सुशांत सिंह राजपूत का जाना – एक उम्मीद का अन्त

किसी को मरने की तबियत नहीं होती
मौत को बहाने की जरुरत नहीं होती
आती बिन बुलावे ही हमें लेने को
जब हमें मरने की फुर्सत नहीं होती।
सुशांत सिंह राजपूत जैसे बहुमुखी प्रतिभा के धनी हँसमुख और सदाबहार दिखने वाले नौजवान की मौत जितनी दुखद है उतनी ही रहस्यमय भी है। इस नौजवान की मौत से लोगों के मन में अनेक प्रश्न उत्पन्न हुए हैं। घर और समाज में सबका लाड़ला, अपने प्रशंसकों का चहेता और अपार लोकप्रियता को हासिल करने वाला सख्श जिसकी फिल्मों को लोग अपनी उदासी को खत्म करने के लिए देखा करते थे को कौन सी निराशा ने इतना मजबूर किया कि उसे मौत को गले लगाना पड़ा ?
अब तक प्राप्त जानकारियों के आधार पर पुलिस ने उसकी मौत को आत्महत्या करार दिया है जो अत्यंत रहस्यमयी है। इस मौत ने दुनिया को ये सोचने को विवश किया है कि क्या रिल लाइफ और रियल लाइफ में जरा सा भी तालमेल नहीं होता ? क्या सिल्वर स्क्रीन पर आत्महत्या को गलत ठहराने वाला व्यक्ति रियल लाइफ में खुद इसे अपना सकता है ?
सुनिता कुमारी ‘गुंजन’
कहा जाता है कि अभिनय में वास्तविकता तब आ पाती है जब अभिनेता पर्दे पर उस भूमिका को जीता और महसूस करता है। सुशांत सिंह राजपूत की अभिनय में वास्तविकता एवं जीवंतता का अंदाजा उनकी फिल्मों के देखकर लगाया जा सकता है। ‘एम एस धोनी –  द अनटोल्ड स्टोरी’ जैसी बायोपिक फिल्म में महेन्द्र सिंह धोनी की भूमिका को वास्तविकता से परिपूर्ण कर उसने इस प्रकार से जीवंत बनाया था कि चारों ओर उसकी भूमिका की चर्चा एवं प्रशंसा हुई।
अपनी एक अन्य फिल्म ‘छिछोरे’ में सुशांत ने अपने पुत्र को आत्महत्या करने से मना करते हुए कहा है कि ‘ जीवन में हार नहीं माननी चाहिए, सुनहरा पल जरूर आता है।’  तो क्या उसे आत्महत्या करते वक्त अपने इस डायलॉग की जरा भी याद नहीं आई ? यदि उसने इस डायलॉग को कैमरे के सामने बोलते समय अपनी भूमिका को जरा भी जिया होता तो आत्महत्या करते वक्त उसे उसकी याद आनी चाहिए थी।
क्या सिल्वर स्क्रीन पर अभिनय करना दौलत और शोहरत हासिल करने के लिए किया गया महज एक काम है ? अभिनेता या अभिनेत्री के वास्तविक जीवन पर इसकी कोई छाप नहीं पड़ती ? जिन अभिनेताओं, अभिनेत्रियों की फिल्मी डायलॉगों से प्रेरित होकर हजारों लोग अपनी जिन्दगी के फैसले बदल देते हैं वही अभिनेतायें, अभिनेत्रियां अपनी जिन्दगी के फैसले लेते वक्त इन डायलॉगों की परवाह न करे तो इसे कौतुहल का विषय बनना लाजमी है।
बॉलीवुड में ऐसी मौत की शिकार होने वाला सिर्फ सुशांत ही नहीं है बल्कि ऐसी हस्तियों की एक लंबी फ़ेहरिस्त है। इन मौतों के चाहे जितने भी कारण रहे हो लेकिन इन सबका एक प्रमुख कारण मरने वाले व्यक्ति का अकेलापन रहा है। ये हमारे समाज के लिए एक चिन्तनीय विषय है कि अपने करोड़ों प्रशंसकों के दिलों पर राज करने वाली ये हस्तियाँ अपने निजी जीवन में इतनी अकेली क्यों हो जाती हैं कि उन्हें इस अकेलापन से मुक्ति पाने के लिए मौत का मार्ग अपनाना पड़ता है?
किसी भी सफल इन्सान को दौलत, शोहरत, मान – सम्मान और प्रसिद्धि के आलावा अपनों का साथ और अपनापन की भी जरूरत होती है। अपनों का साथ व्यक्ति को कभी भी अकेला नहीं होने देता है। आज के दौर में हमारे सामाजिक एवं पारिवारिक जीवन की संरचना ऐसी होती जा रही है कि व्यक्ति का जीवन स्वयं तक सिमटता जा रहा है। ऐसे में व्यक्ति तनाव एवं अवसाद से ग्रसित हो जाता है। उसके पास अपनी तकलीफों को साझा कर अपने मन को हल्का करने के लिए कोई अपना नहीं होता है। अपने इस अकेलेपन में परेशानियों की बोझ तले दबा वो व्यक्ति शायद इससे निजात पाने के लिए मौत के मार्ग पर चल पड़ता है और आत्महत्या कर लेता है।
हमारे समाज में बढ़ती ये घटनाएं हमें ये सबक देती हैं कि हम अपने पारिवारिक एवं सामाजिक जीवन में अपनों के साथ अपने रिस्तों का तानाबाना कुछ इसप्रकार बुने कि किसी व्यक्ति को किसी भी परिस्थिति में अकेलेपन का सामना न करना पड़े। हम कभी किसी अपने को अकेला न छोड़े और न ही स्वयं अकेलेपन का शिकार बने। मौत की इन घटनाओं को रोकने का यह एक सार्थक प्रयास साबित हो सकता है।
सुशांत सिंह राजपूत जैसे होनहार नौजवान से सिर्फ सिनेमा जगत को ही नहीं बल्कि पूरे देश को एक नई उम्मीद थी। सुशांत कलाकार होने के साथ – साथ , शिक्षा, सायंस- टेक्नोलॉजी , खेलकूद इत्यादि की समझ रखने वाला और समाज के लिए काम करने का जज्बा रखने वाला इन्सान था। बिहार के इस लाल से देश को कई उम्मीदें थीं।  उसकी असमय मौत ने सम्पूर्ण देशवासियों की इस उम्मीद का अंत कर दिया है। माना इन उम्मीदों को पूरा करने वाला कोई अन्य इन्सान भी हो सकता है परंतु अब कभी भी ‘छिछोरे’ का वो सुशांत सिंह राजपूत इन उम्मीदों को पूरा नहीं कर सकता है।
अलविदा सुशांत ।
सुनिता कुमारी ‘गुंजन’
सहायक प्रोफेसर
MJMC (NOU)
(आलेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं)

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