दिल्ली डायरी : बावटा की तरफ

कमल की कलम से !

अपनी दिल्ली !

आज हम आपको अभी तक की सबसे विचित्र यात्रा में दिल्ली के एक ऐसे टॉवर की तरफ लिए चलते हैं जिसे दिल्ली के सबसे ऊँची जगह पर माना जाता था. यह एक गोलाकार बुर्ज है जो अपने आप में स्वतंत्रता संग्राम का एक बहुत महत्वपूर्ण इतिहास छुपाए हुए है. कितना तकलीफदेह बात है कि इस टॉवर के मुख्य द्वार पर तैनात गार्ड को इस टॉवर के बारे में कुछ भी पता तो छोड़िए नाम तक नहीं पता है.

अपनी दिल्ली अपने कदम कदम पर कई ऐतिहासिक क्षणों की गवाह रही है. कालचक्र के पन्ने बताते हैं कि दिल्ली का इतिहास महाभारत जितना ही प्राचीन है. चाहे इंद्रप्रस्थ के तौर पर पांडवों का निवास हो या फिर मुगल शासकों द्वारा ऐतिहासिक इमारतों का निर्माण, दिल्ली हर दौर की साक्षी रही है.

1947 की क्रांति और उससे पूर्व हुए स्वाधीनता आंदोलन में भी दिल्ली विश्व पटल पर अग्रणी भूमिका में रही है. दिल्ली ने देश की मिट्टी की आज़ादी के लिए लड़ने वाले कई वीरों का हौसला देखा है। उनका जुनून, उनकी दीवानगी देखी है. अपनी दिल्ली ने कई वीरों के बलिदान भी देखे, जिनके शहीद होने पर दिल्ली ने उन्हें अपनी मिट्टी में पनाह भी दी है.

तो जब मुझे पता चला इस टॉवर के बारे में जिसको फ्लैग स्टाफ टॉवर के नाम से जाना जाता है तो हमने इसे खोजने की ठानी. पता चला कि यह दिल्ली विश्वविद्यालय के पास की पहाड़ी के उत्तरी भाग की चोटी पर स्थित है. दिल्ली विश्वविद्यालय के पास पहुँचकर आस पास के लोगों से और ठेला खोमचा वालों से इसके बारे में पूछा पर कोई भी नहीं बता पाया. जब मैंने जी पी एस लगाया तो वह 240 मीटर की दूरी पर बता रहा था. उसी के सहारे जब बढ़ना शुरू ही किया कि सामने एक बन्द फाटक मिला जिसके अंदर एक गार्ड बैठा हुआ था. उससे इसके बारे में पूछने पर उसने भी अनभिज्ञता ही जाहिर किया। उसे जब मैंने बताया कि इस गेट के अंदर ही कुछ दूरी पर यह बता रहा है. उसने बताया कि यह गेट 4 बजे ही खुल सकता है और तब 3 ही बज रहा था. उसने सलाह दिया कि मैं घूमकर माल रोड की तरफ पीछे से चला जाऊं उधर से गेट खुला मिलेगा। मैं फिर से जी पी एस की मदद से आगे बढ़ा तो पौने 2 किलोमीटर चलकर जब उस गेट तक पहुँचा तो उसे भी बन्द ही पाया. अंदर बैठे गार्ड से जब फ्लैग स्टाफ टॉवर के बारे में पूछा तो उसने भी अनभिज्ञता ही प्रकट किया. उसने कहा यह तो कमला नेहरू रिज पार्क है. और ज्यादा बात करने पर उसने बताया कि ओहह आप शायद बावटा की बात कर रहे हैं. वह तो अंदर ही पहाड़ी के ऊपर है लेकिन आपको थोड़ा इंतजार करना होगा क्योंकि 4 बजने में 10 मिनट बाँकी है और यह गेट 4 बजे ही खुलेगा.
गेट खुलने के बाद जब उसके बताये रास्ते और जी पी एस की मदद से ऊपर पहुँचा तो इस टॉवर के दर्शन हुए.
और जब सामने की तरफ नीचे देखा तो मन गुस्से से भर उठा क्योंकि करीब 150 मीटर की दूरी पर पहले वाला गेट और गार्ड नजर आ रहा था जिसने मुझे बेवजह 2 किलोमीटर की दौड़ लगवा दिया.

अब आपको बताते हैं इस टॉवर के बारे में.
प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में शाही सैनिक लगातार अंग्रेजों को कड़ी टक्कर दे रहे थे. इसी फ्लैगस्टाफ टॉवर में स्वतंत्रता संग्राम के सेनानियों के डर से भागकर अंग्रेज महिलाओं और बच्चों ने पनाह ली थी. अंग्रेजों का अत्याचार उन दिनों इतना बढ़ गया था कि सैनिक और आम जन उनको कहीं भी जिंदा देखना नहीं चाहते थे. उस दौरान अंग्रेजों जान बचाकर भागते फिर रहे थे.

100 आदमी के रहने लायक इस टावर को 1829 में एक सिग्नल टॉवर के रूप में बनाया गया था। उस वक्त ये शाहजहांनाबाद के बाहर का सबसे ऊंचा इलाका था. ऊंचाई अधिक होने के कारण यहां से पूरे शहर को देखा जा सकता था। इसलिए यह सेना के लिए बहुत उपयोगी था। अंग्रेज नहीं चाहते थे कि सेना शहर के अंदर रहे इसलिए वे बाहर बैरक बनाकर रहते थे. स्वतंत्रता संग्राम के समय इस टावर के समीप तोपखाना शाही सैनिकों के हाथ में न आ जाए, इसलिए अंग्रेजों ने इसे उड़ा दिया था.

1857 के भारतीय विद्रोह के दौरान फ्लैगस्टाफ टॉवर ने एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, जब दिल्ली पर विद्रोही ईस्ट इंडिया कंपनी बलों ने कब्जा कर लिया था. 11 मई 1857 की सुबह, जब सिपाहियों ने छावनी, सिविल लाइंस और दिल्ली के चारदीवारी शहर में यूरोपीय कर्मियों और ईसाई भारतीयों का शिकार करना और उन्हें मारना शुरू कर दिया तो बचे हुए लोग टॉवर की ओर भागने लगे. एक महीने बाद कंपनी की सेना दिल्ली पर कब्जा करने के लिए लौट आई, जो अब सिपाहियों के पास थी. 7 जून को, उन्हें फ्लैगस्टाफ टॉवर पर सिपाहियों के कड़े प्रतिरोध का सामना करना पड़ा. इसके बाद एक भीषण युद्ध हुआ जिसमें बड़ी संख्या में सैनिक मारे गए और घायल हुए। हालांकि, शाम के पांच बजे तक रिज पर फिर से कब्जा कर लिया गया था.

1857 के विद्रोह के समय लालकिले से भागकर अंग्रेज इसी टावर पर रुके और फिर अंबाला और करनाल की तरफ चले गए। 11 मई से 12 सितंबर तक फ्लैगस्टाफ टावर अंग्रेजों की सैन्य गतिविधियों का केंद्र रहा. अंग्रेज उस समय आमने-सामने की लड़ाई लड़ने से बचते थे. बार-बार यहां से सैनिक टुकड़ियां आगे बढ़ती गईं। जब यहां छोटी लड़ाई जीती जाती बैंड बजता था. फ्लैगस्टाफ टावर दोबारा अंग्रेजों द्वारा दिल्ली को फतह करने की योजना का गवाह बना क्योंकि सारी योजनाएं इसी के आसपास बनी.

एक मजेदार बात कि इस टावर का पर अंग्रेजी शासन का झंडा लहराता था जिसके कारण आज भी पुरानी दिल्ली के लोगों में यह स्थान बावटा नाम से मशहूर है. इसका मतलब झंडा फहराने वाला स्थान होता है. लेकिन अंग्रेजी शासकों का झंडा ज्यादा वक्त तक नहीं लहरा सका. आज यह टॉवर तो है. उस के बुर्ज पर वो डंडा भी है पर उसमें उसका झंडा नहीं है. इस खाली डंडे को आप तस्वीर में भी देख सकते हैं.

सदियों का इतिहास अपने अंदर संजोए यह इमारत आज भी दिल्ली की सरजमीं पर खड़ी है. इस इमारत में आज भी विद्रोही सैनिकों से अंग्रेजों का डर गूंजता है और आजादी की पहली जंग की हुंकार को सलामी देता है. इस बात का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि वर्तमान में इस फ्लैग स्टाफ टावर पर झंडे का डंडा तो है, लेकिन झंडा नहीं.
वहीं अंग्रेजी शासन में वीरान जैसी दिखने वाली यह जगह आज पूरी तरह से हरा-भरा पर्यटन स्थल है, जहां आकर लोग देश के अतीत को याद करते हैं.

कैसे पहुंचें
212 , 262 , 112 , 113 , 883 , 140 , 813 , 139
ये सभी बसें यहाँ से गुजरती हैं.
बस स्टेशन है माल रोड.
यहाँ से 5 मिनट का पैदल रास्ता.

मेट्रो स्टेशन विश्वविद्यालय से 10 मिनट पैदल रास्ता
जबकि दिल्ली विश्वविद्यालय से सिर्फ 5 मिनट पैदल रास्ता है.

 

 

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