीं; और कर्तव्य-अकर्तव्य के विषय में शास्त्रको सामने रखना चाहिये (गीता—सोलहवें अध्यायका चौबीसवाँ श्लोक)।

 

समवेता युयुत्सव:राजाओं के द्वारा बार-बार सन्धिका प्रस्ताव रखने पर भी दुर्योधनने सन्धि करना स्वीकार नहीं किया। इतना ही नहीं, भगवान् श्रीकृष्ण के कहने पर भी मेरे पुत्र दुर्योधन ने स्पष्ट कह दिया कि बिना युद्धके मैं तीखी सूईकी नोक-जितनी जमीन भी पाण्डवोंको नहीं दूँगा। तब मजबूर होकर पाण्डवों ने भी युद्ध करना स्वीकार किया है। इस प्रकार मेरे पुत्र और पाण्डुपुत्र—दोनों ही सेनाओं के सहित युद्ध की इच्छासे इकट्ठे हुए हैं।

दोनों सेनाओं में युद्ध की इच्छा रहनेषपर भी दुर्योधन में युद्ध की इच्छा विशेष रूप से थी। उसका मुख्य उद्देश्य राज्य-प्राप्ति का ही था। वह राज्य-प्राप्ति धर्म से हो चाहे अधर्म से, न्यायसे हो चाहे अन्यायसे, विहित रीति से हो चाहे निषिद्ध रीति से, किसी भी तरहसे हमें राज्य मिलना चाहिये—ऐसा उसका भाव था। इसलिये विशेष रूप से दुर्योधन का पक्ष ही युयुत्सु अर्थात् युद्ध की इच्छा वाला था।

पाण्डवों में धर्म की मुख्यता थी। उनका ऐसा भाव था कि हम चाहे जैसा जीवन-निर्वाह कर लेंगे, पर अपने धर्म में बाधा नहीं आने देंगे, धर्म के विरुद्ध नहीं चलेंगे। इस बातको लेकर महाराज युधिष्ठिर युद्ध नहीं करना चाहते थे। परन्तु जिस माँ की आज्ञा से युधिष्ठिरने चारों भाइयों सहित द्रौपदीसे विवाह किया था, उस माँ की आज्ञा होने के कारण ही महाराज युधिष्ठिर की युद्ध में प्रवृत्ति हुई थी, अर्थात् केवल माँ के आज्ञा-पालन रूप धर्म से ही युधिष्ठिर युद्ध की इच्छा वाले हुए हैं। तात्पर्य है कि दुर्योधन आदि तो राज्यको लेकर ही युयुत्सु थे, पर पाण्डव धर्म को लेकर ही युयुत्सु बने थे।

 

मामका: पाण्डवाश्चैव—पाण्डव धृतराष्ट्र को (अपने पिता के बड़े भाई होने से) पिता के समान समझते थे और उनकी आज्ञाका पालन करते थे। धृतराष्ट्र के द्वारा अनुचित आज्ञा देने पर भी पाण्डव उचित-अनुचित का विचार न करके उनकी आज्ञाका पालन करते थे। अत: यहाँ ‘मामका:’ पद के अन्तर्गत कौरव १ और पाण्डव दोनों आ जाते हैं। फिर भी ‘पाण्डवा:’ पद अलग देने का तात्पर्य है कि धृतराष्ट्र का अपने पुत्रों में तथा पाण्डु पुत्रों में समान भाव नहीं था। उनमें पक्षपात था, अपने पुत्रों के प्रति मोह था। वे दुर्योधन आदि को तो अपना मानते थे, पर पाण्डवों को अपना नहीं मानते थे। २ इस कारण उन्होंने अपने पुत्रोंके लिये ‘मामका:’ और पाण्डु पुत्रों के लिये ‘पाण्डवा:’ पद का प्रयोग किया है; क्योंकि जो भाव भीतर होते हैं, वे ही प्राय: वाणी से बाहर निकलते हैं। इस द्वैधीभावके कारण ही धृतराष्ट्रको अपने कुलके संहारका दु:ख भोगना पड़ा। इससे मनुष्य मात्र को यह शिक्षा लेनी चाहिये कि वह अपने घरों में, मुहल्लों में, गाँवों में, प्रान्तों में, देशों में, सम्प्रदायों में द्वैधीभाव अर्थात् ये अपने हैं, ये दूसरे हैं—ऐसा भाव न रखे। कारण कि द्वैधीभाव से आपस में प्रेम, स्नेह नहीं होता, प्रत्युत कलह होती है।

यहाँ ‘पाण्डवा:’ पद के साथ ‘एव’ पद देने का तात्पर्य है कि पाण्डव तो बड़े धर्मात्मा हैं; अत: उन्हें युद्ध नहीं करना चाहिये था। परन्तु वे भी युद्धके लिये रणभूमि में आ गये तो वहाँ आकर उन्होंने क्या किया?

 

‘मामका:’ और ‘पाण्डवा:’ —इनमें से पहले

‘मामका:’ पदका उत्तर संजय आगे के (दूसरे) श्लोकसे तेरहवें श्लोक तक देंगे कि आपके पुत्र दुर्योधन ने पाण्डवों की सेना को देखकर द्रोणाचार्यके मन में पाण्डवों के प्रति द्वेष पैदा करने के लिये उनके पास जाकर पाण्डवों के मुख्य-मुख्य सेनापतियों के नाम लिये। उसके बाद दुर्योधन ने अपनी सेना के मुख्य-मुख्य योद्धाओं के नाम लेकर उनके रण-कौशल आदि की प्रशंसा की। दुर्योधन को प्रसन्न करने के लिये भीष्म जी ने जोर से शंख बजाया। उसको सुनकर कौरव-सेना में शंख आदि बाजे बज उठे। फिर चौदहवें श्लोकसे उन्नीसवें श्लोक तक ‘पाण्डवा:’ पद का उत्तर देंगे कि रथ में बैठे हुए पाण्डव पक्षीय भगवान् श्रीकृष्णने शंख बजाया। उसके बाद अर्जुन, भीम, युधिष्ठिर, नकुल, सहदेव आदि ने अपने-अपने शंख बजाये, जिससे दुर्योधन की सेना का हृदय दहल गया। उसके बाद भी संजय पाण्डवों की बात कहते-कहते बीसवें श्लोक से श्रीकृष्ण और अर्जुनके संवादका प्रसंग आरम्भ कर देंगे।

 

‘किमकुर्वत’— ‘किम्’ शब्दके तीन अर्थ होते हैं— विकल्प, निन्दा (आक्षेप) और प्रश्न।

युद्ध हुआ कि नहीं ? इस तरहका विकल्प तो यहाँ लिया नहीं जा सकता; क्योंकि दस दिन तक युद्ध हो चुका है, और भीष्म जी को रथ से गिरा देने के बाद संजय हस्तिनापुर आकर धृतराष्ट्र को वहाँ की घटना सुना रहे हैं।

‘मेरे और पाण्डु के पुत्रों ने यह क्या किया, जो कि युद्ध कर बैठे! उनको युद्ध नहीं करना चाहिये था’—ऐसी निन्दा या आक्षेप भी यहाँ नहीं लिया जा सकता; क्योंकि युद्ध तो चल ही रहा था और धृतराष्ट्र के भीतर भी आक्षेपपूर्वक पूछने का भाव नहीं था।

यहाँ ‘किम् ’ शब्दका अर्थ प्रश्न लेना ही ठीक बैठता है। धृतराष्ट्र संजय से भिन्न-भिन्न प्रकार की छोटी-बड़ी सब घटनाओं को अनुक्रम से विस्तारपूर्वक ठीक-ठीक जानने के लिये ही प्रश्न कर रहे हैं।

 

परिशिष्ट भाव—’मेरे पुत्र (मामका:) और ‘पाण्डुके पुत्र’ (पाण्डवा:)—इस मतभेदसे ही राग-द्वेष पैदा हुए, जिससे लड़ाई हुई, हलचल हुई। धृतराष्ट्र के भीतर पैदा हुए राग-द्वेषका फल यह हुआ कि सौ-के-सौ कौरव मारे गये, पर पाण्डव एक भी नहीं मारा गया!

जैसे दही बिलोते हैं तो उसमें हलचल पैदा होती है, जिससे मक्खन निकलता है, ऐसे ही ‘मामका:’ और ‘पाण्डवा:’ के भेदसे पैदा हुई हलचलसे अर्जुनके मनमें कल्याणकी अभिलाषा जाग्रत् हुई, जिससे भगवद्गीतारूपी मक्खन निकला!

 

।।तात्पर्य।।

तात्पर्य यह हुआ कि धृतराष्ट्रके मनमें होनेवाली हलचलसे लड़ाई पैदा हुई और अर्जुनके मनमें होनेवाली हलचलसे गीता प्रकट हुई!

 

।। नित्य वन्दनीय पूज्यश्री के भाव।।

।।स्वमी श्री रामसुखदास जी।।

प्रेषक:-आचार्य स्वामी विवेकानन्द जी

श्रीधाम श्री अयोध्या जी

संपर्क सूत्र:-9044741252

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