वरिष्ठ पत्रकार अनूप नारायण सिंह की कलम से भोजपुरी फिल्मों की पडताल
अजय सिन्हा की निर्देशित फिल्म ‘ससुरा बड़ा पईसा वाला’ (2004) का बजट 28 लाख रुपये था और भोजपुरी फिल्मों के मशहूर अभिनेता मनोज तिवारी को इस फिल्म में हीरो की भूमिका निभाने के लिए 25,000 रुपये बतौर मेहनताना दिया गया। हालांकि वह भोजपुरी के मशहूर गायक रहे हैं और उनके भोजपुरी लोकगीत उत्तर प्रदेश-बिहार में धूम मचाते रहे हैं। इसके बावजूद वह ज्यादा मेहनताना नहीं मांग सके क्योंकि उनका मानना था कि भोजपुरी फिल्मों का दायरा हमेशा से ही छोटा रहा है और यह एक लघु उद्योग से थोड़ा ही बड़ा है। लेकिन इस फिल्म ने 35 करोड़ रुपये से ज्यादा का कारोबार किया था। इसके बाद आई उनकी फिल्म ‘दरोगा बाबू आई लव यू’ (2005) के लिए तिवारी को 25 लाख रुपये मिले और इस तरह उनके मेहनताने में 100 गुना का इजाफा हुआ। मनोज कहते हैं, ‘अब हिरो की फीस 65 लाख रुपये के करीब होगी।’ यकीनन उन्होंने अपने मेहनताने में शानदार बढ़ोतरी दिखाई है और पहले के मुकाबले एक बड़े अंतर को पाट लिया है। तिवारी क्रिकेट के दीवाने हैं और एक दफा ऐसे भी कयास लगाए गए कि वह इंडियन प्रीमियर लीग की फ्रैंचाइजी में निवेश करने के लिए भी दिलचस्पी ले रहे थे। अगर बॉलीवुड के मशहूर सितारों (सलमान खान:25 करोड़ रुपये, अक्षय कुमार: 20 करोड़ रुपये )से तुलना करें तो तिवारी की कमाई में ज्यादा इजाफा नहीं हुआ है। लेकिन उनकी फीस में आए बदलाव से भोजपुरी सिनेमा के कायापलट के संकेत मिलते हैं।
करीब 150 भोजपुरी फिल्में हर साल बनाई जाती हैं। अमूमन हर तीसरे दिन एक नई फिल्म देखी जा सकती है। अब इन फिल्मों का बजट भी करोड़ों के आंकड़े को छू रहा है। बॉलीवुड के शहंशाह अमिताभ बच्चन और अजय देवगन जैसे सितारों ने भी भोजपुरी फिल्मों में अपनी अदाकारी दिखाई है। भोजपुरी बोलने वाली आबादी जिन देशों में है (मसलन फिजी, त्रिनिदाद, पश्चिम एशिया और नेपाल इत्यादि) वहां इन फिल्मों का फलता-फूलता बाजार है। मुंबई और दिल्ली के सुदूर इलाकों के दर्जनों थियेटरों में भोजपुरी फिल्में दिखाई जाती हैं हालांकि अभी मल्टीप्लेक्स में भोजपुरी फिल्मों का खांटी बिंदासपन छाने की उम्मीद अभी बाकी है क्योंकि मेट्रो शहरों में बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश के लोगों की तादाद अब बढ़ रही है। समाजशास्त्रियों ने इस पर चर्चा करनी शुरू कर दी है कि बिहार-उत्तर प्रदेश से आने वाले लोगों की वजह से इन शहरों का सामाजिक तानाबाना कैसे प्रभावित हो रहा है। यकीनन भोजपुरी सिनेमा की मशहूरियत भी इस बदलाव का एक हिस्सा है। फिल्म कारोबार पत्रिका ‘भोजपुरी सिटी’ के संस्थापक किसान खदरिया का कहना है कि मेट्रो शहरों के सिंगल स्क्रीन थियेटर में भोजपुरी फिल्मों की शुरुआत एक फिलर के तौर पर हुई लेकिन बाद में इन थियेटरों की जगह मल्टीप्लेक्स ने लेनी शुरू कर दी जिससे इनका बाजार प्रभावित हुआ। खदरिया का कहना है, ‘सिंगल स्क्रीन हॉल को बार-बार पुरानी बॉलीवुड फिल्में दिखानी पड़ती थी। ऐसे में भोजपुरी फिल्में उनके लिए कुछ नएपन का अहसास देती थीं।’
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बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश के गांवों से बड़े शहरों में आने वाले लोगों को भोजपुरी सिनेमा उनकी मिट्टी से जुड़ी यादों को ताजा कराती है। ज्यादातर फिल्में ग्रामीण परिदृश्य में ही फिल्माई जाती हैं और अमूमन उनमें एक सी परंपरागत कहानी होती है (मसलन एक निर्दयी जमींदार बनाम एक साधारण किसान)। लेकिन हैरानी की बात यह है कि भोजपुरी फिल्में जिस पृष्ठभूमि और क्षेत्र से ताल्लुक रखती हैं उसमें वहां की समस्याओं की झलक नहीं मिलती। बिहार के सामाजिक और राजनीतिक परिवर्तन (संगठित अपराध का उत्थान और पतन, जातिगत द्वंद्व, नक्सली हिंसा या बेरोजगारी) से जुड़े संदर्भ बमुश्किल से भोजपुरी सिनेमा में पाए जाते हैं। मानो ये फिल्में समय के एक बुलबले में ही अटकी हुई हों। बिहार की वास्तविकता को फिल्मों में दर्शाने के लिए प्रकाश झा या अनुराग कश्यप जैसे फिल्म निर्देशक हीं आगे आते हैं।
वक्त के साथ-साथ भोजपुरी फिल्मों में द्विअर्थी संवाद, फूहड़ गीत और अश्लीलता ने अपनी जगह बनानी शुरू दी। भोजपुरी फिल्मों के नाम भी इसका संकेत देते हैं(‘सेज तैयार सजनी फरार’, ‘मुंबई के लैला छपरा के छैला’)। ‘बंधन टूटे ना’, ‘धरती कहे पुकार के’, ‘पप्पू के प्यार हो गईल’ और ‘बिदाई’ ब्लॉकबस्टर भोजपुरी फिल्मों का निर्देशन करने वाले असलम शेख का कहना है कि भोजपुरी फिल्मों की गुणवत्ता बदतर हो रही है और इनमें मौजूदा सामाजिक मसलों को नजरअंदाज किया जाता है क्योंकि फिल्म निर्माताओं का लक्ष्य निचले स्तर का 15 फीसदी दर्शक वर्ग होता है। वह कहते हैं, ‘इन फिल्मों का बजट कम होता है और किसी पुराने अलबम का मशहूर गाना या कोई आइटम गीत दर्शकों को लुभाने के लिए पेश किया जाता है। फिल्में ज्यादा कमाई करने में सक्षम भी हो जाती हैं।अगर ज्यादातर निर्देशक बाकी के 85 फीसदी दर्शकों मसलन ‘परिवार और युवा वर्ग’ को लुभाने की कोशिश करते हैं तो चीजों में काफी बदलाव आने की गुंजाइश बन सकती है।’ तिवारी का कहना है, ‘फिल्मों की गुणवत्ता काफी घट रही है। दरअसल अब फिल्म बनाने का मकसद बस आइटम गीत या अश्लील दृश्यों के जरिये खूब कमाई करना रह गया है।’ ऐसी ज्यादातर फिल्में 50 लाख रुपये या इससे थोड़े कम बजट में बनाई जाती हैं और उनकी शूटिंग महज 15 दिनों में पूरी हो जाती है। भोजपुरी फिल्में पूरी हो जाती हैं लेकिन वितरकों की कमी की वजह से हौसला कम पड़ता है।
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दिलचस्प है कि भोजपुरी फिल्म उद्योग पटना के बजाय मुंबई में अपना अस्तित्व कायम रखे हुए है। शेख कहते हैं, ‘भोजपुरी फिल्में बिहार, झारखंड और पूर्वी उत्तर प्रदेश के दायरे से जुड़ी हैं। लेकिन पटना में कोई अच्छा फिल्म स्टूडियो या तकनीकी उपकरणों की उपलब्धता आसानी से नहीं होती है। मुंबई में कई कलाकार कम कीमत लेकर भी काम करने के लिए उपलब्ध हैं। वहीं पटना में फिल्म से जुड़े उपकरणों के मालिक नकद भुगतान की मांग करते हैं।’ ज्यादातर फिल्मों की शूटिंग महाराष्ट्र और गुजरात में होती है। बिहार के किसी शहर का सीन फिल्माने के लिए फिल्म की टीम वहां जाती है और शूटिंग करके वापस आ जाती है। कुछ लोगों का कहना है कि नीतीश कुमार के मुख्यमंत्री बनने से पहले राज्य में गुंडागर्दी और अपहर्ताओं का बोलबाला हुआ करता था जिसकी वजह से निर्देशकों और फिल्मकारों को बिहार से दूर होना पड़ा। भोजपुरी फिल्मों के सुपरस्टार 40 वर्षीय रविकिशन का मानना है कि राज्य सरकार के सहयोग से सब कुछ बदल सकता है। उनका कहना है, ‘महाराष्ट्र सरकार ने मल्टीप्लेक्स में एक निश्चित संख्या में मराठी फिल्में दिखाना अनिवार्य कर दिया है। इसके अलावा सरकार फिल्म उद्योग को 30 लाख रुपये का अनुदान भी मुहैया कराती है। जिसकी वजह से वहां की क्षेत्रीय फिल्में अच्छा कारोबार कर रही हैं। मराठी और गुजराती दर्शकों के मुकाबले करीब 20 करोड़ बिहारी दर्शकों की मौजूदगी के बावजूद हम पिछड़ रहे हैं।’ किशन भोजपुरी फिल्मों के अभिनेता के रूप में नजर आने के अलावा अब बॉलीवुड फिल्मों में भी नजर आते हैं। उन्होंने श्याम बेनेगल (वेल डन अब्बा) और मणिरत्नम (रावण) के लिए भी काम किया है।
अक्सर बॉलीवुड सितारों को भी भोजपुरी दुनिया प्रभावित करती रही है। शेख कहते हैं, ‘भोजपुरी फिल्मों के बढ़ते दायरे का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि इसमें बॉलीवुड सितारे भी नजर आ रहे हैं।’ वर्ष 2006 की ब्लॉकबस्टर फिल्म ‘धरती कहे पुकार के’ में अजय देवगन नजर आए तो वहीं मिथुन चक्रवर्ती की ‘भोले शंकर’ को अब तक की सबसे बड़ी भोजपुरी फिल्म करार दिया गया। ‘गंगा’ में अमिताभ बच्चन और हेमामालिनी नजर आईं। बॉलीवुड में भी गाहे-बगाहे भोजपुरी का तड़का देखने को मिल रहा है। तिवारी कहते हैं, ‘दबंग और राउडी राठौड़ जैसी फिल्में हमारे लिए खतरे का संकेत हैं क्योंकि हम इन फिल्मों के मुकाबले फंडिंग, तकनीक और प्रचार-प्रसार के दायरे का मुकाबला करने में सक्षम नहीं हैं। ऐसे में निश्चित तौर पर दर्शक बंट जाते हैं।’ लेकिन तिवारी का यह अनुमान है कि हालात में सुधार होगा। उनका कहना है, ‘प्रचार-प्रसार और मार्केटिंग के लिए बजट काफी कम होता है। फिल्म उद्योग को इस परेशानी का अंदाजा है और अगले साल से हमारी फिल्मों के प्रचार-प्रसार के तरीके में भी यह बदलाव नजर आएगा
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