- सभापति का मुद्दा खिला सकता है बिहार में नया राजनीतिक गुल
- नीतीश की पसंद अवधेश तो राजद ने मांग की अपने दल का सभापति
- नीताश और लालु के अहम में क्या निभेगा महा गठबंधन धर्म
- या फिर से नीतीश कुमार थामेंगे एनडीए का हाथ
विनायक विजेता
बिहार में कुछ ही दिनों बाद एक नया राजनीतिक भूचाल आ सकता है। गया स्नातक क्षेत्र से चुनाव जीते निवर्तमान सभापति अवधेश नारायण सिंह को फिर से सभापति बनाए जाने के मामले पर राजद ने ग्रहण लगा दिया है। भले ही अवधेश नारायण सिंह ने भाजपा के टिकट पर चुनाव लड़ा पर जदयू द्वारा वहां कोई प्रत्याशी न दिए जाने और नतीश और उनकी पार्टी का अवधेश नारायण को अपरोक्ष समर्थन ही उनकी जीत का एक बड़ा कारण बना। इस सीट पर महा गठबंधन के दो अन्य घटक दल के उम्मीदवार भी किस्मत आजमा रहे थे जिनमें राजद के डा. पुनीत कुमार सिंह व कांग्रेस से डा. अजय कुमार उम्मीदवार थे। डा. पुनीत राजद के दिग्गज नेता व पूर्व सांसद जगदानंद सिंह के पुत्र हैं वहीं डा. अजय कुमार पुराने कांग्रेसी और प्रख्यात सहकारी नेता स्व. तपेश्वर सिंह के पुत्र। राजद को यह आशा थी कि राजपूत जाति के तीन दिग्गजों के चुनाव मैदान में होने के बावजूद यादव और मुसलमान मतों के सहारे राजद प्रत्याशी की जीत हो जाएगी। पर राजद और उसके प्रत्याशी की आशाओं पर जदयू के वोटरों ने पानी फेर दिया। बताया जाता है कि जदयू का शत-प्रतिशत वोट भाजपा प्रत्याशी अवधेश नारायण सिंह को गए। अवधेश नारायण सिंह की जीत के बाद ही राजद खेमें में बेचैनी बएÞ गई है। पूर्व मुख्यमंत्री राबड़ी देवी और उनके उप मुख्यमंत्री पुत्र तेजस्वी यादव ने साफ एलान और मांग कर दी है कि विधान परिषद का अगला सभापति राजद कोटे से होगा। गौश्रतलब है कि राजद खेमा और उसके नेता नीतीश कुमार द्वारा भाजपा प्रत्याशी को अपरोक्ष समर्थन दिए जाने से अंदर ही अंदर नाराज थे और रही-सही कसर राजद प्रत्याशी की हार ने पूरी कर दी। अबतक उनकी नाराजगी सतह पर नहीं आई थी अब जबकि राजद ने खुलकर किसी भी कीमत पर अवधेश नारायण को फिर से सभापति न बनने देने की जिद ठान ली है तो बिहार की राजनीति में एक नया भूचाल आना तय माना जा रहा है। अवधेश नारायण सिंह भले ही भाजपा में हों पर वह नीतीश के काफी करीबी हैं। यही कारण है कि 2015 में जदयू, राजद और कांग्रेस के महागठबंधन के बहुमत से सत्ता में आने के बावजूद नीतीश कुमार ने मित्र धर्म का निर्वहन करते हुए भाजपा के अवधेश नारायण सिंह को परिषद् का सभापति बनाए रखा। राजद की जिद के बाद अब तीन ही रास्ते सामने हैं। एक या तो परिषद् के सभापति का चुनाव हो। दूसरा या तो नीतीश राजद की बातों को मानकर राजद कोटे से सभापति बनाएं या फिर नीतीश महागठबंधन तोड़कर फिर से एनडीए का दामन थाम लें। अगर परिषद अध्यक्ष के लिए चुनाव की नौबत आती है तो बाजी जदयू और भाजपा के हाथों में ही रहेगी। भाजपा तो अवधेश नारायण का समर्थन करेगी ही विधान परिषद् में सबसे ज्यादा सदस्यों वाली जदयू और कांग्रेस का भी समर्थन अवधेश नारायण सिंह को ही मिलेगा। हालांकि ऐसा लगता नहीं कि राजद वर्तमान राजनीतिक हालात को देखते हुए अपने स्टैंड पर कायम रह पाएगा। अगर इस मामले में भविष्य में कोई जीच या राजनतिक बदलाव होता है तो उसका सबसे ज्यादा खामियाजा राजद को ही उठाना पड़ेगा। जिस तरह नीतीश कुमार ने कभी एनडीए से पाला बदलकर राजद और कांग्रेस के समर्थन से अपनी सरकार बरकरार रखी थी ज्यादा जीच होने पर यह संभव है कि नीतीश कुमार फिर से एनडीए के साथ होकर अपनी सरकार बना लें। विधानसभा में जदयू के 71 सदस्य है जबकि राजग गठबंधन के 58 सदस्य। दोनों की संख्या मिलाकर 129 हो जाती है जो संख्या बहुमत के लिए अनिवार्य संख्या 122 से 7 अधिक है। राजद अगर कांग्रेस के 27, निर्दलीय चार और सीपीआईएमएल के तीन सदस्यों सहित अपने 80 सदस्यों की संख्या को जोड़ता है तब भी उसकी संख्या मात्र 114 ही रहती है, जो सरकार बनाने के लिए प्रर्याप्त नहीं है। बहरहाल राजनीति अनिश्चितताओं का खेल है। देखना तो यह दिलचस्प होगा कि अब आगे-आगे होता है क्या।