कुछ सीखने के लिए हिंदी फिल्मों काम करते रहना चाहते हैं भोजपुरी फिल्म इंडस्ट्री के सुपरस्टार रवि किशन, खास बातचीत अनूप नारायण सिंह के साथ

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भोजपुरी सिनेमा अपनी यात्रा के 57 वे साल में है. इतने वर्षाें की यात्रा के बाद मिले मुकाम और भविष्य की राह का आकलन आप 
कैसे करते हैं?
मैं तो बेहद आशान्वित हूँ इस इंडस्ट्री को लेकर, 10 साल पहले यानि करीब वर्ष 2000 तक भोजपुरी फिल्म जगत कई उतार-चढ़ाव और  घुमाव-फिराव-गिराव के दौर से गुजरते हुए बंजर जमीन की तरह हो गया था। काफी मेहनत करनी पड़ी, तब जाकर अब स्थिति ऐसी  बन सकी है कि 80-100 अभिनेता-अभिनेत्री इस इंडस्ट्री से जुड़ सके हैं। साल भर में औसतन 75-80 फिल्में बनने लगी हैं। 700-800 करोड़ का सालाना टर्नओवर इस इंडस्ट्री का होने लगा है. 50 हजार से अधिक लोगों का चूल्हा अब इसी इंडस्ट्री के सहारे जलता है। मलयालम, कन्नड़, बांग्ला, तेलुगु की तरह अच्छे लेखक गण, सृजनकर्ता इससे जुड़े और जो जुड़े हुए हैं उनके बीच एकता कायम हो, तो भविष्य शानदार दिखता है।
क्यों एकता कायम नहीं हो पा रही है और क्यों इतने वर्षों बाद भी अच्छे लेखक, सृजनधर्मी भोजपुरी फिल्मों से तौबा करते नजर 
आते हैं?
एका कायम नहीं होने के पीछे कई वजहें हैं. सभी अपने-अपने में मगन हैं. एक संयुक्त और सर्वसम्मति से कोई ईकाई बनाये जाने  की जरूरत है, जिसमें सीनियर आर्टिस्ट, टेक्निशियन, क्रीयेटिव लोग हों. बिहार और उत्तरप्रदेश की सरकारें अपनी ओर से जरा सा ध्यान देना शुरू कर दे, फिर कोई माई का लाल नहीं जो इस इंडस्ट्री को और भी तेजी से बढ़ने से रोक सके. और रही बात अच्छे लेखकों के आने के तो मेरा मानना है कि कुछ दिनों बाद तेजी से ऐसे लोग आयेंगे। अभी तो बाजार का उथल-पुथल चल रहा है. बिहार नये बिहार  के निर्माण में खोया हुआ है, इसलिए भोजपुरी सिनेमा भी कलरफुल और हैप्पी-हैप्पी वाला बन रहा है लेकिन डार्क फिल्में भी बननी शुरू होंगी. बाहुबली, प्रीत न जाने रीत जैसी कुछ फिल्मों से इसकी शुरुआत भी हुई है। अगले चार-पांच सालों में भोजपुरी में वैसी फिल्में बननी शुरू हो जायेंगी, अभी निर्माता किसी भी किस्म का रिश्क लेने में थोड़ा डरते हैं।
लेकिन अभी के हालात देखकर तो ऐसा नहीं लगता. नक्सल, बाढ़, पलायन… यह सब बिहार, उत्तरप्रदेश, झारखंड जैसे भोजपुरीभाषी पट्टी की बड़ी समस्या है, लेकिन भाोजपुरी सिनेमा तो ऐसे मसलों की बजाय मसाले में मगन है?
बनेंगी, इन विषयों पर भी फिल्में बनेंगी. आप इसे इस तरह देखें कि जो इंडस्ट्री अपने 50 सालों के सफर में हिचकोले खाते रही, 2000 के पहले 12 सालों तक बंद-सी ही रही, विरानगी छाया रहा, वह अभी फिर से उठकर खड़े होने की स्थिति में आ रही है। मैं अपनी बात करूं तो मैंने अपना होम प्रोडक्शन शुरू ही इसलिए किया है कि कुछ सालों के बाद भोजपुरी की अच्छी फिल्मों का निर्माण करूंगा। इतने वर्षों में कई बार बंजर रह चुकी जमीन उपज लायक बनी है तो अच्छी फसल के लिए थोड़ा और इंतजार करना होगा।
आपने अभी सरकारी मदद की बात कही. किस तरह की मदद की बात कर रहे हैं?
कम से कम बिहार और उत्तरप्रदेश की सरकारें भोजपुरी फिल्मों को न्यौता देना शुरू करे. शूटिंग के लिए बुलाये. स्टूडियो बनाये। इससे पर्यटन भी बढ़ेगा, नये किस्म के रोजगार का भी सृजन होगा, राजस्व की प्राप्ति भी होगी. अब यह कितना दुर्भाग्य है कि जिस इंडस्ट्री से इतने सारे लोग जुड़े हैं, हिंदी के बाद पांच महादेशो ंमें जिस हिंदुस्तानी भाषा का व्यापक फैलाव है, वह भोजपुरी ही है। उस भाषा की फिल्म जगत के लिए अब तक दोनों राज्यों में से कहीं भी एक सम्मान या पुरस्कार देने की पंरपरा तक की शुरुआत नहीं हो सकी है। भाषा के प्रचार-प्रसार में जो लोग फिल्मों के माध्यम से लगे हुए हैं, उन्हें राज्य सरकारों की ओर से उचित सम्मान मिलना चाहिए। रंगमंच को मजबूत करने के लि ए भी काम होना चाहिए. पटना में थियेटर के एक से बढ़कर एक कलाकार हैं, एक से एक थियेटर ग्रुप हैं, उन्हें बढ़ाने के लिए काम करना चाहिए. उत्तरप्रदेश के गोरखपुर, बनारस में भी वैसा ही है।
क्या बाॅलीवुड वाले अब भी ओछी नजर से देखते हैं भोजपुरी फिल्मवालों को, बड़े सितारों के बीच भोजपुरी कलाकारों को हीनता का शिकार होना पड़ता है?
अरे कैसी बात कर रहे हैं, रहा होगा वह कोई जमाना, जब ऐसी स्थितियां रही होंगी. अब अपनी भोजपुरी को लेकर किसी प्रकार की हीनता का भाव होता तो मैं बार-बार, हर जगह सार्वजनिक मंचों से ‘ जिंदगी झंड बा, फिर भी घमंड बा…’ का राग नहीं अलापता। बाॅलीवुड वाले क्या नहीं जानते हैं कि अब एक बार में मेरी भोजपुरी फिल्म मुंबई के 29, कोलकाता के 30, बिहार के 60, चंडीगढ़ के 12 सिनेमाघरों में रीलिज होती है. स्पाईडरमैन को भोजपुरी में रीलिज किया जाता है. यह सब तो बाॅलीवुड को नजर आ ही रहा है, फिर कैसे ओछी नजरों से देख सकते हैं या क्यों हीन भावना का शिकार होना पड़ेगा किसी को! मुंबई में जब छठ महोत्सव होता है तो साफ दिखता है भोजपुरी कलाकारों का क्रेज कितना है वहां।
आप भोजपुरी के सुपरस्टार कहे जाते हैं लेकिन हिंदी फिल्मों का मोह हमेशा हावी रहता है आप पर… ? 
भोजपुरी मेरा अस्तित्व है. लेकिन हिंदी में मैं फिल्मों इसलिए करते रहना चाहता हूं ताकि वहां से सीख सकूं. वहां से जो सीखता हूँ। वह भोजपुरी फिल्मों को ही देता हूं. भोजपुरी को स्टारडम दिलाया. कांस फिल्म महोत्सव तक इस भाषा की फिल्मों को पहुंचाया. यह सब हिंदी से सीखना तो होगा ही न! अब भोजपुरी में अंतरराष्ट्रीय स्तर की फिल्म रीलिज करने की तैयारी है. काशीनाथ सिंह के उपन्यास “काशी का अस्सी” पर फिल्म बन रही है, उसमें कन्नी गुरु तिवारी की भूमिका मैं निभाने वाला हूं. अब ऐसी फिल्मों में काम कर बहुत कुछ तो सीखा ही जा सकता है.
राजनीति ने तो कभी भोजपुरी फिल्म जगत को गंभीरता से नहीं लिया लेकिन भोजपुरी फिल्मवाले राजनीति में हाथ-पांव मारते रहते हैं, आपने भी कांग्रेस की कैंपेनिंग की, क्या राजनीति में जाना चाहते हैं?
जब कोई काम नहीं रहता है तो कैंपेनिंग वगैरह कर लेता हूं. और जब कुछ करने लायक नहीं रहूंगा, थक जाउंगा, बुजुर्ग हो जाउंगा तो जरूर राजनीति करना चाहूंगा. मैं अपने जौनपुर के इलाके जाते रहता हूं. वहां शूटिंग करने की कोशिश करता हूं. मेरा ड्रीम प्रोजेक्ट है कि भविष्य में अपनी जमीन लेकर एक संस्थान खोलूं, जहां ग्रामीण-प्रतिभावान बच्चों को तीन साल में मुकम्मल प्रशिक्षण देकर उन्हें एक इंसान और कलाकार बनाया जा सके। जो बाॅलीवुड में आयें, भोजपुरी फिल्म जगत में आये तो छा जायें. कोई उनका मुकाबला करनेवाला नहीं रहे. ऐसा मैं जरूर करूंगा, इसके बारे में हमेशा सोचता हूं।
भोजपुरी फिल्मी जगत में आपका मुकाबला किससे है?
खुद से. यहां खुद को रोज तैयार करना पड़ता है. जिस रोज यह लगने लगेगा कि अब कोई मुकाबले में ही नहीं उसी दिन से अहंकार हावी हो जायेगा और अहंकार तो डूबो ही देता है न, इसलिए खुद का रोज खुद से मुकाबले के लिए तैयार करता हूं. हर शुक्रवार को परीक्षा की घड़ी होती है. सुबह उम्मीदों के साथ जगना होता है, कितनी जगह फिल्में लगीं, कहां पर कैसा रिस्पांस है. फिर जब सभी जगहों से रिस्पांस मिलनी शुरू होती है तब जाकर शाम तक सुबह का तनाव खुशी की लहर में बदलता है।
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