“सुपर 30” भारत में बनी अपनी तरह की पहली फ़िल्म है जिसमें विज्ञान के व्यावहारिक प्रयोग, गणित की रोचकता और मेहनत से पढ़ाई करने के महत्व को बहुत खूबसूरती ,बहुत गम्भीरता तथा बहुत संवेदनशीलता से दिखाया है।
“सुपर 30” एक तमाचा है “थ्री इडियट्स” , “स्टूडेंट्स ऑफ द ईयर” टाइप फ़िल्म बनाने वालों के गाल पर, जो स्कूल लाइफ और कॉलेज लाइफ ( जो कि विद्यार्थी जीवन का सबसे महत्वपूर्ण पड़ाव है) को सिर्फ मौज -मस्ती से जोड़ कर देखती हैं, जो विद्यार्थियों के मन में शिक्षा तथा शिक्षकों के प्रति गैरजिम्मेदारी,लापरवाही तथा बेहुदूगी के भावों को जन्म देती हैं।
मुझे कभी नहीं लगता था, कि ये चॉकलेटी हीरों कभी इतना दमदार : ऋतिक
दरअसल “थ्री इडियट्स” टाइप फिल्मों का सबसे बुरा असर यह हुआ कि अधिकांश बच्चों के मन मे यह धारणा बैठ गयी कि पढ़ाई – लिखाई से कुछ नहीं होता! जो मन में आये वो करो, भले ही परिवार की आर्थिक हालत खराब है पर तुम डांसर – सिंगर ही बनो,फिर भले ही उसमें भविष्य की संभावना शून्य हो! युवाओं को पढ़ाई से आसान लगता है नाचना – गाना, फोटोग्राफी, चित्रकारी,अभिनय!
पर उनमे से कितने सही मायनों में इन क्षेत्रों में सफल हो पाते हैं? “सुपर 30” आम आदमी की फ़िल्म है, मैं पत्रकार हू अक्सर देखता हूँ मजदूरो के बच्चे,किसानों के बच्चे शिक्षण संस्थानो मे दाखिला लेते है, ये जानते हुए कि घर के हालात तंग है ,अधिकांश बच्चे भटक जाते है, फीस के पैसे हो या न हो स्मार्ट फोन चाहिए, गर्ल फ्रेंड -बॉयफ्रेंड चाहिए भले ही उधारी या चोरी के पैसे पर उसे घुमाएं!
भटकाव ही भटकाव ,जैसे जवानी का एक ही मकसद है “प्रेम“
यह नतीजा है, उन बॉलीवुड फिल्मों का जिन्होंने युवाओं को एकदम नक्कारा आशिक बना के छोड़ दिया है। ऐसे माहौल में “सुपर 30” जैसी फिल्में एक उम्मीद है। आपकी गरीबी ,आपकी आर्थिक तंगी या आपकी पारिवारिक समस्याएं कभी आपके सपनों और मेहनत पर हावी नही हो सकती।
गज़ब की फ़िल्म है, हॉलीवुड की न जाने कितनी फिल्में एक साथ याद आ गयी इसे देखते हुए… ब्यूटीफुल माइंड, गिफ्टेड, थ्योरी ऑफ एवरी थिंग, द परस्यूट ऑफ हैप्पीनेस आदि ..ताज्जुब है न 100 वर्षों से पुराना हमारा बॉलीवुड आज तक ऐसी फिल्म न बना सका युवाओं के मन में गणित,विज्ञान, फिजिक्स, भाषा के प्रति जिज्ञासा, सम्मान तथा रुचि पैदा कर पाए!
“सुपर 30” एक उम्मीद की किरण है
यदि इसको देखकर 10% युवा भी कुछ सीख पाए तो यह फ़िल्म की बडी कामयाबी होगी। यह ऋतिक रोशन के कैरियर की सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म है, अभिनय, स्क्रिप्ट, संवाद सबकुछ एकदम मजबूत – दमदार।यह ऋतिक की पहली फ़िल्म है जिसमें उसने डाँस नहीं किया, लेकिन अपने दमदार अभिनय से कई जगह बेहद प्रभावित किया!
पूरी तरह चरित्र में ढले हुए हैं, ऋतिक, मुझे कभी नहीं लगता था, कि ये चॉकलेटी हीरों कभी इतना दमदार – यथार्थपरक अभिनय भी कर सकता है। मेहनत करने वाले गरीब – कमजोर इंसान की ईश्वर भी कड़ी परीक्षा लेता है! कैम्ब्रिज से शिक्षा का बुलावा, किन्तु परिवार में आर्थिक तंगी …. होनहार आनन्द कुमार अपने कैम्ब्रिज जाने के सपने को छोड़ जब आर्थिक विपन्नता के चलते गली – गली घूमकर पापड़ बेचने निकलता है.
वह दृश्य आपकी आँखे नम कर देता है। न जाने कितने होनहार किन्तु गरीब व्यक्तियों के जीवन का सच है, यह फ़िल्म। फ़िल्म में कुछ स्थानों पर वर्ग संघर्ष भी उभर के दिखता है, जो हमारे समाज का सच है। अंग्रेजी का भय जिसने न जाने कितने हुनरमंद युवाओं को आगे बढ़ने से रोका है! दूसरों की लग्ज़री लाइफ स्टाइल जो युवाओं के लिए बहुत बड़ा डिस्ट्रैक्शन साबित होता है, जो उनमें कुंठा जगा उन्हें उनके वास्तविक लक्ष्य और वास्तविक स्थिति से भटका देता है। सबकुछ , एक मनोवैज्ञानिक अप्रोच के साथ यह फ़िल्म आपकों दिखाती है।
उम्दा फ़िल्म, परिवार के साथ देखिए। मुझे लगता है, कि यह फ़िल्म स्कूल – कॉलेज सभी शैक्षणिक संस्थानों में दिखाई जानी चाहिए। भारत की ओर से इस वर्ष ऑस्कर के लिए भी यह फ़िल्म भेजी जानी चाहिए। बहुत लंबे समय बाद एक प्रेरणास्पद और हटकर फ़िल्म आयी है, सबसे बडी बात आनन्द कुमार को आनंद कुमार ही रहने दिया गया है “भगवान” नहीं बनाया गया। मैं सम्भवतः एक बार और देखूं यह फ़िल्म…मुझे बहुत ही अच्छी लगी।
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