मुंबई में पलीबढ़ी अर्चना प्रजापति उत्तर प्रदेश के गोरखपुर इलाके की रहने वाली हैं. मुंबई में अर्चना के पिता का अपना कारोबार है. स्कूल में पढ़ाई के समय से ही अर्चना को ऐक्टिंग अच्छी लगती थी. जब वे ग्रेजुएशन करने के लिए कालेज पहुंचीं, तो उन को एक म्यूजिक अलबम में काम करने का मौका मिला. इस के बाद वे फिल्मों की तरफ चल पड़ीं. जल्दी ही अर्चना प्रजापति को कई भोजपुरी फिल्में मिल गईं. इन में ‘जिद्दी’ और ‘इलाहाबाद से इसलामाबाद’ खास हैं, जो बड़े परदे पर आ चुकी हैं. अर्चना प्रजापति ने जिन म्यूजिक अलबमों में काम किया है, उन में ‘शिकवा’ और ‘नवाजिश’ खास हैं. वे एक हिंदी फिल्म भी करने जा रही हैं.
पेश हैं, अर्चना प्रजापति से हुई बातचीत के खास अंश :
- ऐक्टिंग जगत में जगह बनाना कितना मुश्किल काम है?
आज के समय में हर क्षेत्र में एक से एक प्रतिभाएं मौजूद हैं. ऐसे में अपने लिए जगह बनाना बहुत ही मुश्किल काम है. जरूरत इस बात की होती है कि आप मेहनत करें, सही दिशा में कोशिश करें. इस के बाद आप में टेलैंट होगा, तो कामयाबी जरूर मिलेगी. बिना मेहनत के कुछ भी मुमकिन नहीं है.
- भोजपुरी फिल्मों से ऐक्टिंग की शुरुआत करने से आप को भोजपुरी फिल्मों की हीरोइन का ठप्पा लगने का डर तो नहीं था?
आज के समय में भोजपुरी सिनेमा काफी तेजी से आगे बढ़ रहा है. हिंदी और दूसरी इलाकाई बोली के कलाकार भी इस में काम करने आ रहे हैं. अब भोजपुरी फिल्मों का ठप्पा जैसा कुछ नहीं है. भोजपुरी मेरी अपनी बोली है. ऐसे में यहां काम करने में जो खुशी मिलती है, वह सब से खास है.
- घर से आप को किस से सब से ज्यादा सहयोग मिलता है?
मेरे मम्मीपापा दोनों ही बहुत सहयोगी हैं. जब मेरी फिल्म ‘इलाहाबाद से इसलामाबाद’ की चर्चा लोगों ने की, तो हमारे घर वालों को लगा कि मैं ने सही काम किया है.
- भोजपुरी फिल्में अपनी बोल्डनैस के लिए ज्यादा बदनाम हैं. आप को क्या लगता है?
जिस तरह से भोजपुरी फिल्मों की बुराई होती है, वह कुछ ज्यादा ही लगती है. चाहे किसी भी भाषा की फिल्में हों, उन में खुलापन बराबर होता है. भोजपुरी गांवदेहात की भाषा है, शायद इस वजह से इस की ज्यादा बुराई होती है. फिल्मकार वही फिल्में बनाते हैं, जिन को दर्शक देखते हैं. जब दर्शक इसे गलत नहीं मानते, तो बुराई करने से क्या होता है.
- आप को इन फिल्मों में रोल करने से क्या कोई परेशानी होती है?
कहानी की मांग के मुताबिक खुलेपन से कोई एतराज नहीं है. हां, यह बात सच है कि अगर खुलेपन की मांग ऐसी हो, जो देखने वालों को पसंद न हो, तो उसे करने से क्या फायदा.