मीरा चरित्र- मीरा का अधिकतर समय श्याम कुन्ज में लगा बीतने

भाग ०६

महल के परकोटे में लगी फुलवारी के मध्य गिरधर गोपाल के लिए मन्दिर बन कर दो महीनों में तैयार हो गया धूमधाम से गिरधर गोपाल का गृह प्रवेश और विधिपूर्वक प्राण-प्रतिष्ठा हुईं। मन्दिर का नाम रखा गया “श्याम कुन्ज”। अब मीरा का अधिकतर समय श्याम कुन्ज में ही बीतने लगा ।

ऐसे ही धीरेधीरे समय बीतने लगा मीरा पूजा करने के पश्चात् भी श्याम कुन्ज में ही बैठे बैठे सुनी और पढ़ी हुई
लीलाओं के चिन्तन में प्रायः खो जाती।

वर्षा के दिन थे ।चारों ओर हरितिमा छाई हुई थीं। ऊपर गगन में मेघ उमड़ घुमड़ कर आ रहे थे। आँखें मूँदे हुए
मीरा गिरधर के सम्मुख बैठी है। बंद नयनों के समक्ष उमड़ती हुई यमुना के तट पर मीरा हाथ से भरी हुई मटकी
को थामें बैठी है। यमुना के जल में श्याम सुंदर की परछाई देख वह पलक झपकाना भूल गई ।यह रूप -ये कारे
कजरारे दीर्घ नेत्र ………. ।

मटकी हाथ से छूट गई और उसके साथ न जाने वह भी कैसे जल में जा गिरी। उसे लगा कोई जल में कूद गया और फिर दो सशक्त भुजाओं ने उसे ऊपर उठा लिया और घाट की सीढ़ियाँ चढ़ते हुए मुस्कुरा दिया। वह यह निर्णय नहीं कर पाई कि कौन अधिक मारक है – दृष्टि याँ मुस्कान? निर्णय कैसे हो भी कैसे ? बुद्धि तो लोप हो गई, लज्जा ने देह को जड़ कर दिया और मन -? मन तो बैरी बन उनकी आँखों में जा समाया था।

उसे शिला के सहारे घाट पर बिठाकर वह मुस्कुराते हुए जल से उसका घड़ा निकाल लाये। हंसते हुये अपनत्व से कितने ही प्रश्न पूछ डाले उन्होंने ब्रज भाषा में।

अमृत सी वाणी वातावरण में रस सी घोलती प्रतीत हुईं ।

“थोड़ा विश्राम कर ले,
फिर मैं तेरो
घड़ो उठवाय दूँगो।
कहा नाम है री तेरो ?
बोलेगी नाय ?
मो पै रूठी है क्या ?
भूख लगी है का ?
तेरी मैया ने कछु खवायो नाय ?
ले, मो पै फल है। खावेगी ?”

उन्होंने फेंट से बड़ा सा अमरूद और थोड़े जामुन निकाल कर मेरे हाथ पर धर दिए – “ले खा ।”

मैं क्या कहती, आँखों से दो आँसू ढुलक पड़े। लज्जा ने जैसे वाणी को बाँध लिया था।

“कहा नाम है तेरो ?”
“मीरा” बहुत खींच कर बस इतना ही कह पाई। वे खिलखिला कर हँस पड़े।” कितना मधुर स्वर है तेरो री ।”

“श्याम सुंदर ! कहाँ गये प्राणाधार !”
वह एकाएक चीख उठी। समीप ही फुलवारी से चम्पा और चमेली दौड़ी आई और देखा मीरा अतिशय व्याकुल थीं और आँखों से आँसू झर रहे थे। दोनों ने मिल कर शैय्या बिछाई और उस पर मीरा को यत्न से सुला दिया सांयकाल तक जाकर मीरा की स्थिति कुछ सुधरी तो वह तानपुरा ले गिरधर के सामने जा बैठी । फिर ह्रदय के
उदगार प्रथम बार पद के रूप में प्रसरित हो उठे

मेहा बरसबों करे रे,
आज तो रमैया म्हाँरे घरे रे।
नान्हीं नान्हीं बूंद मेघघन बरसे,
सूखा सरवर भरे रे॥
घणा दिनाँ सूँ प्रीतम पायो,
बिछुड़न को मोहि डर रे।
मीरा कहे अति नेह जुड़ाओ,
मैं लियो पुरबलो वर रे ॥

पद पूरा हुआ तो मीरा का ह्रदय भी जैसे कुछ हल्का हो गया। पथ पाकर जैसे जल दौड़ पड़ता है वैसे ही मीरा की भाव सरिता भी शब्दों में ढलकर पदों के रूप में उद्धाम बह निकली ।

क्रमशः

आचार्य स्वामी विवेकानन्द जी
श्री धाम श्री अयोध्या जी
संपर्क सूत्र:-9044741252

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *