मधुप मणि “पिक्कू”
अगली सर्दी यूपी में बहुत गर्माहट लाने वाली है या यूँ कहें कि अगली सर्दी में यूपी का सियासी पारा काफी गर्म रहने वाला है। हॉलाकि यूपी का राजनितिक पारा हमेशा चढ़ा हीं रहता है। सबसे अधिक विधानसभा और लोकसभा की सीटों वाला यह प्रदेश राजनितिक के सबसे घटिया दौर का गवाह रहा है। यहां कई ऐसी घटनाएं राजनितिक विरोध के अर्न्तगत हुई हैं जो शायद स्वतंत्र भारत के किसी भी राज्य में नहीं हुई हो। हर दल ने यहां जातीय विषवमन फैलाने का कार्य किया है। अगड़ी-पिछड़ी-दलित जातियों के बीच जहरीला वातावरण बनाकर सामाजिक समरसता में विद्वेष फैलाने का कार्य किया है। यूपी में तो कई ऐसे नेता हैं जिनका आधार हीं जातीय विद्वेष रहा है। मुलायम सिंह यादव की समाजवादी पार्टी यादव और मुस्लिम पर पूर्णतः टिकी रहती है तो भाजपा दलित वोट में सेंध लगाने की किसी भी प्रयास को चूकना नहीं चाहती है। मायावती के राजनितिक कैरियर का जन्म हीं जातीय विषवमन से हुआ है।
दलितों के मसीहा के रूप में अपने को स्थापित करने वाली मायावती के विषय में यहां यह बताना जरूरी है कि मायावती किस प्रकार दलितों की मसीहा बनी। पूर्व बसपा प्रमुख कांशीराम ने 1981 में डीएस-4 की स्थापना की थी। इसका मतलब है दलित शोषित समाज संघर्ष समिति। इसके अर्न्तगत थारू ठाकुर, ब्राह्मण, बनिया छोड़ बाकी सब थें। वैसे यह एक राजनीतिक मंच नहीं था लेकिन इसके जरिए कांशीराम न सिर्फ दलितों की बल्कि अल्पसंख्यकों के बीच भी एक तरह की गोलबंदी करना चाह रहे थे। इस मंच के माध्यम से कांशीराम और मायावती ने अगड़ी जाति के खिलाफ विषवमन करने वाले नारों के जरिए जनसंपर्क अभियान चलाया। इसी मंच के माध्यम से कांशीराम और मायावती ने आगे चलकर अगड़ी जाति का घोर विरोधी होने में सफलता हासिल करते हुए 14 अप्रैल 1984 को बहुजन समाज पार्टी की स्थापना की। इस मंच ने अगड़ी जातियों के खिलाफ इतना जहर उगला कि दलितों को यह समझ में आ गया था कि उसके असली शत्रु अगड़ी जाति हीं है। यहीं से शुरू हुआ घोर जातीय राजनिति और वोटों के ध्रुवीकरण का दौर। यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि पिछले कई दशकों से यूपी में विकास के नाम पर नहीं बल्कि जाति और धर्म के नाम पर वोट दिये जाते हैं। यही कारण है कि दलित तो दलित हीं रह गये पर उनके नाम पर सियासतदारों ने महलें बना ली।
वर्ष 2017 चुनाव की बात करें तो जातिगत राजनिति के लिये बीजेपी बता तो ये रही है कि यूपी में उसका मुकाबला मुलायम सिंह यादव की पार्टी से है, न कि मायावती से. मगर, बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह की ताजा रणनीति पर गौर करें तो मालूम होता है कि हर कवायद के पीछे निशाने पर दलित और पिछड़ा वोट बैंक ही है। बीजेपी के लिए असम के बाद सबसे बड़ा मिशन यूपी चुनाव ही है। भाजपा ने अपनी कुटनिति के तहत यूपी में मायावती की जगह समाजवादी पार्टी से मुकाबला बताकर अपने विरोधी वोटों के बिखराव का प्रयास कर रही है। अखिलेश सरकार को एंटी इंकम्बेंसी फैक्टर से जूझना पड़ सकता है, और यह फैक्टर मायावती की राह आसान बनाएगा। ऐसे में अगर बीजेपी भी मायावती को मुख्य प्रतिद्वंद्वी बताने लगे तो उसके खिलाफ सारी शक्तियां लामबंद हो जाएंगी। यानी वे सारे लोग जो सूबे में बीजेपी सरकार के विरोधी हैं एकजुट हो जाएंगे और उसका फायदा मायावती को मिल सकता है।
चुनाव को लेकर अलग-अलग न्यूज चैनल और अखबारों द्वारा चुनावी सर्वे भी आनी शुरू हो गयी है। सर्वे की बात करें तो यह अखिलेश सरकार के लिए खतरे की घंटी का इशारा कर रही है। इसी साल यूपी में 3 सीटों पर हुए उपचुनाव में समाजवादी पार्टी को करारा झटका लगा था जिसमें मुजफ्फरनगर सीट बीजेपी ने छीन ली तो देवबंद सीट पर कांग्रेस ने कब्जा कर लिया। दोनों सीटें सपा के पास थी, हालांकि तीसरी सीट फैजाबाद की बीकापुर सीट सपा बचाने में सफल रही। इन चुनावी नतीजों के दूरगामी संकेत है। मार्च से मई 2016 के बीच किये गये विभिन्न सर्वे की नतीजों की ओर देखें तो मायावती सभी दलों के लिए चुनौती बन कर उभर रही है। यूपी में खराब कानून व्यवस्था के कारण अखिलेश सरकार से लोंगो का मोह भंग हो गया है। वैसे सर्वे में किसी दल को स्पष्ट बहुमत मिलता नहीं दिख रहा है। बसपा के बाद भाजपा गठबंधन दूसरे बड़े दल के रूप में बनकर उभर सकता है। पीएम नरेंद्र मोदी के कामकाज से हालांकि लोग संतुष्ट हैं लेकिन यूपी में इनका जलवा अभी बरकरार नहीं दिखाई दे रहा है। इसका कारण क्षेत्रीय मुद्दे के साथ-साथ मायावती के प्रति दलितों का रूझान भी माना जा सकता है। इधर यादव परिवार और सरकार का घामासान फायदा या नुकसान पहुंचा रहा है यह कहना अभी जल्दबाजी हो सकती है। मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के अपने चाचा के खिलाफ कड़े तेवर पर राजनीतिक जानकारों का कहना है कि अखिलेश ऐसा करके न सिर्फ खुद की ईमानदार नेता की छवि गढ़ने की कोशिश कर रहे हैं, वहीं वे इस आरोप से भी पीछा छुड़ाने का प्रयास कर रहे हैं कि वे यूपी में महज ‘छाया मुख्यमंत्री’ हैं। असल मुख्यमंत्री तो मुलायम सिंह यादव, रामगोपाल यादव, शिवपाल यादव और आजम खान जैसे दिग्गज हैं। वैसे इन सब से इतर अगर हम ताजा हालात देखें तो पकिस्तान में हुए सर्जिकल स्ट्राइक का फायेदा सीधे सीधे भाजपा को मिल सकता है |
उत्तर प्रदेश अकेला ऐसा राज्य है जिसके विधानसभा में सबसे अधिक सदस्य हैं। ऐसे में इस राज्य का चुनाव दूसरे सभी राज्यों से महत्वपूर्ण है। उत्तर प्रदेश के बल पर ही आज भाजपा बहुमत के साथ केन्द्र की सत्ता में है। जिस राज्य से उनके 73 एमपी हैं, यदि विधानसभा के चुनाव में वह पराजित हो गयी तो आगामी लोकसभा चुनाव के लिए भाजपा के लिए यह खतरे की घंटी होगा।
यूपी में 404 विधान सभा क्षेत्र हैं। इसके लिए इस समय सभी पार्टियां अकेले चुनाव लड़ने की बात कर रहे हों लेकिन राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि चुनावी सरगर्मी के बढ़ने के साथ ही सभी दल गठबंधन की संभावनाएं तलाशनी शुरू कर देगी।