।।ध्रुव स्तुति पर एक लघु चिंतन।।
गोस्वामी जी कहते हैं कि भगवान जब कृपा करते हैं तो मूक यानी गूंगा भी वाचाल बन जाता है। अब यह बताइए वाचाल होना क्या कोई अच्छी बात है। हम कहें, आपको कि तुम बड़े बाचाल हो तो क्या आपको अच्छा लगेगा। अच्छा बाचाल कहते किसे हैं? “बाचाल बहु भाषते” जो फालतू की बकबक करते हैं ज्यादा बात करें वही बाचाल है तो क्या भगवान कृपा कर भक्तों को बाचाल बना देते हैं।
शब्द तो यही है- “मूक होई बाचाल” यह बाचाल का मतलब क्या है? तो बकबक करने बाला वाचाल नहीं होता! तो?…
“वाचा अलं करोति इति वाचालं।। भगवान जब भक्त पर कृपा करते हैं तो वाणी को अलंकृत कर देते हैं, उसकी वाणी को सजा देते हैं महाराज फिर वह व्यर्थ नहीं बोलता। फिर वह जो बोलता है वह वेदवाणी हो जाती है। ध्रुव जी महाराज ने ऐसी स्तुति करी की अच्छे-अच्छे वेदपाठी चक्कर खाकर गिर जाएं। यही भगवान की अदभुत कृपा है।
नारद जी ने तो 12 अक्षर का मंत्र दिया, पर आज प्रभु कृपा से ध्रुवजी 12 श्लोकों में भगवान की स्तुति करते हैं-
योन्त: प्रविश्य मम वाचमीमां प्रसुप्तां,
संजीवयत्यखिल शक्तिधर: स्वधाम्ना।
अन्यांश्च हस्तचरणश्रवणत्वगादीन,
प्राणान्नमो भगवते पुरुषाय तुभ्यम।।
ध्रुवजी कहते हैं- भगवान आपने मेरे अंतःकरण में प्रवेश कर अपने तेज से मेरी सोई वाणी को जगा दिया है। मेरी वाणी तो पूर्ण रुपसे सोई हुई थी, प्रसुप्त थी। आज आपने अंतकरण में प्रवेश होकर जगा दिया। यह केवल वाणी की ही बात नहीं है आंखों से देखने का, कानो से सुनने का, नाक से सूंघने का, स्पर्श आदि जो शक्ति मेरे में है, वह सब शक्ति आपकी ही दी हुई है।
अन्यांश्च हस्त चरणा श्रवणत्वगादीन।
भगवन कई लोग तो ऐसे हैं जिनके आंख है, पर देख नहीं पाते। कान है, पर सुन नहीं पाते। क्योंकि चक्षुइंद्रिय भगवान ने ग्रहण कर ली, छीनली। श्रोतेन्द्रीय भगवान ने छीन ली। अतः मेरे शरीर के प्रत्येक अंगों में जो भी शक्ति दिख रही है, प्रभु वह सब आपकी ही दी हुई है। फिर मैं आपको अपने से क्या दूं। आज जो वाणी बोल रहा हूं, वह भी तो आप का ही दिया है।
प्राणानन्मो भगवते पुरुषाय तुभ्यम।
इसलिए है पुरुष नारायण, मैं तो आत्मनिवेदन कर आपके श्री चरणों में निवेदन करता हूं। मुझे तो ऐसा लगता है भगवन! योगी को उस समाधि में भी वह सुख नहीं मिलता होगा, जितना भक्तों को आपके चरित्र को सुनकर मिलता है। बहुत सुंदर स्तुति करी।…. प्रसन्न हो गए भगवान! बोले- मांगो बेटा तुम्हें क्या चाहिए। ध्रुव जी कहते हैं- प्रभु पहले तो बहुत कुछ इच्छाएं थी मांगने की, परंतु आपके दर्शन के बाद कुछ भी इच्छा नहीं रही।
कामनाएं तब तक रहती हैं जब तक उस दिव्य रस का हमने रस का रसास्वादन न किया हो। इस दिव्य रस का स्वाद जिसने चख लिया फिर संसार के सारे रस फीके पड़ जाते हैं। प्रत्येक प्राणी के मन में कोई ना कोई कामना रहती है कोई ना कोई इच्छा रहती है और जब परमपिता परमात्मा के दिव्य छवि का रसास्वादन कर लिया, तो वही सारे कामनाएं इच्छाएं फीके पड़ जाते हैं।
ध्रुव जी ने कहा- मुझे कुछ नहीं चाहिए। भगवान ने कहा- तुझे नहीं चाहिए पर मैं तो यहां देने आया हूं।क्योंकि जिस कामना को लेकर जीव यहां आता है मैं उस कामना को पूरा अवश्य करता हूं। तेरे मन में कामना थी तो जा बेटा 36000 वर्ष तक राजा बनकर शासन कर उसके बाद तू मेरे स्वरूप को प्राप्त करेगा। जो महाप्रलय में भी समाप्त नहीं होता। वह तेरे नाम से ही उस लोग की सदैव ख्याति रहेगी। इतना कह भगवान अंतर्ध्यान हो गए। अब ध्रुव जी को तो लगा मैं लुट गया। इस तुच्छ मृत्यु का राज मैंने क्यों मांगा मेरा हाल तो उस किसान की तरह है, जो छत्रपति सम्राट के दरबार में खड़ा हो और राजा उससे प्रसन्न होकर कहे मांग तुझे क्या चाहिए और वह किसान कहे महाराज मुझे एक गाड़ी भूसा दे दो, मेरा काम बन जाएगा।
मृत्युलोक का यह वैभव तो मेरे लिए भूसे के समान है परंतु इस वरदान को भगवान का प्रसाद समझकर घर वापस लौटे द्वारपालों ने सूचना दी महाराज राजकुमार ध्रुव सकुशल वापस आ रहे हैं हमने अभी अभी उनका दर्शन किया। सुनते ही राजा उत्तानपाद पुत्र के स्वागत के लिए दौड़ पड़े ध्रुव की मां सुनीति भी उस समय महल में ही थी।
ध्रुव की सौतेली माँ हाथ जोड़े खड़ी है। महाराज! यही तो है भगवान की कृपा जब आप भगवान के कृपापात्र बन जाते हैं, तो सब अपने आप रीझ जाते हैं। यदि दुनियां वालों को रिझाने में लगे रहे तो जीवन बीत जाएगा, पर कोई रिझाने वाला नहीं। एक को मनाओ तो दूसरा मुंह फुलाए बैठा है, मनाओ कितना मनाओगे।
परमात्मा को मनाइए सब मां जाएंगे।
क्यों ?
गोस्वामी तुलसीदास जी वर्णन करते हैं
बरबस जीव स्वबस भगवन्ता।
जीव अनेक एक श्रीकंता।।
वो परमात्मा सभी मे समान रूप से परिव्याप्त है ।
अंतर सिर्फ इतना है कि हम उसके वश हैं वो परमतत्व स्वबस है। सभी जीवों के माध्यम से चलरहा है बोल रहा है, खा रहा है, पी रहा है।
किन्तु हास्यास्पद है कि हमारी आपकी दृष्टि उसे खोजने व तौलने में लगी है।
कबीर:-
कस्तूरी कुण्डल बसै मृग ढूढे बन माहि ऐसे घट-घट राम है दुनियाँ देखै नाहिं।
सहज हो कर स्वयं को देखिए सब समझ आ जायेगा।
बस भागना बंद करिये। कई योनियों में भागा दौड़ी कर लिए।
अब बस भी करिये अंतर मुखी होकर उसे देखिये।
आप कौन हैं।……….
आचार्य स्वामी विवेकानन्द
श्री धाम श्री अयोध्या जी